Post – 2016-09-18

कुछ और प्रयोग

समस्‍यायें होती नहीं हैं, पैदा होती रहती हैं

समस्‍यायें कभी पूरी तरह नहीं सुलझतीं। एक को सुलझाओ तो उसी से दूसरी प्रकट हो जाती है,या पैदा हो जाती हैं इसलिए कोई ऐसा सुखद दिन न आएगा जब हम उनसे मुक्‍त हो जायँ। प्रलय से पहले आदमी समस्‍या से निजात नहीं पा सकता । सो राेइये जार जार क्‍या कीजिए हाय हाय क्‍यों । वे भौतिक हों या सामाजिक, उनको सुलझाने में जुटे हुए लोगों को हाय हाय करने की न जरूरत होती है न फुरसत। उनके फैसलों में अपने हाय तौबा से बाधा पहुँचाने से अधिक सही है उनकी देशनिष्‍ठा, कार्यनिष्‍ठा और निर्णयशक्ति पर हमें भरोसा है। यह बात उन पर लागू नहीं होती जिनके लिए कभी प्रदीप ने कहा था, ‘संभल के रहना अपने घर में छिपे हुए गद्दारों से’ जिनकी राष्‍ट्रनिष्‍ठा सदा से सन्दिग्‍ध रही है, और इसे वे फासिज्‍म का पर्याय बता कर दूसरों के सद्विश्‍वास को भी कम करते रहे हैं। वे आज भी वही कर रहे हैं। कई बार समस्‍याओं का चरित्र दुहरा होता, आफत लगने वाली स्थिति भी प्रगति या नयी संभावना का संकेत बन कर आती है । आप जो काम सबसे अच्‍छी तरह कर सकते हैं वह ईमानदारी से करें, और दूसरों के एेसे काम का समर्थन करे, इसी का नाम राष्‍ट्रभक्ति है। अत:

प्रयोग-7
वे तोड़ते कुछ नहीं, बस टूट जाता है

राह चलने के शऊर की दूसरी परख भी किसी पार्क में ही हो सकती है, खास कर हमारे पार्क में जहां वाकवे से सटे फूलों के पौदे लगे हुए थे। लोग, खास करके नौजवान, चले आ रहे हैं, आपस में बात करते या अकेले दुकेले। उनका हाथ अपने आप बढ़ जाता है, वह एक दो पत्तियां तोड़ लेता है कुछ देर मसलता रहता फिर हाथ उुगलियॉं अलग हो जाती हैं, वह नीचे गिर जाता है और अगले पौधे के निकट पहुंचने तक खाली रहता है और फिर वही क्रिया। आप पूछें यह क्‍या करते हैं आप ? वह चौंक कर आपको देखने लगेगा, ”मैने क्‍या किया? मैंने तो कुछ किया ही नहीं ।”

वह सचमुच नहीं जानता कि उसने कुछ किया है, इस ओर उसका ध्‍यान ही नहीं था। आदत। रिफलेक्‍स ऐक्‍शन। अब उसे पीछे टूट कर गिरी हुई पत्‍ती को दिखाइये तो घबरा कर अपना सर पीट लेगा, ”अरे।” शर्म से कहेगा, ”अब आगे से ऐसा नहीं करूँगा। ” यह चलती राह कुछ न कुछ तोड़ते छेड़ते, इस विषय में सचेत हुए बिना कि वे किसी चीज को बर्वाद कर रहे हैं, बर्वाद करते हुए, चलने वालों की यह मात्र एक कोटि है जिसके कारण फूलों के फूलों और कलियों की जो गत होती थी वह तो आप देख ही चुके हैं परन्‍तु उनकी पत्तियों का जो हाल होता है वह उससे भी दर्दनाक होता उनके डंठल दीखते, पत्तियॉं आधी फटी या टूटी नहीं तो टहनी पर अपने होने का निशान छोड़ कर गायब । टहनियॉं टूटी हुई, लटकी हुई, सूखती हुई।

