निदान – 41
”आप को किस बात पर आपत्ति थी शास्त्री जी”, मैंने स्वयं कुरेदा ।
”आपत्ति कहना भी ठीक न होगा, ”पहली बात तो यह कि मुझेे नहीं लगता कि नाथूराम गोडसे को विक्षिप्त कहा जा सकता है। उसके बयान को पढि़ए, उसने प्रत्येक घटना का बहुत बारीकी से अध्यन किया था और उसका दृष्टिकोण आस्थावादी न हो कर वस्तुपरक था। यह सुविचारित फैसला था।
”दूसरी बात मैं कहना यह चाहता था कि यदि पश्चिमी मतों की प्रेरणा का स्रोत भारत ही था तो उनकी प्रकृति इतनी हिंसावादी क्यों हो गई कि उनमें हिंसा धर्म बन जाती है और धर्म हिंसा का कवच।”
”और तीसरी बात मैं यह कहना चाहता था, कि गांधी के प्रति द्वेष भावना रखने वाले दो थे । एक तो हमारे संगठन में भी और हिन्दू महासभा में भी गांधी जी के अली भाइयों के हाथ का खिलौना बन जाने के बाद उनसे दूरी बनाने के बाद भी मुसलमानों को खुश करने के लिए जिस तरह उनकी बीन पर सॉंप की तरह नाचते रहे कि वे किसी तरह खुश हो जायँ और उनकी इन समझौतावादी नीतियों के बाद भी, या शायद इससे बिदक कर मुसलमान हिन्दुओं पर बहाने तलाश करके और बहाने गढ़ कर कत्ल करते रहे उसे देखते हुए लगता कि अपने हिन्दू होने का गांधी जी लाख दावा करें, उनकी दृष्टि में हिन्दू की पीड़ा पीड़ा थी ही नहीं, इसलिए उनके कारण हिन्दुओं को जितना अपमानित होना पड़ा, जितना उत्पीड़न सहना पड़ा उसे देखते गांधी के प्रति वितृष्णा पैदा होना स्वाभाविक था। यह हिन्दू संगठनों में ही हो सकता था, क्योंकि दूसरे सभी हिन्दू की भावनाओं और यातनाओं की कीमत पर अपनी राजनीति कर रहे थे, जब कि हिन्दू महासभा और संघ समर्पित भाव से अपने समुदाय की वेदना को अनुभव कर रहे थे। डाक्साब, आप कुछ भी कहें, गांधी अतिकर्षित नेता हैं और उन्होंने कांग्रेस, देश का, और समाज का अधिक अहित किया। आप कहते हैं नेहरू ने देश का अधिक अहित किया, मैं कहता हूँ गांधी उस अहित की जड़ हैं।” शास्त्री जी आज पूरी तैयारी से आए थे।
मैंने कहा, ”शास्त्री जी आप प्रश्न कब पूछेंगे ?”
शास्त्री जी चकित, ”क्या मेरे प्रश्न आपको प्रश्न जैसे नहीं लगते ?” आज शास्त्री जी गोडसे की मुद्रा में आ गए थे। मेरे प्रति जो थोड़ा सा विनम्र भाव था, उस पर मान्यता की दृढ़ता हावी हो गई थी।
”प्रश्न होता तो जवाब देता । यह तो प्रश्नावली थी । और प्रश्नावली के अन्त में जो केन्द्रीय प्रश्न था उसका समाधान भी आपने पेश कर दिया था, इसलिए वह प्रश्न रह ही न गया था। अब आपको अपनी प्रश्नोत्तरी में से चुनाव करना है कि आपका पहला प्रश्न क्या है ?”
शास्त्री जी इसके लिए तैयार हो कर तो आए नहीं थे। हताशा में निकला ”डा..क्… स…आ…ब।” यह पूरा उत्तर था । निरुत्तर होने का । परन्तु इसी में से एक ऐसी लौ फूटी कि वह तन कर खड़े हो गए, ”यदि उत्तर है तो उत्तर से आरंभ करूँ । अनुमति है ?”
मैं खुश था कि अब मुझे उत्तर देने के लिए सोचना नहीं पड़ेगा, केवल सुनना पड़ेगा। मैंने हामी भर दी।
”पहली बात यह कि गांधी जी में आत्मबल बहुत था। जो ठान लिया उसे करके दिखाना है यह संकल्प अनन्य था। दक्षिण अफ्रीका में उनको जो सफलता मिली थी वह किसी अन्य के लिए दुर्लभ थी। विषम परिस्थितियों में उन्होंने अपने चित्त को जिस तरह अप्रभावित रखा उसका उदाहरण आधुनिक जीवन में मिलता नहीं और अतीत के बारे में हम इतना कम जानते हैं कि उसका दावा किसी के विषय में नहीं कर सकते। परन्तु इससे उनके मन में जो आत्मविश्वास पैदा हुआ था वह तानाशाही वाला था, यह कि वह दूसरे सभी लोगों के फैसलों के ऊपर अपने फैसले लाद सकते हैं और उससे पीछे हट नहीं सकते। उन्हें अपना निर्णय मानने को बाध्य कर सकते हैं । क्या मैं उनके प्रति अनुदार हो रहा हूँ ?”
