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संचार की समस्या और विचार का संकट
मुझे भी दूसरों की तरह यह सुन कर अच्छा लगता है कि लोगों को मेरा लिखा पसन्द आता है। उर्दू मुशायरों में तो जितना समय लोग शेर पढ़ने पर लगाते हैं उससे अधिक समय घूम घूम कर ‘आदाब, आदाब, आदाब कहने में लगाते हैं और तारीफ नहीं हुई तो ”गौर फरमाइये जनाब” कहते हुए अपने मानीखेज शेर को दो तीन बार पढ़ते हैं और तारीफ हो गई तो आदाब बजाने के बाद थोड़ी साँस ले कर वही शेर फिर पढते हैं। पर मेरी जरूरत इससे पूरी नहीं होती।
मैंने फेसबुक पर लिखने का यह फैसला हमारे बौद्धिक पर्यावरण में आई उस गिरावट से अपने को और अपने मित्रों को बाहर निकालने के लिए किया जो शोर तो मचाते हैं, पर कुछ कह नहीं पाते। जिस शोर की पहुँच शोर मचाने वालों तक है और वे ही एक दूसरे को दाद दे कर शोर को सरापा तक पहुँचा देते हैं और अपनी ही व्यर्थताबोध से बोलने और लिखने के क्षणों में भी अप्रासंगकि सा महसूस करते हैं।
जरूरी नहीं कि आप जिनको विचलन से बचाना चाहते हैं वे आपकी बात सुनें या कि यह मानें कि वे विचलित है और आप सही रास्ते पर हैं। आपकी बात न मानने का एक कारण यह भी है कि शिक्षा देने वाला या सुधार करने वाला जिनको सिखाना या सुधारना चाहता है वहां उसके इस भूमिका में आने के साथ ही यह प्रयास श्रेष्ठता और कनिष्ठता का भाव जुड़ जाता है। सुधारने वाला यह कहे बिना भी सिद्ध करता है कि वह सही है, दूसरे गलत। गलत लोग अपनी गलती छोड़ कर उसके बराबर हो सकते हैं। इससे आत्मरक्षा का एक तन्त्र गलत मान लिए गए लोगों में, इस विषय में सचेत हुए बिना भी खड़ा हो जाता है जिसमें वह आपको पूरा सुनने से पहले, आपका इरादा भॉंप कर ही आपका विरोध करने लगता है या अपने कान बन्द कर लेता है। जहॉं चुप रह जाना पड़ता है वहॉं भी उस अवसर की तलाश करता रहता है जब आप से कोई बड़ी चूक हो और वह आपको नंगा कर दे। जिन बुराइयों के सभी कायल हैं, जिससे वे स्वयं भी बचना चाहते हैं, परन्तु आदत गुलामी का दूसरा नाम है सो उससे बच नहीं पाते, जैसे शराबनोशी, उसे भी छोड़ने की सलाह देने वालों को शराबियो से गालियां और फब्तियाँ ही सुननी पड़ती हैं। सुधारकों के बीच फूट और अपराधियों के बीच एक दूसरे के लिए जान देने तक की तैयारी से भी यह समझा जा सकता है कि बुराई का डंका बजाने वालों के बीच इतनी एक जुटता होती है क्यों होती है। कारण वे जानते हैं अकेले वे अपना बचाव नहीं कर सकते। संघबद्ध हो कर ही बचाव कर सकते हैं। अपने संगठन के बल पर अपनी हरकतें भी जारी रख सकते है और अपने आलोचकों को ही अपराधी सिद्ध कर सकते हैं।
हम अपने भाव या विचार दूसरों तक पहुँचाने के लिए बोलते या लिखते हैं। यदि संचार ही बाधित हो जाय तो यह लेखक, वक्ता, कलाकार सभी के इस गर्व को चूर करने के लिए पर्याप्त है कि वे बड़े लेखक हैं। वे उस काम की सफलता से ही बड़े हो सकते हैं जिसे वे कर रहे हैं, और उसकी व्यर्थता से ही वे कहीं के नहीं रह जाते। हमारे बुद्धिजीवियों, कवियों और कलाकारों को इस बात का प्रखर बोध है कि वे अपने ही समाज से कटे हुए हैं। उनका अपना ही समाज उनसे अलग थलग पड़ गया है। भतृहरि ने कहा था, जो लोग साहित्य, संगीत और कला से रहित हैं वे बिना सींग और पूँछ वाले पशु हैं। हमारे बुद्धिजीवी स्वयं अपनी कला और साहित्य से कट गए हैं। उसकी परंपरा से कट ही नहीं गए हैं, वह उन्हें व्यर्थ लगती है। वे कलाबाजी में कमाल रखने वाले एक तरह के पशु बन गए हैं तो उनका समाज साहित्य, संगीत, और कला से वचित हो कर एक दूसरी तरह के पशुओं के झुंड में बदलता गया है। भर्तृहरि को सही सिद्ध करने के लिए अपराध आज का सबसे बड़ा मनोरंजन, सबसे बड़ा समाचार और सबसे बड़ा कारोबार बनता चला गया है।
हमारे आलोचकों में यदि थोड़ी भी समझ होती तो वे पहले इस समस्या से जूझते कि ऐसा हुआ क्यों और हम अपने ही समाज से वैचारिक, साहित्यिक और कलात्मक संवाद कैसे स्थापित कर सकते हैं। इसलिए मैं उन्हें उन पशुओं में रखने को बाध्य अनुभव करता हूँ जिनकी पूछ भी है और इसलिए पूँछ भी है, गो है बकरी जैसी छोटी क्याेंकि यह पूछ सताज से कटे हुए उस मंडली तक ही है। सींग तो मुर्रा भेड़े को भी मात देती हुई पूरी शान से निकली और घूम कर अपने ही माथे में गड़ती हुई । इसलिए इस समस्या के चरित्र को समझने में भी वे असमर्थ है, इसको समझने की तैयारी तो उनसे हो नहीं सकती। पचास साल तक वे सभी चीजों का मूल्यांकन इस कसौटी पर करते रहे कि इसमें मार्क्सवाद है या नहीं और है तो कितने परसेंट। अब लगता है पैमाइश बदल गई है और देखा यह जा रहा है कि इसमें कहीं हिन्दू तो नहीं घुस आया है, यदि है तो कितने परसेंट। यह देखने वाला कोई नहीं कि इसमे जिन्दगी और समाज कितने परसेंट है और उसमें अपने समाज तक पहुँचने की क्षमता कितने परसेंट बची रह गई है और इस स्थिति से कैसे मुक्ति पाई जा सकती है।
जब मैं कहता हूँ कि मुझे दाद से सन्तोष नहीं है, मैं जानना चाहता हूँ भाषा और संचार की इस समस्या को दूर करने में मेरे मित्र अपनी भाषा और अभिव्यक्ति में सुधार करते हुए इसे कितनी सार्वजनिक बना सकते हैं कि लोग सुनें भी, समझें भी, बदलें भी । आप में से कोई ऐसा नाकारा नहीं जो जैसा वह सोचता और लिखता है उससे अच्छा सोच और लिख न सके और इसे अपनी प्रतिक्रियाओं में भी प्रमाणित न कर सके। प्रतिभा लोक से आती है, परलोक से नहीं। साधारण लोगों की समझ और अभिव्यक्ति में निखार आता है तो अधिक संवेदनशील और सक्षम लोग उसे निखार देते हुए वह संवादी साहित्य और कला रच पाते हैं जिसके अभाव में हम अपनी अतीत का गौरवगान करने वाले एक उजड्ड समाज के बदल गए हैं।