एक अलग कोटि उनकी जिनको पत्‍ते तोड़ना आकर्षक लगता था। इसका पता कुछ देर से चला। यह बच्‍चों के मामले मे होता, वे अड़हुल की पत्‍ती तोड़ कर हथेली पर रखते और दूसरे हाथ से उस पर मारते तो पटाखे जैसी आवाज होती ।

डांटने, समझाने, लज्जित करने और हल्‍के दंडित करने के कई तरीके अपनाने पड़े। एक सज्‍जन ने अपने घर में मेरा जिक्र किया तो उनकी पुत्रबधू ने जानना चाहा क्‍या वही जो किसी को पत्‍ती तक तोड़ने नहीं देते हैं। शायद यह कुछ के लिए यह मेरी पहचान बन गया था। दंड की बात यह कि पत्‍ती तोडने के बाद कोई लड़का सामने पड़ जाता या दीख जाता तो बुला लेता और कहता, जाओ, दो पत्तियो हमारे लिए भी तोड़ कर लाओ, मैं भी इसी तरह फेंकूंगा।

कई बार वे लौट भी पड़ते फिर समझ में बात आती तो हाथ जोड़ लेते, ‘आगे से नहीं करूंगा।’ उनमें कितनो को यह प्रतिज्ञा याद रहती यह तो नहीं कह सकता, परन्‍तु अब आपको उन पर पत्तियां साबित दिखाई देंगी। चोरी से एक पत्‍ती तोड़ कर पटाखा बजाने वाले इक्‍के दुक्‍के फिर भी मिल जाएंगे।

प्रयोग – 8
गालियॉं आत्‍मीयता प्रकट करती हैं

यदि कोई युवा बंगाली है और ”शाला” अर्थात् साला का प्रयोग विरामचिन्‍हों के रूप में नहीं करता तो उसको दूसरा कोई बंगाली मान भी ले पर बंगाली उसे बंगाली मानने को तैयार ही नहीं होते। जिसे वह इस संबंधसूचक से संबोधित करता है वह भी यदि इसका प्रयोग न हो तो उसकी आत्‍मीयता पर शक करने लगता है।

यह जो बहन की गाली है इसका तो इतिहास भी बहुत पुराना है, पूषा की तो ऋग्‍वेद में बहन का यार कह कर कई बार खिल्‍ली उड़ाई गई है – स्वसुर्याे जार उच्यते ; स्वसुर्जारः षृणोतु नः। प्रकृति का वर्णन करते हुए कवि क्रीड़ाभाव से कई बार ऐसी चुहल करते हैं। दिन के पीछे रात पड़ी है, दोनों एक ही कालदेव की सन्‍तानें यम और यमी हैं । रात दिन के साथ होने की बेताबी में लगातार उसका पीछा कर रही है, और यम कहता है, यह उचित नहीं है, पर आने वाले युगों में इसका भी लिहाज न रह जायेगा – आ घा ते गच्‍छन् उत्‍तरा युगानि यत्र जामय कृण्‍वन्‍नजामि ।

जहॉं इनसेस्‍ट की अवधारणाएं काम करती हैं वहां वर्जित संबंधों को ले कर संवेदनाएं अधिक प्रखर होती हैं। ऐसी गालियों का मनोविज्ञान यही है । किसी का भी इनसे मर्माहत होना स्‍वाभाविक है, परन्‍तु कुछ जनों या सभ्‍यता और शिक्षा से बंचित स्‍तरों पर इनका खुल कर प्रयोग होता है। गालियां देने वालों के बारे में हमारे मन में तिरस्‍कार भाव पैदा होता है इसलिए गालियां देने वाला अपनी आदत के कारण अनिवार्य रूप में अपमानित हाेता है, गाली जिसे दी जाती है उसे अक्‍सर पता भी नहीं चलता और उस पर असर भी नहीं पड़ता।

परन्‍तु अपने कथन को अधिक मार्मिक, अधिक वेधक बनाने के लिए भी
गालियों का प्रयोग किया जाता है, और शौर्य या समझ की कमी के लिए भी ऐसे पूर्वपद लगाए जाते हैं अश्‍लील होते हैं।

