Post – 2016-09-08

निदान – 44
व्‍यामिश्रैव वाक्‍योस्ति परं सत्‍यं जनार्दन

”तुम कहो चाहे कुछ भी, गांधी जी का अनशन का तरीका सही नहीं था। यह भी हिंसा का ही रूप था।”

”दिक्‍कत तुम लोगों के साथ यही है कि न तो किसी चीज को ढंग से समझते हो, न ही सही शब्‍दों का इस्‍तेमाल कर पाते हो। पहली बात यह याद करो कि हम यह कह चुके हैं कि अनशन पुराना हथियार था जिसका प्रयोग ब्राह्मणों ने मध्‍यकाल में भी कुछ हद तक सफलता पूर्वक किया था, ”हम प्राण दे देंगे, पर जजिया नहीं देंगे।’ मध्‍यकालीन निरंकुशता के विरुद्ध यह हथियार काम कर गया था। गांधी ने इसका पुनराविष्‍कार किया था या परंपरा से लिया था यह तय करना आसान नहीं।

” किसी अन्‍य के प्राण लेना हत्‍या होती है, स्‍वयं अपने प्राण देना बलिदान । एक अपराध है दूसरे को बलिदान कहते हैं। दोनों के लिए एक ही शब्‍द का प्रयोग नहीं किया जा सकता । ये अलग भूमिकाऍं हैं। गांधी के अनशन को हिंसा कहना, ऐसा कहने वाले की विवेकबुद्धि की दुर्बलता को प्रकट करता है। जो सही शब्‍दों का प्रयोग तक नहीं जानता वह दार्शनिक लच्‍छेबाजी कर सकता है, चिन्‍तक हो नहीं सकता।

”यही बात दूसरों को उत्‍पीडित करने और स्‍वत: कष्‍ट सहने के विषय में कह सकते हो । रजनीश का व्‍यक्तित्‍व बहुत आकर्षक था, मैंने उनकाे 1968 में देखा था। चर्चा में तब भी थे, पर अधिक ध्‍यानाकर्षण के लिए तब तक मेरी शरण में नहीं आए थे, भगवान रजनीश नहीं कहते थे ऐसा याद आता है। स्‍थान डॉ. शर्राफ का आवास था और उन पर मुग्‍ध विवाहित डाक्‍टर के साथ सहजी‍वन के लिए कटिबद्ध उनकी प्रेमिका थी जिसने साहस से अपने रखैलपन की त्रासदी और अपनी अनन्‍य निष्‍ठा को काला-सफेद करते हुए स्‍वीकार किया और जिनकी प्रतिभा और गरिमा का मैं आदर करता हूँ। परन्‍तु उस समय तो उसे एक ऐसे दर्शन की जरूरत थी जिससे उसके जीवन और आचरण को नैतिक आधार मिल सके।

”एक राज की बात बताऊँ । उस गोष्‍ठी में जो अविस्‍मरणीय दीखा और आज तक याद है, उस युवती की सुडौल सांवली काया के साथ वे चकमती ऑंखें जो मणिधर में ही होती हैं और जिनको देख कर आप को नशा हो जाये। और रजनीश की तन्द्रिल, कहीं दूर और कहीं बहुत भीतर एक साथ देखती हुई ऑंखे जाे विषदंश के बाद देखने में आती हैं, मादक मदहिं पिये। पर जो सबसे व्‍यर्थ लगा था वह था हिप्पियों को बुद्ध का उत्‍तराधिकारी सिद्ध करने और देश विदेश के हमारे जाने हुए दार्शनिकों के फिकरों और विचारों को अद्भुत वाक्‍कौशल से आकर्षक और प्रभावशाली ढंग से प्रस्‍तुत करने का तरीका जिसमें अद्भुत का प्रभाव अप्रत्‍याशित की उपस्थिति से पड़ता है। चर्चा भारतीय अध्‍यात्‍म की हो रही है, सामान्‍यत: ऐसे व्‍यक्ति को पोंगा समझ लिया जाता है, परन्‍तु यदि इसके साथ कोई विश्‍वफलक से परिचित होने का आभास देते हुए अपनी बात कहे तो वह क्रान्तिकारी विचारक लगता है। भारतीय दर्शन के साथ संयम और मर्यादा स्‍वयं आ जुड़ती है, यदि ऐसे मे कोई जो जी आए सो करो हम हैं तुम्‍हरे साथ वाला दर्शन ले कर आता है तो वह कुछ अधिक क्रान्तिकारी लगता है

