Post – 2016-09-08

निदान – 43
एकान्‍तवादी सोच की सीमा

”तुम नाहक अपना भी समय बर्वाद करते हो और हमें भी बोर करते हो। तुम्‍हारी बात कोई नहीं मानने वाला । सबके अपने अपने विचार हैं और उन्‍हें उसी से काम लेना है। तुम एक दिन में उनकी मान्‍यताओं को नहीं बदल सकते । देखा नहीं, एक आदमी गोडसे को हत्‍यारा कह रहा है, और वह अकेला नहीं है, वह देश के नब्‍बे प्रतिशत का प्रवक्‍ता है, और दूसरा गांधी को काइयॉं बनिया, और उनका जो सबसे कारगर हथियार, अनशन का था उसे हिंसा। मजा तो तब आया जब एक ने तुम्‍हें गांधी का चेला भी बना दिया। ” मेरे मित्र को लंबे समय बाद फेस बुक से अपना मौन तोड़ने का मसाला मिला था।

”मैं भी यही चाहता हूँ कि कोई मेरी बात न माने, सही प्रतीत होने वाले की भी बौद्धिक गुलामी, गुलामी ही हुआ करती है। जब हम उस सही को समुचित ऊहापोह से अपना सत्‍य बना लेते हैं, तब वही बात किसी दूसरे की नहीं रह जाती, अपनी खोज बन जाती है। यह बात मैं पहले भी दुहराता रहा हूँ कि आपके पास देखने को अपनी ही ऑंखें हैं, सोचने के लिए अपना ही दिमाग है। वह प्रखर या मन्‍द जैसा भी है, काम आप को उसी से लेना है। न लिया तो ऑंख रहते अन्‍धे और दिमाग रहते भी मूर्ख बने रहेंगे। काम लेने से उनमें प्रखरता भी आएगी। परन्‍तु ज्ञान के अहंकार में लोग दूसरो की नजर और दूसरों केे दिमाग से काम लेने के अादी हो जाते हैं और उनके ही काम आते हैं।

”तुमने देखा तो असहमत होने वालों में किसी के पास अपना दिमाग था ही नहीं, न अपनी आंख थी। वे किसी न किसी के कहे को दुहरा रहे थे और यह भी नहीं देख रहे थे कि उसका आधार क्‍या था।

”अपने को अपने ही मुंह से भगवान कहने वाला, अपने को बुद्ध का अवतार कहने वाला, ओसो कहने वाला वाक्‍चतुर मनमौजी जिसकी समझ ऐसी कि हिप्पियों को सच्‍चा बौद्ध बता कर अरबों की संपदा और अन्‍धभक्‍तों का काफिला तैयार करले, बौद्ध चिन्‍तन को पंचमकार पर उतार दे जो वह अपनी दुर्गति के दिनों में हुआ था, परन्‍तु करनी ऐसी कि जिस अमेरिका में लंपटता के दर्शन से इतना वैभव अर्जित किया उसमें प्रवेश तक पर प्रतिबन्‍ध लगा दिया गया, वह गांधी के अनशन पर फैसला देने का अधिकारी हो गया और आपने अपनी बुद्धि उसके हवाले कर दी।

”यदि आपको स्‍वयं अपने विवेक से ऐसा लगता है कि कोई व्‍यक्ति या विचार गलत है उसे बिना किसी की बैसाखी के प्रस्‍तुत करें । फतवा न दें, उसका तर्क दें और उस तर्क से लगे कि आप ने इस पर सोचविचार किया है तो उसका महत्‍व है। जब तुम कहो, नब्‍बे प्रतिशत लोग किसी को ऐसा मानते हैं इसलिए तुम भी मानते हो, तो तुमने अपनी अक्‍ल से काम ही नहीं लिया, संख्‍या के दबाव में आ गए। और संख्‍या जितनी ही बढ़ती जाती है विचार पक्ष उतना ही घटता जाता है, यह हम पहले समझा चुके हैं।

”देखो, तुम्‍हें एक बार फिर याद दिला दूँ कि मैं यदि इस बात में सफल हो जाऊँ कि सभी लोग मेरी बात मान लें, तो यह मेरे लिए दुर्भाग्‍य की बात होगी। अमुक ने कहा इसलिए मैं भी मानता हूॅे मार्का लोग सुपठित और वाचाल मूर्ख होते हैं जिन्‍हें अपना दिमाग और आंख होते हुए भी उससे काम लेने तक का शऊर नहीं होता और सारी दुनिया को अपने अनुसार चलाने की ठाने रहते हैं। और तुम उन मूर्खों के शिरोमणि तो नहीं कहूँगा, पर उसी माला में पिरोए हुए मनके हो जो अपने धागे से बाहर नहीं जा सकते।”

