निदान – 39
सांस्कृतिक समुद्रमन्थन
मैं जो कहना चाहता था वह आप दोनों के हस्तक्षेप के कारण अधूरा रह गया। आज चुपचाप सुनें ।
यह सभ्यता जिसे कई बार कई रूपों में बदनाम करने की कोशिश की गई इसका प्रतीक चिन्ह है संगम । महासंगम । इस महासंगम का इतिहास आहार संग्रह के उस प्राचीन चरण तक जाता है जब नदी या जलाशय में निकट आहार की प्रचुरता के दिनाें में दूर दूर के लोग आकर कुछ समय के लिए परस्पर मिलते, नाचते और क्रीड़ा करते थे । सहवास भी। हो सकता है यह शब्द भी उतना ही पुराना हो। बीज रूप में यहीं से आरंभ होती है सहभागिता और एक मुख्य धारा की निर्माण प्रक्रिया। स्थान ऐसा चुना जाता जो आसानी से पहचान में आ जाए। नदी का मोड़, या जहां से वह पर्वत से धरती पर उतर रही हो, या जहॉं दो या अधिक नदियों का संगम हो। तीर पर स्थित यह स्थल तीर्थ था और फिर बाद में ज्ञान को भी मस्तिष्क को स्वच्छ करने के उपक्रम के साथ सतीर्थ, स्नात और निष्णात और पारंगत आदि का चलन हुआ।
मैं जिस बात पर बल देना चाहता था वह यह कि हमारे उन्नत समाज में और सभ्यता की निर्माण प्रक्रिया में आरंभ से ही विविध जातियों, स्तरों, कौशलों और मान्यताओं के लोग सम्मिलित तो होते रहे साथ ही उनकी इस सहभागिता को कभी प्रतिबन्धित नहीं किया गया, इसलिए उन्नत चरण पर भी इसमें कई तरह के नये पुराने, परिष्कृत और अपरिष्कृत आचार, विचार और रीति -रिवाज चलते रहे जो कुछ समय तक उस समुदाय तक सीमित रहते और उनके प्रति दुराव न होने के कारण वे इस तरह फैल जाते जैसे किसी योजना के अनुसार उनका निर्माण किया गया हो।
हम बहुदेववाद और मूर्तिपूजा और परम सत्ता की अवधारणा पर बात कर रहे थे, और यह भी कि हमारे यहॉं इसका जन्म राजसत्ता के स्थापित होने के बाद किसी राजा या महाराजा की नकल पर मानवता पर शासन करने वाले महाप्रभु के रूप में नहीं की गई, अपितु जीवन और जगत के रहस्यों को समझने के क्रम में हुए मानसिक ऊहापोह से हुई, विकास के विविध चरणों पर उसके रूप और उसकी शक्ति और कार्यों की अवधारणा बदलती रही, इसलिए यहॉं वह सहचर या पालक की अपनी भूमिका से ही जुड़ा रहा, दंड और पुरस्कार देने वाली सत्ता और हमसे बहुत दूर हमारी पहुंच से बाहर नहीं।
यदि आदि देव किसी को कहें तो शिव या उस शिलाखंड को ही कह सकते हैं जो नदी के कटाव से खंडित और आपसी रगड़ से सुथरी होती बटिकाओं या शरकर / शर्करा के रूप में नदी की पेंदी में पाई जाती थी और इनकी सुलभता के ऊपर ही आदिम सांस्कृतिक क्षेत्र बने । इस दृष्टि से मध्यप्रदेश, विशेषत: नर्मदा का प्रवाह क्षेत्र सबसे प्राचीन रहा लगता है। उत्तर भारत में यह नदी के उतरने या अवतरण क्षेत्र में सुलभ था जिससे बाद में शिव शंकर का निवास पर्वत की चोटी पर कल्पित किया गया ।
