राह चलने का शऊर
प्रयोग – 6
मुहावरा है ‘जिन्हें राह चलने का शऊर नहीं, वे भी …’
पर परख कर देखिए अपने देश में 95 प्रतिशत को राह चलने का शऊर नहीं है। यह हिसाब मैंने उस दूसरे पार्क में कुछ समय तक गिनती करने के बाद लगाया था जो उन दिनों हरा भरा हुआ करता था जिन दिनों अपना पार्क उजड़ा और उपेक्षित पड़ा था। टहलने के लिए कुछ समय उसी में जाता रहा। परन्तु उसके दो द्वारों के बीच केवल सौ फुट का ही अन्तर था जिसे ट्रैक पकड़ कर चलने पर दूरी बीस एक फुट बढ़ जाती थी। उतनी दूरी का श्रम बचाने के लिए लोग फेंस फलांग कर पार्क के लान को तिरछे काटते हुए चल देते जो उस हरियाली के बीच लोगों के चलने से एक चौड़ी पगडंडी में बदल गया था और ऑंखों को चुभता था। इसे रोकने के लिए एक बार उसे तार से रोकने का प्रबन्ध किसी ने किया पर वह अगले दिन नीचे पड़ा मिला। फिर एक लंबी पट्टी दोनों सिरों पर लगाई गई, कुछ उस तरह की जैसी लोगों की सज्जनता के भरोसे लगा दी जाती हैं, वे टूटी मिली। एक सज्जन ने, क्योंकि एमसीडी तो इस तरह की तत्परता दिखा ही नहीं सकता था, प्लास्टिक की जाली वाली बाड़ उस हिस्से पर लगा दिया। अब उसके दोनों सिरों से घूम कर प्रवेश और निकास जारी रहा । इस से उस निचाट लकीर की चौड़ाई और बढ़ गई । इतनी मामूली सी दूरी को कम करने के लिए 95 प्रतिशत लोग, इतना कुछ तोड़ने, गिराने और टेढ़े मेढ़े रास्ते निकालने के लिए तैयार थे, परन्तु ट्रैक से चलने को तैयार न थे।
इसके पीछे एक मामूली सा कारण था। यदि वहॉं भी हरी भरी घास होती तो फेंस का सम्मान करने हुए कम से कम 95 प्रतिशत ट्रैक से ही गुजरते, परन्तु किसी बुराई के लिए एक प्रतिशत ही काफी होता है, कई बार एक मच्छर तक। पांच प्रतिशत से तो महाव्याधि पैदा हो जाती है। उन पांच प्रतिशत आलसी लोगों ने समय और दूरी बचाने के लिए जो शार्टकट अपनाया तो निशान, गहरा होने और घासरहित होने के साथ प्रतिशत में वृद्धि होती चली गई अौर इस तरह जो पॉंच प्रतिशत था वह 95 प्रतिशत में बदल गया। ये वे लोग थे जो सोचते, जब धूल मिट्टी ही है तो मेरे चलने से तो कोई नुकसान तो हाेगा नहीं। अब पहले का 95 प्रतिशत पॉंच प्रतिशत रह गया। इस आदत को बदलने के लिए माली ने अपनी आेर से कुछ प्रयत्न किए। पहले इस भाग को पानी से भर देता और रास्ता कुछ गहरा पहले से हो चुके होने के कारण कीचपथ में बदल जाता। इस बीच रास्ते से चलने वालों की संख्या कुछ बढ़ जाती फिर भी इतनी नहीं कि 95 प्रतिशत हो जाय। उन्होंने इस रास्ते के आगे पांच पाच चंपा के कुंज बना कर रास्ता अवरुद्ध करना चाहा पर दस पन्द्रह दिनों बाद उनका इतना निशान ही बच रहा कि पौधे इन्हीं थालों में पौधे लगाए गए थे। इसलिए पाया यह कि समाज के केवल पाँच प्रतिशत ही लोग ऐसे होते हैं जिनको सही रास्ते पर चलना पसन्द होता है, परन्तु इन पॉंच प्रतिशत में भी चलने की तमीज होती है यह तभी तक जब तक उनमें कोई पान न खाता हो।