”इसलिए मेरे लिए किसी घटना का अच्‍छा या बुरा होना महत्‍व नहीं रखता, महत्‍व रखता है यह तथ्‍य कि क्‍या उस क्रिया के लिए परिस्थितयों का दबाव इतना प्रबल था कि उनका निवारण नहीं हो सकता था। यदि नहीं तो इसे नैतिकताबाह्य माना जा सकता है अर्थात् इसके आधार पर किसी को दोष नहीं दिया जा सकता परन्‍तु ऐसा करने का समर्थन करते हुए इसके लिए वातावरण नहीं तैयार किया जा सकता।

” हम सच बाेल नहीं पाते, सच बोलना तक सीख जायँ तो हमारी आधी समस्‍यायें हल हो जायें और बाकी आधी पैदा ही न होने पाऍं। गांधी अकेला एेसा व्‍यक्ति है जिसके पास सच के सिवाय कोई हथियार न था और जिससे ही वे सभी मूल्‍य जुड़ जाते हैं जिनका वह उन्‍नायक था। सत्‍य की रक्षा, असत्‍य और अन्‍याय का विरोध, हिंसा का विरोध और जहॉं कोई शस्‍त्र न काम करे और समस्‍त प्रयत्‍न विफल होने जा रहे हैं, वहां हम बचे रह भी गए तो क्‍या होगा। मरण का यह वरण, आमरण अनशन में प्रकट होता है, जिसे वे नहीं समझ सकते जिन्‍हें एक दिन भी भूखे पेट सोना नहीं पड़ा है, इसमें अंबेडकर भी आते हैं। इसे वे नहीं समझ सकते जो अपने लिए कुछ पाना चाहते हैं। भारतीय राजनीति में गांधी अकेला ऐसा व्‍यक्ति है जो निष्काम कर्मयोग का अर्थ जानता था, और इसलिए गीता के संदेश को समझता तो था परन्‍तु उससे भी बँध कर रहना नहीं चाहता था। न किसी को बॉंध कर रखना चाहता था।”

”यार, तुम क्‍यों नहीं मान लेते कि गांधी से भी गलतियॉं हुई हैं और उन्‍हें परम पुरुष पुरुषोत्‍तम सिद्ध करने की क्‍यों ठान लेते हो।’

”देखो जब तक किसी व्‍यक्ति को मेरी बात समझ में नहीं आती, तब तक मैं उसके साथ हूँ, जहॉं से समझ में आने के बाद भी वह अहंकारवश या लोभवश अपनी बात मनवाना चाहता है, फिकरों और फब्तियों और जड़सूत्रता का सहारा ले कर अपने को सही सिद्ध करना चाहता है, वहॉं वह विचार नहीं, उस विचार के संवाहक के रूप में खतरनाक हो जाता है, जैसे वे जीव जन्‍तु जो डेंगू, डेंगी और चिकेनगुनिया के ग्रस्‍त और स्‍वयं भी भुक्‍तभोगी प्राणी हैं, चाहे वे चूहे हों, या सूअर, या पक्षी। उन पर प्रहार किया जा सकता है, उनका सफाया किया जा सकता है, परन्‍तु अपने तई वे स्‍वयं भी किसी दूसरे की चूक के भुक्‍तभोगी हैं।”

”क्‍या तुम यह नहीं मानते कि गांधी ने उसी आर्यसमाज की जड़ें निर्मूल कर दीं जिसने उनके लिए मानसिक पर्यावरण तैयार किया था।”

”इस जिद पर सही होने के लिए तुम्‍हें मानना होगा कि आर्यसमाज के विचारक मूर्ख थे और उन्‍होंने सबसे आगे बढ़ कर गांधीवाद को अपनाया। उनमें कुछ ऐसे तत्‍व भी थे जो व्‍यावहारिक न थे। उन पर चर्चा करना समय की बर्वादी हाेगी। अभी तो हम शास्‍त्री जी की प्रश्‍नावली के एक प्रश्‍न से ही उलझ कर इतने दिन गँवा चुके हैं कि कुछ समझदार लोग बेहोशी से बचने का इलाज पता लगा रहे होंगे।

”देखो, बात का अन्‍त हो सकता है, बतंगड़ का नहीं । किसी समस्‍या से उठे सार्थक प्रश्‍नों का उत्‍तर ही दिया जा सकता है। हम पहले दो बातों को समझ लें। गांधी मनुष्‍य थे और देहधरे की कतिपय व्‍याधियों से मुक्‍त नहीं हो सकते थे और उनको व्‍याधि के रूप में परिभाषित करने पर भी मतभेद हो सकता है।