यह शिव शंकर ढोकर ले जाये जाते थे, परस्पर टकराकर, तोड़ कर, तराश कर हथियार और औजार बनाए जाने के लिए। पत्थर के उन औजारों से आहार की आपूर्ति की जाती थी इसलिए वह शिव और शंकर है, कल्याणकारी, भोले हैं और कुछ कुछ नासमझ या बे-गम भी, कोई उनके साथ कुछ भी करे उनको बुरा नहीं लगता। आप उनको तोड़ रहे हैं, हथियार गढ़ रहे हैं, औजार बना रहे हैं, और वह इन स्थितियों में भी बेपरवाह और खुश।
इनसे जानवरों का और मनुष्यों का भी वध किया जाता था, जिससे उसी शंकर का रुद्र, रुलाने वाला, रूप बना है, और सर्वप्रथम होने के कारण महेन्द्र, महादेव, ज्येष्ठ और श्रेष्ठ । वह पत्थर की बटिया का दैवीकरण है ही और यदि दुनिया के उस बावरेपन को समझना है कि वह घर की चकिया को क्यों नहीं पूजती जिसका पीसा खाती है ता उसका उत्तर यह है कि कबीर उस इतिहास को नहीं जानते थे जिसमें पत्थर की असाधारण उपयोगिता के कारण इसकाे अन्यत्र इतना संभाल कर रखा जाता था जिसमें पूजाभाव का बीजरूप छिपी है।
खैर वह शिकार के उपकरण या हथियार होने के कारण गोघ्न, पूरुषघ्न भी है। बाद में सभ्य समाज में महामारियों और बीमारियों का भी जनक उनको ही माना गया और उनसे मुक्ति दिलाने वाला या जलाषभेषज भी वही बने। उनसे प्रार्थना की जाती है कि वह अपनी कृपा से दूर ही रखें, हमारी ओर रूख न करें, उनकी पीठ ही हमारी ओर हो। कृषि से पूर्व के चरण के देवता इसलिए असुर। पूजा इनकी पहले इस रूप में की जाती कि इन्हें प्राय: जल स्रोत के निकट रखा जाता था। बाद में लोग इसे पानी भी चढ़ाने लगे।
अग्नि के जनक भी यह महादेव ही हैं। वह इनकी तीसरी ऑंख से फूटती है जब पत्थर को पत्थर से टकराया जाता है तब । इनके तांडव नृत्य की कल्पना तो जलते हुए वन या बस्ती को देख कर ही की जा सकती है। सब कुछ नष्ट, लगभग प्रलय।
कृषि के साथ अग्नि जिसका ही एक नाम विष्णु था, धरती की का झाड़ झंखाड़ जला कर साफ करता है, सफाई के क्रम में देवत्व प्राप्त करता है। इसकी फूटती चिनगारी ही इसका वामन रूप है जो प्रज्वलित हो जाने पर ईंधन सुलभ है इतनी तेजी से फैलता है कि संभालना मुश्किल। यह आगे चलकर सकल ब्रह्मांड काे भी घेर लेता है और दूर इसके स्थान या पद या निवास (विष्णो: परमं पदं) की कल्पना की जाती है। इस्लाम में इसे सातवें आसमान के रूप में कल्पित किया गया। धरती या समस्त संसार इसके पावों की धूल जैसी है (समूळ्हं अस्य पांसुरे)। अत: स्वर्ग की कल्पना सूर्यलोक/ज्योतिर्लोक के रूप में (यत्र ज्योतिरजस्रं यस्मिन् लोके स्वर्हितम् । … यत्र राजा वैवस्वतो यत्रावरोधनं दिवः, 9.113.7)।
नरक की कल्पना अन्धकार से भरे लोक के रूप में हुई और साधना में भी ज्योति से तम के निवारण की साधना । उपनिषद की भाषा में ‘अन्धं तमं प्रविशति य असंभूतिं उपासते ।’