एशियाई देश जिस बात के लिए जगद्विख्यात रहे हैं और आज भी हैं वह यह कि इन्हें थूकते रहने से इतना प्रेम है कि आप सावधानी से न चलें ताे आगे वाले के थूक की चपेट में आ सकते हैं। थूकने में आसानी हो इसके लिए वे पान खाते हैं जिससे अधिक से अधिक थूक का उत्पादन किया जा सके और पान की पीक घुल कर भीतर न चली जाए, इसलिए उसमें जर्दे का इस्तेमाल करते हैं कि थूकने का कर्तव्य पूरी तत्परता से निभा सकें। इसके बाद दीवारों पर सड़कों पर, यहां तक कि अस्पतालों और मन्दिरों तक में थूकने का अधिकार मिल जाता है। मध्यकाल में तो हैसियत का आदमी वह समझा जाता था जो थूकने का शौक पूरा करने के लिए उगलदान साथ लिए चलता था।
परन्तु जो बात मुझे सबसे असह्य लगती वह फिर 95 प्रतिशत की एक अलग श्रेणी का निर्माण करती। इसकी परीक्षा पार्कों में ही की जा सकती है जहॉं ट्रैक के निकट ही फूलों की कतारें लगी होतीं। फूलों के फूलों और कलियों की जो गत होती थी वह तो आप देख ही चुके हैं परन्तु उनकी पत्तियों का जो हाल होता है वह उससे भी दर्दनाक होता उनके डंठल दीखते, पत्तियॉं आधी फटी या टूटी नहीं तो टहनी पर अपने होने का निशान छोड़ कर गायब ।
अगले पार्क के अनुभवों का लाभ उठा कर मैंने अपने पार्क में हरियाली लौटने के बाद इस बात का पयत्न करना था कि वे बातें यहां न दुहराई जाऍं । परन्तु पहले आप यह तो समझ लें कि कुमार्ग बनते कैसे हैं, पत्तियॉं टूटती क्यों हैं। शार्ट कट अपनाने वालों की नजर रास्ते पर होती ही नहीं, वह लक्ष्य पर टिकी रहती है अर्थात् वह मंजिल जहां पहुंच कर आगे की मंजिल तय करनी है इसलिए उन्हें बीच का कुछ दिखाई ही नहीं देता। पांव अपने आप अपना रास्ता तैयार कर लेते हैं। हमारे पार्क में इसके खतरे अधिक थे। कारण प्रवेश और निकास के बीच की दूरी कम होने के कारण उसका एक छोटा सा हिस्सा उससे प्रभावित था। हमारे पार्क के मामले में यह पार्क की लंबाई के दोनों सिरों पर था जिसमें बीच का भी एक ट्रैक बना था और कई शार्टकट बनते थे। इसके लिए मैं बैठा होता और निकट से कोई राह छोड़ शार्टकट अपनाता तो उसे आवाज देकर बुला लेता । उसकी उम्र , भद्रता और लिंग का ध्यान रखते हुए कई तरह के जुमलों का सहारा लेना पड़ता जिनमें कुछ निम्न प्रकार हैं:
१. वयोवृद्ध सज्जन से:
क. क्षमा कीजिएगा । एक अनुरोध था । यदि हम बड़े बूढ़े ही सही राह न चलेंगे तो बच्चे तो गलत राह अपनाएंगे ही ।
ख . आप से एक छोटी सी मदद चाहिए । वह उन्मुख होते तो निवेदन करता, ‘हम इस कोशिश में हैं कि इस पार्क की हालत भी अगले पार्क जैसी न हो जाय। क्या इसमें आपका सहयोग मिलेगा ?
ग. बहन जी या भाइ साब, (आगे शब्द से काम न लेकर हँस कर हाथ से रास्ता दिदखाने से काम चल जाता।
२. नौजवाानों से:
क. इस उम्र में यह हाल, चार कदम अधिक चलना पड़ा तो बेहोश हो जाओग?
ख. आप मेरा एक काम करेंगे ? वह अनुरोध को ठुकरा कैसे सकता था । ‘आप कृपा करके इस रास्ते से उस । जगह जायँ जहाँ से आप ट्रैक से उतरे थेऔर िफर सही रासते से चल कर आगे जायँ ।’ इसका पालन करबद्ध क्षमायाचना और इस प्रतिज्ञा में होता कि आगे से ऐसा नहीं होगा।
३. कम उम्र के झुंड बना कर या अकेले दुकेलेलड़कों लड़कियों के मामले में: क. भेंड़ बकरियों की तक तरह चलते हो । आदमी की तरह चलना कब सीखोगे। पीछे जाओ रास्ते से आओ।
ख . रास्ते से चलना भी नहीं आता फिर पढ़ाई क्या करते होगे?
