Post – 2016-09-04

निदान – 40

‘मिट जाऍगे पर अक्‍ल से हम काम न लेंगे।
‘हां, दाम तो लेंगे पर सरेआम न लेंगे।’

”तुम बहुत बहादुर आदमी हो यार। जो किसी से नहीं हुआ, वह तुम अकेले अपने दम पर कर सकते हो ।”

मेरी समझ में उसका फिकरा नहीं आया। बताया तो बोला, ”पहले तुम कहते थे कि विश्‍व सभ्‍यता जन्‍म भारत में हुआ और इसका ही प्रसार पुरानी सभ्‍यताओं के माध्‍यम से उनकी स्‍थानीय मेधा के अनुसार उसमें परिष्‍कार करते हुए पूरे जगत में हुअा तब विश्‍वास नहीं होता था और आज भी वह विश्‍वास करने लायक बात नहीं है। पर मैं तब समझता ही नहीं था कि तुम खुराफात को ही सभ्‍यता की कसौटी मानते हो। जब तुम यह सिद्ध करने जा रहे हो कि दुनिया की सारी खुराफात की जड़ भारत है तो लगा तुम अपनी समझ से ठीक ही कह रहे थे। मैं तो यह प्रस्‍ताव रखता हूँ कि भारत को, अर्थात् भारत के हिन्‍दुओं को आज की सारी खुराफातों की जिम्‍मेदारी अपने ऊपर लेनी चाहिए और …” वह शायद सोच कर नहीं बोल रहा था नही तो इतनी जल्‍द गड़बड़ा नहीं जाता। वाक्‍य उससे पूरा हो ही नहीं रहा था।

मैंने वाक्‍य पूरा किया, ”और यदि वे खुराफात के जनक ही हैं तो आज के दिन पहला काम उन्‍हें यह करना चाहिए कि तुम्‍हारा सिर तोड़ दें।”

वह हँसने लगा, ”इसकी कोशिश में तुम लम्‍बे समय से लगे हो पर यह तुम्‍हारे तोड़े टूटने वाला नहीं।”

”मैं भी जानता था कि पत्‍थर की बनी चीजें विचारों से नहीं टूटती हैं, जिनसे टूटती हैं वह मेरा हथियार नहीं। इसीलिए कह रहा था कि जिन हिन्‍दुओं काे तुम खुराफात की जड़ मानते हो वे तो ऐसा कर ही सकते हैं। परन्‍तु वे करेंगे नहीं, क्‍योंकि तुम उन्‍हें जो समझते हो वह वे हैं नहीं।”

”वे तो उस महात्‍मा की हत्‍या कर सकते हैं, जिनको तुम मानवता का एक आश्‍चर्य मानते हो और जिनके बताए मार्ग को विश्‍व और मानवता की रक्षा का एकमात्र साधन।”

”यदि तुम कहते वे महात्‍मा के जीवित शव को, उसकी गरिमा को पुन:स्‍थापित करते हुए समाधि दे सकते थे और सच्‍चे सपूतों का काम – पितरों को नरक से बाहर निकालने काम – कर सकते थे, और अपनी परंपरा की सीमा में ही थे तो अधिक उचित होता। नेहरू ने अपनी उपेक्षा से गांधी को जीवित शव बना दिया था और गोडसे ने उस शव को पुन: वह गरिमा प्रदान की कि वह एक कालजयी प्रतिष्‍ठा के साथ हमारे नैतिक विवेक पर छा गये। सिवाय कम्‍युनिस्‍टों के जो भारत को सोवियत नजर से देखते थे और विश्‍व के सभी कम्‍युनिस्‍ट भारतीय कम्‍युनिरूटों को प्रमाण मान कर भारत को समझते थे अर्थात् भारत होते हुए भी उन्‍हें दिखाई नहीं देता था, सोवियत संघ जो देखना चाहता था वही भारत बन जाता था। इसलिए गांधी के विषय में उनकी मृत्‍यु के बाद उनके आलोचकों की भी दृष्टि बदली, परन्‍तु कम्‍युनिस्‍टों की नहीं बदली, फिर भी वे गांधी की मृत्‍यु का स्‍यापा मनाते रहे और उनकी नजर में अपने को सही सिद्ध करने की चिन्‍ता में एक दिन के स्‍यापे के बाद नेहरू ने भी वही उपेक्षा भाव अपना लिया। गांधी की मृत्‍यु तो होनी ही थी, गांधीवाद जो भारत को रास आनेवाला एकमात्र दर्शन था उसकी मृत्‍यु अधिक पीड़ा दायी है और भारतीय अर्थव्‍यवस्‍था की अधोगति का कारण है। इसका गांधीवादी सूत्र था ‘कर बहियां बल आपनी, छोड़ परायी आस।”

मैं कुछ और कहने जा रहा था कि बीच में ही उसने लपक लिया, ”मैं तो इतने लंबे अरसे से जाल बिछा रहा था कि तुमको पकड़ूँ जरूर, जानता तो बहुत पहले से था, पर आज तुम्‍हारे मुँह से उगलवा लिया कि गोडसे तुम्‍हारे लिए महान था। तुम उन लोगों के साथ हो जो आज भी गोडसे की प्रतिमा बनाना चाहते हैं और यदि उन्‍होंने बनाया तो मैं उनसे पत्र लिख कर अनुरोध करूँगा कि उसकी प्रतिमा का अनावरण किसी दूसरे से नहीं तुमसे कराऍं। बातों से गांधी के साथ हो, मन से गोडसे के साथ।”