”मैं चाहता हूँ लोग मानना छोड़ें, देखना और सोचना आरंभ करें और उसके बाद किसी बात से तब तक के लिए सहमत हों जब तक कि किसी अन्‍य कसौटी पर वह गलत नहीं सिद्ध हो जाती। विज्ञान में यही होता है, इसलिए विज्ञान समाज को आगे ले जाता है। विश्‍वास में यह नहीं होता, इसलिए विश्‍वास, समाज को पीछे ले जाता है। विश्‍वासों के टकराव से कलह पैदा होता है, हिंसा होती है, भाषा, आचार, व्‍यवहार, आपसी लगाव सभी में गिरावट आती है। आदमी तर्क को भी गुर्राहट में बदल कर अपरिभाषित और बोझिल शब्‍दों में बात करने लगता है और यह जानता नहीं कि उसने जो कहा उसका अर्थ क्‍या है ।

”मुझे यदि यह सौभाग्‍य प्राप्‍त होता कि मैं गांधी या मार्क्‍स का शिष्‍य बन जाता तो अपने को सौभाग्‍यशाली समझता । पर विचारक चेले नहीं बनाते, उनके अनुयायी होते हैं। जिस आदमी का भी यह कथन है उसके पास दिमाग नहीं है, जहॉं विचार होना चाहिए वहॉं घ़ृणा भरी है और यह स्‍थानान्‍तरित घृणा है। वह मुसलमानों से घृणा करता है और उन मुसलमानों केे साथ खड़ा होता है जो इसी तरह हिन्‍दुओं से घृणा करते हैं । यदि गांधी मुसलमानों से, कम से कम नोआखाली की यात्रा के बाद ही घृणा करते तो उसे उनमें शायद कोई कमी नहीं दिखाई देती, नहीं करते इसलिए मुसलमानों के लिए घृणा गांधी के प्रति घृणा में बदल गई । गोडसे को एक बार ध्‍यान से पढ़ो, वह लगातार इस बात की शिकायत करता है कि गांधी मुसलमानों से प्रेम करते थे, पूरा इतिहास इसी बात को सिद्ध करने के लिए, और इसीलिए मैं कह रहा था कि जिस व्‍यक्ति के मन में विचार का स्‍थान घृणा ले लेगी, वह मानसिक रूप में सन्‍तुलित नहीं रह जाएगा ।”

शास्‍त्री का धैर्य जवाब दे गया, ”डाक्‍साब, आप विज्ञान का इतना नाम लेते हैं, विज्ञान में जो प्रयोग विफल हो जाते हैं उन्‍हें दुबारा दुहराया जाता है। गांधी जी जैसा आदमी जिस प्रयत्‍न में विफल हो गया, उसी को आप जारी रखना चाहते हैं?”

मैंने उत्‍तर में कुछ कहना चाहा कि शास्‍त्री जी ने राेक दिया, ”एक बात और, यदि प्रेम एक आवेग है तो घृणा भी एक आवेग ही तो है। प्रेम के पीछे पागल होने वाले घृणा से विक्षुब्‍ध होने वालों को गलत कैसे कह सकते हैं ? आप गांधी जी के मुस्लिम प्रेम को भी विक्षिप्‍तता क्‍यों नहीं कहते ?”

”शास्‍त्री की बात में दम है भाई।” मित्र के मुँह से भी शास्‍त्री जी का समर्थन आज कल कुछ अधिक ही देखने में आने लगा है। ”और तुम तो स्‍वयं कभी अपनी अक्‍ल से काम नहीं लेते यार। जो पसन्‍द आ गया उसके अवगुण भी तुम्‍हें गुण दिखाई देने लगते हैं।”