दूसरा, यह कि व्‍यक्तित्‍व का मूल्‍यांकन करने के लिए कुछ कसौटियां होती हैं जैसे खरे सोने या चांदी को परखने के लिए हुआ करती थीं। वे ही उनके मूल्‍यांकन के केन्‍द्र में होती हैं, उनसे अनमेल आरोपित हो सकता है। लिंकन को मैं उनके उस आचरण से समझता हूँ जिसमें वह एक सूअर को मरने से बचाने के लिए, समय की स्‍वल्‍पता को देखते हुए, अपने सूट के साथ पेट के बल फैल कर, अपनी जान का भी जोखिम उठाते हुए उसे बचाने का प्रयत्‍न करते हैं और जब उनके मित्र क्‍लब में उनकी मूर्खता की याद दिलाते हुए बताते हैं कि तुमने एक सूअर के लिए इतना बड़ा खतरा मोल लिया तो वह कहते हैं, सूअर के लिए नहीं, अपनी आत्‍मा के लिए। यदि उसे उस अवस्‍था में छोड़ कर चला आया होता तो मैं जीवन भर चैन से न रह पाता। जानते हो इस वाक्‍य को पढ़ कर कितनी बार कितना विगलित हुआ हूँ और आगे भी होता रहूँगा। महान व्‍यक्तियों की परख की कसौटियॉं उनके जीवन से ही निकलती हैं, वे किसी अन्‍य के पास होती ही नहीं।

”गांधी कब अपना मल स्‍वयं ढोकर नदी में विसर्र्जित करते थे। उस समय तक कोई ऐसा आन्‍दोलन था। अांबेडकर तब तक इस समस्‍या को भी समझने की योग्‍यता रखते थे। गांधी अपने मुवक्किलों में से उनके मूत्र को भी यदि वे पहले से उनके घरेलू अनुशासन के अभ्‍यस्‍त होते, बिना शिकायत स्‍वयं उसका निस्‍तारण करते और बा के रहते वह ऐसा करें इस बात को ले कर झगड़ा हो जाता। तुम जानते हो मुझे यह याद करने के बाद कैसा लगता है। इस तप:पूत व्‍यक्ति को लोग उसकी ऊँचाई से नीचे लाने का प्रयास करते हैं तो लगता है जैसे कोई किसी गहरी खाई में धॅसा व्‍यक्ति अपेक्षा कर रहा हो कि कैलाश को नीचे उतारो कि वह उसे देख और समझ सके। समझने वाले कैलाश को नीचे नहीं उतारते, अपनी कल्‍पना से कैलाश की ऊॅचाई पर पहुँच कर उसका दर्शन करते हैं।”

”तुम्‍हें यह क्‍यों भूल जाता है कि गांधी ने अंबेडकर को अपना आन्‍दोलन वापस लेने के लिए आमरण अनशन कर दिया था जिसमें विकल्‍प था ही नहीं। मेरी मानो या मेरी हत्‍या के अपराधी बनो।”

”सिरा बदल कर देखो। बाबा साहब ब्रितानी हाथों में खेलते हुए उससे भी अनर्गल प्रस्‍ताव रख्‍ा रहे थे कि पाकिस्‍तान की तरह दलितस्‍तान भी बनाओ। गांधी भी उस भविष्‍य को नहीं देख सकते थे जो अपनी सत्‍ता बचाने के लिए अंग्रेज हमें सौंपना चाहते थे, परन्‍तु जो व्‍यक्ति अस्‍पृश्‍यता, दलित और उसके दैन्‍य से इतना पीडि़त था कि उसने स्‍वराज्‍य का अर्थ अन्‍त्‍योदय कर रखा था, और जिसे उसके बाद किसी ने समझा नहीं, उसे समझ पाते तो सत्‍ता के मुहरे बन कर ऐसे हास्‍यास्‍पद प्रस्‍ताव अंबेडकर नहीं लाते। मैं इस सवाल पर बहस नहीं करना चाहता, जब तक कोई मुझसे किसी कारण से असहमत है, वह सही है, परन्‍तु मैं गलत नहीं हूँ। जिस दिन वह मुझे गलत सिद्ध कर देगा, मैं उसके मत को मान लूंगा। जो सही चीज को मान सकता है वह हारता नहीं, सच की रक्षा करता है।

”गांधी ने विभाजन के समय अनशन क्यों नहीं किया यह तो मुझे भी नहीं मालूम। गलतियां वह नहीं करते थे यह भी नहीं मानता, परन्‍तु गांधी रोबोट नहीं थे। इस खास क्षण में इतिहास ने ऐसा मोड़ लिया था कि देश ही नहीं दिल भी फट रहे थे, उन्‍हें बचाने का दायित्‍व किसी अन्‍य निर्णय से अधिक जरूरी था। यह मेरी समझ है, जरूरी नहीं कि तुम इससे सहमत होओ, न ही असहमत होने के कारण तुम्‍हें गलत कहूँगा। ”