परन्‍तु कुछ समाजों या स्‍तरों पर भाषा इन गुप्‍त अंगों और क्रियाओं का प्रयोग विरामचिन्‍हों के रूप में अपना जीवट दिखाने के लिए धड़ल्‍ले के साथ किया जाता है। किसानी पृष्‍ठभूमि से आए गूजरों के साथ यही है। उनके ही बच्‍चे पार्क के एक ट्रैक से हो कर अपने स्‍कूल के लिए आते जाते थे और ऊंची आवाज में बातें करते और विरामचिन्‍हों का प्रयोग करते गुजरते । उनका जत्‍था होता। जिस लड़के के मुंह तेरी मां बहन वाली उक्ति निकली उसे एक दो सेकंड के बाद मैंने पास बुलाया। पूछा ‘क्‍या तुम लोग अपनी मां बहन के साथ यही करते हो जो अभी कह रहे थे। बारी बारी से तुम लोग आपस में यही करते हो और किसी को बुरा तक नहीं ?’

उसने कान पकड़ा, ‘आगे से नहीं।’

वह लौटा तो उसके साथियों ने पूछा क्‍या बात हुई तो सुन कर सभी सकपका गए । पर मुझसे दूर, गेट के पास पहुंच कर ऊंची आवाज में मुझे सुनाते हुए एक दूसरे को वही गालियॉं देने लगे। मैं निराश नहीं था। जानता था बात सही निशाने पर पहुंची है। यह अहंकार कि किसी के समझाने से हम मानने वाले नहीं, उन्‍हें यह दिखाने को प्रेरित कर रहा है, कि हम तो नहीं छोड़ते अपनी आदत। क्‍या कर लोगे।’ पर अगले दिन से गालियों में कमी आने लगी । मुझे देखते, मुंह में आई गाली झटके से रोक लेते। धीरे धीर उनकी यह आदत छूट गई। दुबारा याद भी दिलाना नहीं पड़ा।

प्रयोग – 9
समाधान समस्‍या का जनक है

अब तक हमारे यहां कुछ लोगों ने पार्क के रखरखाव के लिए एक कार्यकारिणी भी बना ली थी। उसके इतिहास में जाने का यह स्‍थान नहीं, परन्‍तु उनके सहयोग काउंसलर विनोद कुमार विनी की सक्रियता से ट्रैक पर टाइल लग गया था, बेचों के लिए चबूतरे बन गए थे और उनकी संख्‍या में भी वृद्धि हो गई थी।

इस बीच एक और विकास हो गया था। पार्क से दो सौ गज की दूरी पर अग्रसेन कालेज चालू हो गया था और उसके छात्रों छात्राओं में से कुछ को अपनी क्‍लास से अधिक आकर्षक यह पार्क लगने लगा था और उन्‍होंने इसमें अड्डा जमाना आरंभ कर दिया। उनके आगमन का समय टहलने वालों के बाद आरंभ होता और शाम की हवाखोरी से पहले समाप्‍त हो जाता इसलिए टहलने घूमने वालों को उनसे अधिक शिकायत नहीं थी। उनकी चंचलता भी सामान्‍य चंचलता के दायरे मे ही आती थी। उनमें दम लगाने वालों का भी एक दल था जो आ कर एक खास कोने में बैठते।

जाड़े के दिनों में मैं सामान्‍यत: स्‍माग से बचने के लिए नव बजे निकलता और यथानियम एक दो घंटे बिताता, इसलिए टहलते समय उस कोने पर पहुंच कर उनकी क्‍लास लेने खड़ा हो गया। हस्‍तक्षेप करते हुए मेरा हमेशा, अन्‍त:करण से यह भाव होता कि ये हमारे ही बच्‍चे हैं, या हम जैसे परिवारों के ही बच्‍चे हैं। मैंने बढ़ते हुए पोल्‍यूशन से भीतर पहुंचने वाली गैसों के कारण उत्‍पन्‍न परेशानियों के बीच ऊपर से इस लत से होने वाली समस्‍या, बाद में इस आदत को छोड़ना कितना कठिन हो सकता है यह अपने उदाहरण से समझाते हुए जिसका वे अभी अनुमान तक नहीं लगा सकते थे, दुखी मन से सिगरेट पीने से बरता और अनुरोध किया कि वे स्‍वयं भी इसे समझें, अपने दोस्‍तों में भी इस विषय में चेतना फैलाएँ अौर अन्‍त में यह याद दिलाया कि सार्वजनिक स्‍थान पर धूम्रपान तो दंडनीय अपराध भी है।