”मैंने कहा, आप ठीक कह रहे हैें।” मैंने समर्थन किया ।
”गांधी जी राजनीतिज्ञ थे । राजनीतिज्ञ जब सत्य और न्याय काे अपना आयुध बनाता है तो भी उसका रणनीतिक महत्व अधिक होता है, तात्विक महत्व कम।
इसके अपवाद गांधी जी भी नहीं हो सकते थे और न थे। तिलक ने उन्हें कांग्रेस का भार सौंपा था और उन्होंने दावा किया था कि वह तिलक की विरासत को आगे बढ़ाएंगे। तिलक के सचिव जैसे मुहम्मद अली जिन्ना थे जिनका दृष्टिकोण राष्ट्रवादी था, यह वह व्यक्ति था जिसने गांधी के भारत आने पर महासभा का आयोजन किया था और गांधी ने उसे ही मुस्लिम समुदाय का प्रतिनिधि मानने की जगह मुहम्मद अली और शौकत अली को मान लिया, स्वतन्त्रता के धर्मनिरपेक्ष आन्दोलन को खिलाफत में साथ दे कर उसको इतना पथभ्रष्ट कर दिया। जिस सांप्रदायिक विभाजन की तैयारी ब्रितानी राजविद उन्नीसवीं शताब्दी से करते आए थे और भारतीय सामाजिक ताने बाने के कारण सफल नहीं हुए थे, उसकी सफलता का रास्ता गांधी जी ने अपने अहंकार में खोल दिया और उससे आगे का इतिहास यह रहा कि उसी जिन्ना के सामने उन्हें वे दंड पेलने पड़े कि एक अवसर पर वह जिसे मक्खी की तरह निकाल बाहर कर चुके थे, उसे ही अविभाजित भारत का प्रथम प्रधानमंत्री बनाने को भी तैयार हो गए थे, परन्तु इस समय तक उनका उपयोग करने वाले उनका आदेश मानने को तैयार नहीं थे।”
शास्त्री जी हमारी दत्तचित्तता से इतने मगन हो गए कि मेरी उपस्थिति को भूल कर मुझसे ही सवाल कर रहे थे, ”
कि मैं झूठ बोल्या ?”
जवाब में मुझे उन्हीं के सुर में सुर मिला कर कहना पड़ा, ”कोइ ना, भाइ कोइ ना।”
आज विज्ञान की प्रेरणा का स्रोत पश्चिम बना हुआ है। बहुत सी बातें हमने उससे ली हैं। उस ज्ञान का उपयोग काफी दूर तक हमारी समस्याओं का समाधान करने के लिए किया जाता है और कुछ मामलों में हम उनसे भी आगे बढ़ जाने का या उनसे अलग कुछ नया करने का दावा भी करते हैं। परन्तु इस ज्ञान का उससे भी अधिक उपयोग मिलावट, हिंसा, व्यभिचार, अपदोहन, घटिया उत्पादन आदि में किया जा रहा है। इसके उदाहरण उन अग्रणी देशों में न मिलेंगे क्योंकि इस बीच उन्होंने सभी दृष्टियों से उन्नति की है और केवल ज्ञान के क्षेत्र में ही नहीं, मानवमूल्यों के स्तर पर वे बहुत आगे जा चुके हैं। अर्थव्यवस्था से नैतिकता का कितना गहरा संबन्ध है इसे समझने में शायद आपको इससे मदद मिले। ज्ञान और अनुसंधान के साथ भी अर्थव्यवस्था का बहुत गहरा संबन्ध है। हम एक राष्ट के रूप में अतीत में भी उतने सुसंस्कृत कभी नहीं रहे जितना आज पश्चिमी जगह हो चुका है ।”
मेरा मित्र इस बीच कुछ कहने के लिए दो बार होठों को जुंबिश दे चुका था, जिसकी ओर मेरा ध्यान गया तो था पर अपनी बात कहता गया था। अब उसकी ओर मुड़ा तो उसने हँसते हुए मेरे कन्धे पर थाप दी और बोला, ”तुम कुछ नहीं जानते। बहुत भोले हो। भोले भी और बदहवास भी । कभी कहोगे आज के समस्त अपराधों और खुराफातों की जड़ पश्चिम है और आज कह रहे हो कि…”