ग. चलो इधर। इधर से जाओ। रास्ता दिखाई नहीं देता।
ये कुछ नमूने हैं । वाक्य, भंगी, सब बदलता रहता और इसका पहला लक्ष्य होता सुनने वाले को अप्रत्याशित झटका लगे और वह बहस करने की जगह अनुपालन को तैयार हो जाय।
लोगों को यह जरूरी हस्तक्षेप भी लगता और लगता यह आदमी है क्या। न उम्र का खयाल न इज्जत बेइज्जत का । थकता भी नहीं। यह तो कोई नहीं कहता कि पागल तो नहीं हाे गया है क्योंकि बीच बीच में किसी न किसी प्रसंग में बात चीत का अवसर मिल ही जाता जिससे यह भ्रम दूर हो सके, परन्तु यह सोच कर कि किसी को क्या अधिकार है कि दूसरों को अपने अनुसार चलाए। किसी देश में किसी भी सभ्य समाज में किसी दूसरे के अटपटे व्यवहार पर चेहरे की भावभंगी से लोग अपनी असहमति या उपेक्षा भले प्रकट कर दें, सीधे कोई हस्तक्षेप नहीं करता न करना उचित माना जाता है। यह काम जरूरी होने पर पुलिस का है। परन्तु इस देश की विलक्षणता यह है कि आजादी का अर्थ हम काम न करने की आजादी या जो काम फायदे का हो उसे करने की आजादी समझते हैं इसलिए कोई अपना काम नहीं करता। लोग रिश्वत दे कर या बहुत बडी कीमत चुका कर योग्यताएं अर्जित करते हैं और नौकरी के बाद उसकी वसूली आरंभ कर देते हैं इसलिए चिकित्सा तक का व्यवसाय बूचड़खाने के करीब पहुंच गया है। निष्ठुरता में भी, भ्रष्टता में भी । जो अपवाद हैं वे देवतुल्य लगते हैं। ऐसे में नागरिक हस्तक्षेक की अपरिहार्यता बढ़ जाती है, परन्तु देश वही ठहरा इसलिए नागरिक भी समझते हैं, मुफ्त का सरदर्द क्यों लेना। कुछ लाभ हो तो धक्कामुक्की होने लगेगी। ऐसे देश और समाज को जहां जाना चाहिए वहीं जा रहा है। पता नहीं मोदी इसे कितना बदल पाएंगे। भींगा हुआ उपला यदि सुलग भी गया तो धुंआ देगा, आग की कल्पना करनी होगी।
परन्तु मैं एक प्रयोग कर रहा था। व्यावहारिक शिक्षा का जिसमें मेरे छात्र सभी उम्रों, लिेंगों, जातियों, भाषाओं, धर्मों और क्षेत्रों के लोग थे। यह एक ऐसा अनूठा विश्वविद्यालय था जिसके चरित्र को केवल मैं जानता था क्योंकि मैं इसका कुलपति, अध्यापक, चपरासी, चौकीदार सब था।
यह जानता था उन्हें मैं एक पहेली जैसा लगता रहा हाेऊंगा। एक साथ सभी योजनाओं पर काम करते हुए लोग हैरान होते कि यह थकता या ऊबता क्यों नहीं। विनोद में अपना मूल्यांकन स्वयं करते हुए बताता इस पार्क में मेरे सिवा एक मेरा सीनियर भी है, और उस पागल की याद दिलाता जो लगभग पूरे दिन पार्क में ही बिताता, खिन्न बैठा रहता। बेंच पर नहीं, चबूतरे के किनारे और फिर दंड बैठक लगाने लगता। उम्र कोई तीस की होगी। किसी को तंग नहीं करता। एक बार पुलिस वाले दूसरे असामाजिक तत्वों की तरह उसे भी भगाने लगे तो मैंने रोक दिया। कभी कभी ही वह हैल्युसिनेशन के दौर से गुजरता जिसमें किसी अदृश्य से बाते करता और कुछ भंगियां भी करता परन्तु कभी कोई ऐसा व्यवहार नहीं जिससे किसी को आपत्ति हो। एक बार मैंने उसको गाते सुना, कोई फिल्मी गीत गुनगनाते हुए चल रहा था। स्वर बहुत अच्छा था परन्तु पांच छह साल के बीच ही उसका वजन कुछ कम हो गया था, अौर बालों में सफेदी आने लगी थी। मैं बताता, मेरा सीनियर वह है मैं उसके अंडर काम करता हूँ तो सुनने वाला या किसी बात पर जिद करने वाला कंधा डाल देता। मेरा सुबह शाम मिला कर चार घंटे पार्क में ही बीतता। वहीं अखबार पढ़ना और कुछ लिखना पढ़ना भी परन्तु यह काम मुझे उतना ही जरूरी और महत्वपूर्ण लगता और इसमें उतना ही सर्जनात्मक आनन्द आता जैसा लिखने में।
परन्तु यदि ऊपर के विवरण से यह लगे कि केवल समझाने से ही पूरा काम हो गया तो यह भ्रम होगा। कुछ स्थलों को पहचान कर राह रोकने के लिए ट्रीगार्ड के साथ पौधे भी लगवाने पड़े । यह सन्तोष जरूर है कि उस तरह की पगडंडियां जिनका आभास मिलने लगा था नहीं बन पाईं न ही उन पौधों से छेडछाड हुई। चलने का शऊर कितनों को आया यह तो आज भी नहीं कह सकता। पार्क से गुजरते हुए उनका चाल चलन अवश्य सुधर गया। विरल अपवाद आज भी देखे जा सकते हैं परन्तु वह पहली बार पार्क में आने वालों के साथ ही देखने में आता है। वह तो रहेगा ही नहीं तो पार्क कैदखाने में बदल जाय।