Post – 2016-09-10

रामसेवक श्रीवास्‍तव

न कुछ किया न करेंगे आगे । उठ कर चल देंगे बिन बताए हुए।

पंक्तियां तो मेरी हैं पर रामसेवक पर शायद मुझसे अधिक लागू होती हैं। रामसेवक श्रीवास्‍तव का जन्‍म सन् 1930 के संक्रान्ति के दिन हुआ था। दोनों जहां को छोड़ कर वापस जाने से पहले हमसे पहली तारीख, को मेरे क्रासिंग रिपवब्लिक के आवास पर आए तो हम लोग इस बात पर विचार कर रहे थे कि उन्‍हें घुटन भरे अपने प्रेस एन्‍क्‍लेव के आवास को छोड़ कर मेरे पड़ोस मे एक फ्लैट किराए पर ले लेना चाहिए और पुराना मकान जब तक बिकता नहीं है तब तक उसे किराए पर दे देना चाहिए। आर्थिक समस्‍याओं का भी समाधान हो जाएगा। विचार हो ही रहा था कि उस शख्‍स ने फैसला ही बदल दिया, घर छोडना ही पड़े ताे इस दुनिया में क्‍या रखा है। पांच दिन में इतने अलामात जुटा लिए और मैक्‍स में दाखिल हुए तो डाक्‍टरों ने दिन गिनने का समय दिया, जिन्‍दगी लौटाने का आश्‍वासन नहीं। 7 को उनकी दशा देखी तो केवल इस कामना के साथ आइसीयू से बाहर आया कि ऐ कालदेव इसे जल्‍द से जल्‍द दुखों से मुक्ति दे। नीलम सिंह से यह नहीं कह सकता था। आठ सितंबर को 10 बजे के आसपास फोन आया वह नहीं रहे। परिचय या समाधिलेख लिखना हो तो लिखा जाएगा:
रामसेवक श्रीवास्‍तव (जन्‍म 13 या 14 जनवरी 1930 : मृत्‍यु 8 सितंबर 2016) यह न लिखा जायेगा कि 86 साल 197 दिन उम्रखाते जमा।
यह न लिखा जाएगा कि उसके स्‍वभाव और व्‍यवहार में एक ऋजुता थी जिसके कारण वह संभ्रान्‍त समझे जाने वालों की कुटिलता को लक्ष्‍य कर सकता था और अपनी बिरादरी के विषय में भी आलोचनात्‍मक रुख अपना सकता था।
रामसेवक से मेरी प्रगाढ़ता तब बढ़ी थी जब मैं सातवीं या आठवीं में अपने उस किसान हाई स्‍कूल का छात्र था जहॉं के अध्‍यापकों में सभी मिडिल पास थे पर एक मात्र हाई स्‍कूल पास था उसका प्रधानाध्‍यापक। नहीं, यह सही नहीं है। बात इससे पहले की होनी चाहिए। कारण इस समय तक तो मेरे लिए भारती सदन पुस्‍तकालय का भंडार खुल गया था, जब कि जिस समय की बात कर रहा हूँ, मैं पाठ्य सामग्री के लिए आतुर कुछ भी पढ़ने के लिए ललकता था। मेरी बहन की एक सहली कुछ अमीर थी, वह पढ़ी लिखी थी। चिनगारी पत्रिका के कुछ अंक उसी से मिले थे। कुशवाहा कान्‍त की लेखन शैली, भाषा का मैं इतना कायल हो गया कि रामसेवक से जो तब बांसगांव में हाई स्‍कूल में पढ़ते थे, मिलने पर उसकी जो प्रशंसा की उसे पढ़ कर, उससे अभिभूत हो कर अपनी फाकामस्‍ती के बीच से वह मिर्जापुर जाने की जुगत निकाल ही बैठे, पर आज तो शहर का नाम भी गलत लगता है। वह जो भी रहा हो, वहां पहुंचने पर पता चला कि वह तो बनारस अमुक जगह पहुंचे हुए हैं। रामसेवक के वहॉं पहुंचने पर पता चला, वह आए तो थे पर लौट गए। रामसेवक वहां से फिर वापस लौटे और कुशवाहा कान्‍त को नोबेल मिलने से वह प्रसन्‍नता नहीं हो सकती थी जो एक बालक के उसकी लेखनशैली की प्रशंसा से हुई । उसने अपनी पुस्‍तकों का सेट और बहुत सारी आत्‍मीयता उस बालक को समर्पित कीं।

मैं व्‍यक्तियों और उनकी प्रतिभा की पहचान इसी से करता हूँ। क्‍या उसमें,‍ जिसे वह अपना समझता है, उसमें कुछ करने का जुनून है या नहीं। और यह वह बिन्‍दु था हमारी आत्‍मीयता का।