”मूर्ख तो तुम लोगों को समझता था जिन्‍होंने इतिहास में इतने परिवर्तन हुए परन्‍तु जो अपनी मान्‍यता पर अड़े रहे – न हिले, न डुले, न बढ़े । एक गलती होते होते रह गई। तुक के दबाव में मैं कहने जा रहा था, ‘न घटे’। पर तुम ही सोचो यह कितनी गलत बात हुई होती। तुम तो जड़ हो, तुम बचे रहो यही तुम्‍हारी चिन्‍ता का केन्‍द्र है। तुम्‍हारा तो अघोषित नारा ही है, ‘मिट जाऍगे पर अक्‍ल से हम काम न लेंगे। हां, दाम तो लेंगे पर सरेआम न लेंगे।’ यह छोटा सा फर्क तुम्‍हें कांग्रेस कल्‍चर से बचाए रहा है परन्‍तु वह भी खत्‍म हो रहा है।”

”मैं लफ्फाजी में तुम्‍हारा मुकाबला नहीं कर सकता, परन्‍तु साफ बताओ, तुम गोडसे को अपना हीरो मानते हो या नहीं ।”

एक सन्‍तुलित आदमी किसी विक्षिप्‍त को अपना हीरो कैसे मान सकता है। परन्‍तु वे सभी लोग मुझे अवसरवादी और कमीने लगते हैं, जो उस व्‍यक्ति को जो पर पीड़ा से इतना कातर है, अपने बन्‍धुओं की पीड़ा को इतनी गहराई से अनुभव करता है कि उसके लिए वह अपने प्राण भी देना चाहता है, अपनी कीर्ति की भी आहुति देना चाहता है, पाने को यश तक नहीं, यह त्‍याग समझ की चूक से कम तो नहीं हो जाता। कहो, द्विगुणित हो जाता है। उसने अपना प्राणत्‍याग किया, प्राण रक्षा के लिए दयायाचिका तक नहीं डाली, क्‍योंकि वह जानता था कि उसे इतने महान व्‍यक्ति का वध न करना था, इसलिए वदनामी ली, नरकवास को चुना, अपनी कीर्ति को भी दांव पर लगा दिया, इसलिए कि दूर क्षेत्रों में जिससे महाराष्‍ट्र प्रभावित भी नहीं, उसके अपने बन्‍धु मारे जा रहे, अपमानित हो रहे हैं। वह व्‍यक्ति जो हिन्‍दुओं की पीड़ा अपने भीतर अनुभव करता था और इतनी प्रखरता से अनुभव करता था कि वह विक्षिप्‍तता के कगार पर पहुँच गया था। मैं विक्षिप्‍त न होना चाहूँगा। विषम परिस्थितियों में विवेक खोना न चाहूँगा। शत्रु को शत्रु मान कर उसका बध करने की जगह यह समझना चाहूँगा कि उसमें यह शत्रुभाव पैदा कैसे हुआ । क्‍या उसका निवारण संभव है और जो कुछ संभव लगेगा उसे करने का प्रयत्‍न करूँगा। यही मुझे भगवान बनाता है, गांधीवादी बनाता है जिसका अभाव गोडसे को गोडसे। परन्‍तु यदि दो विकल्‍पों में एक को अपने सम्‍मान का पात्र बनाना हो, नेहरू या गोडसे को, तो मैं गोडसे को नमन करूँगा जिसकी व्‍यक्तिगत आकांक्षा थी ही नहीं, इसलिए उसकी पूर्ति के लिए उसने देश को कोई क्षति नहीं पहुँचाई, जब कि नेहरू का प्रत्‍येक कार्य इसी से परिचालित था।”

वह कुछ कहने की तैयारी कर रहा था कि मैंने कहा, ”यार मैं तो सोच रहा था तुम सही दिशा में, इतिहास को समझने के लिए, सोच विचार कर कोई प्रश्‍न करोगे कि आगे की कुहा छँटे। गो इसमें तुम्‍हारा भी हाथ रहा है। परन्‍तु तुम्‍हारा यह हीनताबोध कम करने के लिए मैं कुछ कर सकता हूँ कि तुम बातों को घुमा कर चीत्‍कार को ललकार बनाने का प्रयत्‍न करते हो और ललकार की ऊँचाई को संभाल न पाने के कारण ही धड़ाम की आवाज किए गिना नीचे गिर जाते हो।”

ऐसे मौके पर शास्‍त्री जी को उसके साथ खड़ा न होना था, पर उनके मुँह से निकला, ”आपत्ति तो मुझे भी है डाक्‍साब ।”

मैं कुृछ तैश में आ गया था। आगे विचार करता भी तो उसका कोई लाभ न होता। मैंने कहा, ”आपकी आपत्तियॉं कल सुनेंगे।” और इस फैसले के साथ मुझे सर्वोच्‍च न्‍यायालय के फरमान जारी करने जैसा आनन्‍द आया ।