Post – 2016-09-11

संचार काव्‍यशास्‍त्रीय समस्‍या नहीं है : एक प्रयोग

संचार की समस्या का एक पक्ष इस बात से जुड़ा है कि जो विमुख है उसे क्या उन्मुख बनाया जा सकता है? जो सुन कर भी नहीं सुन पाता उसकी मानसिक बधिरता को कम किया जा सकता है? जो जिस गर्हित स्तर पर है, और बोलचाल में अपने भदेसपन पर गर्व करता है उसे यह समझाया जा सकता है कि इससे तुम अपने का ही अपमानित कर रहे हो?

हम जिस समाज में रहते हैं उसमें ये सभी मनोवृत्तियाँ पाई जाती हैं। जो मेरा लिखा पढ़ते हैं और ‘लाइक’ करते हैं, हो सकता है, उसे पसन्द भी करते हों, और यह भी सोचते हों कि इससे मैं तुष्ट अनुभव करता हूँ। परन्‍तु फेसबुक की महिमा से हम जानते हैं कि गालियॉं देने और फूहड़ मजाक करने वालों को पसन्द करने वालों की संख्या मुझे पसन्द करने वालों से कहीं अधिक है। यह बोध नम्र बनाता है।

मैं प्रशंसा की चिन्‍ता न कर, अपमान झेल कर भी अपनी पहुँच के दायरे में आने वाले समाज को उस रास्तेे पर लाना चाहता हूँ जिसे वह भी सही मानता हैं पर लोग जिसके निर्वाह की चिन्ता नहीं करते।

मैं गलत चीज, गलत विचार, गलत व्यवहार के विरोध में इसलिए खड़ा होता हूँ कि इसके बिना मेरे जीने का कोई अर्थ नहीं, और इसमें अपमान झेलने के भी क्षण आते है जिनसे खीझ होती है पर अगले ही क्षण यह बोध भी पैदा होता है कि अपमानित करने वाला हार गया। आज अपने भीतर अपने को बदलने का साहस नहीं पैदा कर सका है, शायद किसी दूसरे के सुझाव पर बदलाव लाने को अपनी प्रतिष्‍ठा के विपरीत पा रहा हो, पर उसकी अभद्रता के बाद भी मेरी दृढ़ता से वह प्रभावित हुए बिना नहीं रह सकता। खीझ का स्‍थान मुस्‍कराहट में तो नहीं, पर होठो की चमक में अवश्य बदल जाती है। और बाद में पाता परिणाम अनुमान के अनुरूप हुआ । जहॉं भी रहूँ यह ‘पंगेबाजी’ मुझे अपने जीवन का पर्याय प्रतीत होती है।

यह व्यवहार की समस्‍या नहीं, संचार को क्रिया में रूपान्‍तरित करने या उसकी संभावना पैदा करने की समस्‍या है। केवल साहित्‍य की या विचार की समस्‍या नहीं है इससे जुड़े बहुत सारे पहलू हैं । इसे एक प्रयोग से समझा जा सकता है।

मैंने आज से साढ़ आठ साल पहले वसुन्धरा एन्क्‍लेव के जिस फ्लैट को पसन्द किया उसके पीछे आकर्षण यह था कि मेरे फ्लैट के बिल्कुकल पास, इतने पास कि उसे अपना लान समझा जा सके, एक पार्क था। वह वीरान और उपेक्षित था। कुल दो एकड़ का पार्क और उसको घेरे छह बहुमंजिली सोसाटियों का घेरा, जिनके लिए वही सांस लेने की खुुली जगह, पर पेड़ अधमरे, हरियाली नदारद। मौसमी पेड़ पौदे सूखे हुए । मौसम भी पतझड़ का। सिंचाई का प्रबन्‍ध नहीं। उस पर डीडीए का बोर्ड जिस पर लिखा मिला दो माली और दो पहरेदारों का नाम। इस बीच उसको म्‍युनिस्‍पैलिटी को सौंपा जाना था इसलिए न कोई माली, न ही पहरेदार । पंप टूटा हुआ और लोग उदासीन । कुछ लोग उसका उपयोग कुत्ते घुमाने और जिन प्रयोजनों से वे कुत्ते घुमाने निकलते हैं उसके लिए करते थे। निकट के गॉंव, दल्‍लूपुरा, के एक डेढ़ दर्जन बच्चेे उसमें क्रिकेट खेलते और खेल का पूरा मजा लेने के लिए शोर मचाते और गालियों में बात करते। उस सूखे मैदान में उनके बल्ले और जमीन की टकराहट और दौड़ भाग के कारण धूल चारों ओर फैलती। सांस की बीमारी के कारण मेरी घुटन बढ़ जाती । जिस आकर्षण से चुनाव किया था उसका उल्टा असर। दो चार लोग जो खुली जगह में आ कर बैठ जाते थे, खीझे से रहते।