”देखो मैं समाज की बात कर रहा हूँ तुम व्यवस्था की बात कर रहे हो। वहाँ के पूँजीवादी तन्त्र का और पोपवादी तन्त्र का जिनका चेहरा इतना पैशाचिक है जितना इतिहास में पहले कोई हुआ नहीं। परन्तु विचित्र यह है कि साम्यवादी प्रसार के खतरे के कारण उसी व्यवरूथा ने अपने समाज केे विक्षोभ को कम करने के लिए जो रियायतें दीं उनके कारण वहा का पूरा समाज एक राष्ट्र बन चुका है, पश्चिमी अर्थ में नहीं और हमारे अति प्राचीन अर्थ में भी नहीं, एक सुगठित और व्यवस्थित समाज केे रूप में जिसकी परिकल्पना ले कर हमने अपने दलों के साथ राष्ट्र का प्रयोग किया था। इससे पहले उसका संभ्रान्त वर्ग जिसने लूट में साझेदारी की थी या जिसे औपनिवेशिक प्रसार से अवसर मिले थे, वह भी हमसे बहुत आगे था, परन्तु समाज के दबे कुचले जनों की स्थिति उससे भी खराब थी जो हमारे यहॉं उन दौरों में परिगणित समुदायों की थी। उन्हें यह लाभ साम्वादी चुनौती के कारण मिला इसलिए नैतिक दृष्टि से उनके समाज का स्तर हमसे बहुत ऊॅॅचा है। अपराधी वहॉं भी मिलेंगे, मनोविकृत जन वहॉं भी मिलेंगे, बीमार और अपाहिज वहॉं भी मिलेंगे। उनकी तुलनात्मक संख्या कम मिलेगी।
उनकी तुलनात्मक संख्या कम मिलेगी। देखो, मैंने मात्र एक उदाहरण दिया था कि हमारी सोच, नैतिकता, आचरण, बोध सभी पर हमारेे अर्थतन्त्र का और उसमें अपनी आर्थिक हैसियत का प्रभाव पड़ता है इसलिए एक सांस्कृतिक सन्दर्भ से उठाए गए मूल्य, आदर्श और विचार दूसरी में उसके स्तर और गठन के अनुसार परिष्कृत या विकृत हो जाते हैं। हाल की सदियों में पश्चिम ने हमसे जितना ग्रहण किया उतना अपनी पूरी परंपरा से ग्रहण न किया होगा, परन्तु उन सभी का उसने ऐसा परिष्कार किया और इस तरह आत्मसात् कर लिया कि वे उसकी अपनी चीज लगते हैं। हमने कला, सौन्दर्यमान, कौशल और ज्ञान और आचार के क्षेत्र में उनसे जो पाया था उसका भी ह्रास या सत्यानाश कर दिया। औपनिवेशिक काल की संस्थाएंं, विभाग और हमारी अपनी पहल से स्थापित उनके प्रतिरूप आज की तुलना में अधिक लोकतान्त्रिक थे । हमने औपनिवेशिक काल के सीमित लोकतन्त्र को भी माफियातन्त्र में बदल दिया।
”ठीक ऐसा ही हुआ था, भारतीय दार्शनिक और धार्मिक विचारों के साथ । पश्चिम एशिया के उर्वर अर्धचन्द्र की महिमा जितनी भी गाई जाए, आहार उत्पादन के मामले में वह भारत के सिन्धु गंगा मैदान की तुलना में नहीं रखा जा सकता। अरब और मिश्र और सामी क्षेत्र मुख्यत: चारणजीवी रहा ह और इसलिए बाइबिल में भी शेफर्ड, हई, लैंब की उपमाऍं ही आती हैं। उनमें हिंसा और आपसी कलह सामान्य रहा है। बेबीलोन और मसोपोटामियाई क्षेत्र पर विजय करने वालों ने जिस तरह के नरसंहार किए थे उसकी कल्पना से ही रोमांच हो जाता है। एेसा एक बार नहीं हुआ कि पूरे नगर के नगर का कत्लेआम कर दिया गया हो और खून नालियों में बह रहा हो। आहार की समस्या मनुष्य को क्रूर और असहिष्णुुु बना देती है और यदि किसी अन्य सभ्यता से हिंसा, अस्तेय आदि काेे श्रेष्ठ मूल्य के रूप में स्वीकार कर ले तो भी उसका निर्वाह नहीं कर पाता । इसलिए किताबी स्तर पर समानताऍं अधिक मिलेंगी और आचरण के स्तर पर उनके ठीक विपरीत उदाहरण मिलेंगे। इस अन्तर को ध्यान में रखते हुए निम्न पंक्तियों की समानता या निकटता को समझनेे का प्रयत्न होना चाहिए।