मेरे सामने दो विरोधी थे, दोनों की ओर मुड़ना संभन नहीं था इसलिए शास्‍त्री जी की ओर मुड़ा, ”शास्‍त्री जी, जिसमें आदमी पागल होता है उसे प्रेम नहीं आसक्ति कहते हैं, लव नहीं, इनफैचुएशन। यह मनोविकृति है और इसलिए यही घृणा में परिवर्तित होता है। आवेग मात्र बुरे नहीं होते, प्रेम, करुणा, दया, श्रद्धा को उन शत्रुओं में नहीं गिना गया है जिन पर विजय पा कर मनुष्‍य पशु से आदमी बनता है। बल्कि इन्‍हीं के बल पर वह उन संहारकारी आवेगों पर विजय पाता है। रही बात विज्ञान की, विज्ञान में प्रयोग के विफल होने के बाद प्रयत्‍न नहीं छोड़ दिया जाता। बार बार विफल होने के बाद भी अपनी पद्धति में परिष्‍कार करके, पुरानी गलतियों से बचते हुए प्रयत्‍न जारी रहता है। जब तक समस्‍या है, उसका समाधान नहीं मिलता तब तक प्रयत्‍न जारी रहेगा, अन्‍यथा समस्‍या हमारी निष्क्रियता के कारण अधिक उग्र होती चली जाएगी। सच्‍चे प्रेम में समझदारी होती है, सन्‍तुलन होता है, उसका चरित्र व्‍यक्तियों और संबंधों के अनुसार बदलता रहता है, वह अन्‍धा नहीं होता। इतनी विफलताओं के बाद भी, गांधी जी तक की विफलता के बाद भी, यदि मैं सोचता हूँ कि निराश होने से काम नहीं चलेगा तो कारण यह है कि, हमने इस समस्‍या को सही सन्‍दर्भ में रखा ही नहीं। समस्‍या के समाधान के लिए पहली जरूरत है उसके चरित्र को समझना। हमारी जो भी शिकायतें हैं उनके कारण को समझना।

” हम बहुत पहले की अपनी ही बात तो दुहरायें तो मनुष्‍य में गर्हित से देवोपम आचरण की अनन्‍त संभावनाऍं हैं और वह परिस्थितियों के दबाव में इनमें से कुछ भी हो सकता है। व्‍यक्ति ही नहीं पूरा का पूरा समाज। यदि उसका वैसा बना रहना हमारे लिए समस्‍या पैदा करता है तो हमे उसे उससे बाहर लाने या दूरी बना कर रहने का प्रयत्‍न करना होगा। मिटाने का तरीका आप अपना नहीं सकते। यह आपका तरीका भी नहीं है। आप के अनुसार यह उनका तरीका है और इसलिए ही आप उनसे घृणा करते हैं, परन्‍तु यह नहीं समझ पाते कि आपकी घृणा उनकी व्‍याधि को बढ़ा तो सकती है, घटा नहीं सकती। जहॉं साथ रहना एक विवशता हो वहॉं प्रेम नहीं, समझदारी की जरूरत होती है, जैसा आप यात्रा में करते हैं, एक ही प्रकार के संकट में घिर जाने पर करते हैं।

”विज्ञान की दुहाई देने वाला और कुछ न सीखने वाला मूर्ख तो हमारे पास बैठा हुआ है जो आज जब सूचना का तन्‍त्र इतना प्रबल है कि उसके सामने पड़ने पर तोपों का रुख मुड़ जाता है विचार की स्‍वतन्‍त्रता की लड़ाई में भी शामिल हो जाता है और किसी को असहमति का मौका भी नहीं देता। असहमत होने वालों पर गुर्राने लगता है। और इसके छोटे भाई आज भी नहीं समझ पाते कि यदि आपका ध्‍येय स्‍पष्‍ट और योजना व्‍याव‍हारिक हो तो सूचना तन्‍त्र से परिवर्तन लाया जा सकता है। वे आज भी गोली चला कर दुनियाा बदलने का काम कर रहे हैं और जहां तक उनकी पहुंच है वहां तक की जिन्‍दगी को नरक बना चुके हैं और नरक बनाए रखना चाहते हैं।

”हमें गुर्राना छोड़ कर समझने और समझाने का तरीका अपनाना होगा जिसका यह सोच कर कि मुसलमानों की भावनाऍं विचारों से आहत हो जाती हैं, कभी प्रयत्‍न किया ही नहीं गया। प्रयत्‍न केवल अपने को सही और दूसरे को गलत, अपने को ऊँचा और दूसरे को गया बीता सिद्ध करने का किया जाता रहा जिससे दूरियॉं बढ़ती हैं, समस्‍यायें जटिल होती है, खुले रास्‍ते भी बन्‍द होते हैं। हमें अपने एकान्‍तवादी सोच के दायरे से बाहर आने की चुनौती का सामना करना होगा।”