समस्‍या यह कि क्‍या इस स्थिति को झेला जाय या इसमें बदलाव लाया जाय। लोगों से बात की कि इस स्थिति में बदलाव लाना चाहिए तो उसे असंभव मान कर वे मुस्कराने लगे। कुछ लोगों को सुझाया कि यदि क्रिकेट को रोका जा सके तो डस्ट पोल्यूशन तो कम होगी। उन्होंने बताया, ये दल्लूंपुरा के लड़के हैं, रोकिएगा तो पूरा गांव पहुंच जाएगा। एक बार ऐसा किया था तो एक सज्जन का सर फूट गया था। दल्‍लूपुरा के निवासियों का मानना था कि सरकार ने यह जमीन उनसे ही ली थी। यहां उनके खेत हुआ करते थे। इसलिए इमारतें जिनके भी कब्‍जे में हों, बाकी जगह तो उनकी ही है।

मुझे यह समस्‍या जटिल ताे लगती थी परन्‍तु यहीं तो प्रयोग और प्रयत्‍न की कसौटी होती है । मैंने समझाया, इस बार सर मेरा फूटेगा, आपलोग केवल मेरे साथ खडे़ हो जायँ। तीन चार लोग ही सही। इससे उन्‍हें लगेगा कि हम सभी यह सोचते हैं। इतना जोखिम उठाने के लिए भी कोई तैयार नहीं। पत्‍थर चलेगा तो अकेले मेरा सिर तो फूटेगा नहीं। मुझे लगता पत्‍थर इसलिए चला होगा कि संचार स्‍थापित ही न हो सका होगा।

किताबों से नहीं, जिन्‍दगी से आरंभ होती है संचार की समस्या और जिन्‍दगी के लिए ही जरूरी है इसका स्‍थापित होता। यहीं से उसके अनुरूप शैली और युक्ति के आविष्कार की समस्या पैदा होती है। यहीं इसके वे पहलू सामने आते हैं जो संचार प्रणाली पर पोथे पढ़ने वालों की कल्‍पना तक में नहीं आते। इन पहलुओं पर हम अपने प्रयोग और परिणाम अगले खंड में देखेंगे । यहॉं पर समस्‍या का रूप यह कि लंबी, पुश्‍त दर पुश्‍त की जान पहचान वाले समुदायों में, चाहे वे पुराने शहरों के स्‍थायी निवासी हो या ग्रामीण समाज, संवाद कायम करना अधिक आसान होता है। नये विकसित नगरों, उनकी नई बस्तियों में यह कम होता है। महानगरों में यह अभाव अपने चरम पर होता है । अस्‍थायी संपर्क के दौरान जैसे यात्रा के दौरान यह सतही होता है। एक ही मत या विश्‍वास से जुड़े दूरस्‍थ लोगों के बीच यह अधिक प्रगाढ़ होता है, सुशिक्षित शहरी लोगों के बीच यह दिखावटी होता है और एक ही विभाग में काम करने वालों के बीच यह कार्यसाधक होता है। संचार भंग की स्थिति संदेह होने पर एक ही परिवार में, पति पत्‍नी तक के बीच दूरी पैदा हो सकती है या की जा सकती है । अत: संचार की पहली शर्त है पारस्‍परिक विश्‍वास, स्‍थायी जान पहचान, स्‍थायी हितबद्धता और बन्‍धुता या बराबरी का भाव । इसलिए राेबदार पद पर बैठा, या मौज मस्‍ती का जीवन जीने वाला व्‍यक्ति अपने समाज से सही संपर्क स्‍थापित कर ही नहीं सकता । हमारे साहित्‍य का अपने समाज से कटने का एक कारण साहित्यिक जगत का शैक्षिक व आर्थिक आभिजात्‍य है इसलिए वह लफ्फाजी कर सकता है, कलात्‍मक हथकंडे दिखा सकता है, नायाब अनुभूतियों को कलाग्राहकों के समक्ष पेश कर सकता है परन्‍तु जनसाधारण के अनुभवों से जुड़ नहीं सकता। मुझे ऐसा लगता है। क्‍या आप लोगों को भी ऐसा ही लगता ?