रामसेवक अच्‍छा लिखते थे। मूल प्रकृति कविता की थी। कविता के कारण ही नीलम से आत्‍मीयता हुई थी और लीजिए दोनों को मेरा ही घर पसंद था कि नीलम ने तय किया कि मैं अपने जीवन सहचर का निर्णय स्‍वयं करूँगी, दूसरा कोई नहीं, और यदि यह संभव नहीं तो उस बन्‍धन को ही तोड़ दूँगी और वह घर छोड़ कर दिल्‍ली पहुंच गई। नीलम में भी काफी आग थी, नारीवाद के नारे लगाने वालों को भी अपने योद्धाओं का पता नहीं। रामसेवक ने नीलम की कविताओं से प्रभावित हो कर कविता लिखना छोड़ दिया, बाकी रही पत्रकारिता। पर नीलम ने कविता लिखना क्‍यों छोड़ दिया यह मेरी समझ में आज तक नहीं आ सका या यदि आ सका तो यह कि उस कविता आन्‍दोलन में झाग था, सत्‍व न था और नीलम को कहीं इसका आभास हुआ होगा।

परन्‍तु मैं तो क्रम का ध्‍यान रख ही नहीं पाता। रामसेवक ने मिडिल स्‍कूल तो घर की रोटी से पास कर लिया, पर गॉंव में आगे का रास्‍ता बन्‍द था जो रोटी से नहीं, चांदी से खुलता था। उन्‍होंने मिडिल स्‍कूल के बाद आवारगी शुरू कर दी। तास खेलना, जुआ खेलना, जब कि घर में चूहे तक भागने का निर्णय ले चुके हो। और जिस जन्‍मदिन का उन्‍हें याद था उसी दिन घर में खाने को कुछ न था और जुए में उन्‍होंने इकन्‍नी जीती थी और उसी से खरीदे चावल और दाल से उस दिन पेट भर खाने को मिला था।

वे परिस्थियॉं मुझे मालूम नहीं जिनमें बांसगांव के एक नि:सन्‍तान वकील से उनका परिचय हुआ जो अपनी नि:सन्‍तानता की पूर्ति अपने भाइयों की कन्‍याओं, साधनहीन छात्रों को पुत्रवत पालन से करते थे: नाम जहां तक याद है, था, ब्रहमदेव श्रीवास्‍तव परन्‍तु उनके संरक्षण में पलने वाले बच्‍चे जाति सीमा से बाहर के भी होते थे।

उनके संरक्षण में ही रामसेवक ने हाई स्‍कूल पास किया पर आगे फिर साधनहीनता। संभवत: उन्‍हीं के संपर्कों से रामसेवक नये नये खुले आपूर्ति विभाग के सुपरवाइजर बन गए । इस बार उनसे दुबारा संपर्क हुआ। राशन का अनाज मिलता न था। बाहर का अनाज कई गुना मँहगा होता था, इसलिए जिन्‍हें राशन का अनाज बिना कालाबाजारी के मिल गया, वे भाग्‍यशाली थे। मैं रामसेवक से पूर्व परिचित होने के कारण सौभाग्‍यशाली था।

फिर वे आपूर्ति विभाग से हट गए और शिक्षा की तड़प को पूरा करने के लिए प्रयत्‍नशील हुए। इन कवायदों में उन्‍होंने जो वर्ष गँवाए उनके प्रताप से हम कालेज के स्‍तर पर सहपाठी हो गए और यह सिलसिला एम ए तक बना रहा।

बीए में हमारे श्रद्धेय अध्‍यापक राम अधार सिंह कहते रामसेवक की अंग्रेजी तुमसे अच्‍छी है। यह अन्‍त तक अच्‍छी रही। यह दूसरी बात है कि हम दोनों में किसी ने अंग्रेजी से एम ए करने का निर्णय नहीं किया। एम ए में हम साथ थे और आप आश्‍चर्य न मानें तो कहें, आठ अंक से हम दोनों प्रथम श्रेणी चूके थे। अंक भी बराबर।

हम दोनों ने साधनहीनता के कारण रेलवे में क्‍लर्की करते हुए एम ए किया था और हम दोनों से अधिक अंक किसी अन्‍य का न था।

मैं यह पता चलने पर कि गोरखपुर विश्‍वविद्यालय चाकरी करने वालों को शोध का अवसर नहीं देगा, नौकरी छोड़ कर भाग्‍य आजमाने कलकत्‍ता पहुंच गया और इस बीच रामसेवक जो इससे पहले एक साहित्यिक पत्रिका के कुछ अंक रचना नाम की पत्रिका के निकाल चुके थे, दैनिक जागरण के भोपाल संस्‍करण के संपादक हो कर चले गए और फिर जब दिनमान में पहुुँचे तो मैं दिल्‍ली में अपना ठिकाना बना चुका था। उसके बाद घर अलग और परिवार एक जैसा संबन्‍ध अंत तक बना रहा।
विदा होना तो पड़ता है
विदा कहना तो पड़ता है
न जाता है न जाएगा
उसे रखना भी पड़ता है।