उनको सिगरेट बुझानी पड़ी, विश्‍वास दिलाना पड़ा कि आगे से ऐसा नहीं करेंगे । पर मैं जानता था आदतें न इतनी आसानी से जाती हैं, न नुकसान के डर से समझदार से समझदार आदमी ने कभी कोई शिक्षा ग्रहण की है। चर्चिल तो चेन स्‍मोकर था। एक बार किसी डाक्‍टर ने बताया कि एक सिगरेट या सिगार पीने के जिन्‍दगी कितने मिनट कम हो जाती है तो चर्चिल ने हिसाब लगा कर कहा, यदि ऐसा है तो मुझे पैदा होने से इतने दिन पहले ही मर जाना चाहिए था। आदत अक्‍ल पर भारी पड़ती है और कुलत तो उससे भी दूनी भारी पड़ती है।

परन्‍तु इस समझाने के बाद कहीं होई सिगरेट लिए घुसता दीखता या दूर से ही आभास हो जाता कि वहां बैठा काेई सिगरेट पी रहा था मैं उसे पार्क से बाहर निकल जाने को कहता। मेरा दोस्‍त साथ होता तो डर जाता । उतने मुस्‍तंड है, उनसे झगड़ा करोगे। मैं उत्तर न देता, जो करना होता वही करता। और एक बार भी न तो उन्‍होंने मुझे चुनौती दी कि वे तो पिएंगे, आप को जो करना हो कर लो, न निकाल जाने पर उलट कर जवाब दिया। केवल एक बार एक लड़का अड़ गया, वे दो तीन थे मैं अकेला, ‘मैं तो नहीं फेंकता।’

मेरा कठोर निर्णय था, ‘बाहर निकलो।’ उसने अकड़ में सिगरेट मुंह से लगाना चाहा। मैंने उसे उतने ही निर्णायक स्‍वर में डॉंटा, ‘ मेरी बात सुनो। यदि तुम नहीं निकलोगे तो मैं इस छड़ी से पहले तुम्‍हारा हाथ तोड़ दूंगा और उसके बाद छड़ी तुम्‍हें दे दूंगा, तुम मेरा सिर तोड़ देना, लेकिन सिगरेट लेकर भीतर तो नहीं घुस सकते।’ कुछ उसकी समझ में आया कुछ उसके दोस्‍तों के, वे उसे पकड़ कर बाहर निकल गये।

परन्‍तु उनकी आदत तो मैं नहीं ही छुड़वा सका। वे बैठते तो बातें तो राजनीति की या किसी दूसरे संगत विषय की करते रहते। मेरे पीठ पीछे होने चोरी से सिगरेट जला लेते और जहां देखते कि मैं उधर को आ रहा हूं वे सिगरे बुझा देते या छिपा देते । उधर से गुजरते हुए धुंए की गन्‍ध से पता चल जाता और फिर मुझे अपनी सांस की बीमारी के अनुभव के कारण आतर हो कर एक लेक्‍चर सुनाना पड़ता। ऐसा लगता है कि सिगरेट कंपनियां या तो जर्दे के साथ अफीम का या किसी दूसरे ड्रग का इतना हल्‍का पुट देने लगी हैं कि आसानी से पकड़ में न आएं और कोई कार्रवाई न हो, पर एक दो बार सिगरेट पीने के बाद अादत आसानी से नहीं छूटती। यह मैं इस आधार पर अनुमान से कह रहा हूं कि पिछले कुछ वर्षों में सिगरेट पीने वालों की संख्‍या में वृद्धि होने लगी है जब कि इस विषय में जागरूकता बढ़ने के साथ पिछले बीस तीस साल से इसमें गिरावट आ रही थी।