Post – 2016-09-07

मैंने आज की जो पोस्‍ट लिखी थी वह दो बार ध्‍वस्‍त हो गई। इसे कल पूरा करूँगा। तब तक के लिए एक बहुत पुरानी तुकबन्‍दी :

जिन दिनों उड़ते थे परबत बेघड़क, अफवाह से।
सीख बैठे पैंतरे कुछ हम भी थे अल्लाह से।
लम्बी चौड़ी कन्दराएँ पर्वतों में थीं जनाब
हम सफर करते थे उनमें बैठ शाहंशाह से।
अल्ला तब सुनते भी थे अपनी भी थे कुछ मानते
तब कभी लगते नहीं थे हमको तानाशाह से।
हँस भी पड़ते थे अगर करते थे हम उनसे मज़ाक़
हम भी तब डरते न थे, रहते थे बेपरवाह से।
थे हमारे ही पड़ोसी दोस्त भी, हमराज भी
सामना होता कभी तो कहते थे अल्लाह से।
क्यों अकेले सड़ रहे हो, कुछ करो ऐसा जनाब
हुस्न बरसे, इश्‍क हो, हम भी मिलें हमराह से
फिर तुम्हारी याद आई दिल धड़कने सा लगा
वह घड़ी और यह कभी फुर्सत न पाई चाह से।
प्यार केवल प्यार केवल प्यार ही करते रहे
भर गई दुनिया मगर फिर भी थे लापरवाह से
होश में आए तो नफरत आग में, पानी में भी
सोचते हैं माँग क्या बैठे थे हम अल्लाह से।
23.11.2008