परन्तु यह कहना गलत न होगा कि एक ही साथ सभी विषयों पर एकाधिक विचार हर समय प्रचलित रहे हैं। भोग-विलास के लोक के रूप में स्वर्ग की कल्पना हड़प्पाकालीन सुदूर देशों में जिनमें समाज भी मातृप्रधान था, व्यापारिक केन्द्रों माध्यम से आई लगती है। परन्तु इसे तब मुख्य चिंतनधारा में स्थान न मिला था।
हमने केवल मूर्तिपूजा के जन्म को और विकास को समझने का प्रयत्न किया है कि यह मूर्खता के कारण या कल्पनाशक्ति के अभाव के कारण नहीं, उपयोगिता और उपयोगी तत्वों के प्रति सम्मान और उनकी विविध क्रियाओं या अवस्थाओं को शब्दों और क्रियाओं द्वारा मूर्त करने का प्रयास रहा है। शाब्दिक अभिव्यक्ति कीर्तन या गुणगान का रूप लेती है, कथाओं को जन्म देती है और कार्मिक चित्रों, मूर्तियों और उत्खचनों का।
यह जानना रोचक होगा कि मूर्तीकरण की प्रक्रिया में प्रकृति की शक्तियों को पशुजगत के गुणों से जोड़ कर उन्हें पशु के रूप में कल्पित किया गया। उदाहरण के लिए अग्नि के पार्थिव, मध्याकाशीय और आकाशीय रूपों को त्रिमूर्ध तीन सिरों वाले प्राणी के रूप में कल्पित है, जिसका चित्रण हड़प्पा की उस मुहर में हुआ है जिसमें पशु की एक काया में तीन ग्रीवाएं हैं, एक ऊपर उठा हुआ, दूसरा सामने और तीसरा नीचे झुका हुआ। इसी तरह सोम को एक तिग्मशृंग वृषभ के रूप में और उनका अंकन एकशृंग वृषभ या यूनीकार्न के रूप में। इन्द्र स्वयं वर्षा कराने वाले, धरती का सेचन करने वाले वृषभ है जिनको बड़ उदग्र रूप में चित्रित किया गया। इनका मानवीकरण भी था, परन्तु मानवाकृति में मूर्ति निर्माण एक अलग समस्या है।
इसलिए परमेश्वर की हमारी कल्पना आरोपित या अनुकृत नहीं है। उसका भौतिक आधार है जिसका विकास हुआ है और वह अमूर्तन की ओर बढ़ता हुआ,
एक ही तत्व की सर्वत्र विद्यमानता की धारणा को जन्म देता है, जैसे ऋग्वेद के प्रथम मंडल के 31 वें सूक्त में हिरण्यस्तूप अग्नि को विविध रूपों में देखते हैं और दूसर मंडल के पहले सूक्त में जिसमें पहली ही ऋचा में अग्नि के निवास और उत्पत्ति का वर्णन है कि वह आकाश से, पानी से, पत्थर से, काठ से, ओषधियों से उत्पन्न हो जाते हैंं और मनुष्यों में राजा के रूप में अवतरित होते हैं। राजा के दैवीकरण को भी इससे समझने में मदद मिलेगी। त्वमग्ने द्युभि: त्वं आशुशुक्षणि: त्वं अद्भ्य: त्वं अश्मनस्परि । त्वं वनेभ्यस्त्वमोषधीभ्यस्त्वं नृणां नृपते जायसे षुचिः ।। 2.1.1
और इसी की परिणमि है विष्णु या अग्नि की सर्वत्र उपस्थिति और संकट के समय उनका प्रकट हो जाना, जैसे पत्थर में से चिनगारी बन कर, या नृसिंह का अवतार बन कर । ध्यान रहे कि ऋग्वेद में अग्नि की तुलना घर में निवास करते सिंह से की गई है – रक्षो अग्निमशुषं तूर्वयाणं सिंहो न दमे अपांसि वस्तोः ।। 1.174.3
यहॉे विस्तार से बचते हुए मैं कुछ बातों को रेखांकित करना चाहूँगा:
पहला यह कि चिन्तन के स्तर पर भी एक ही समस्या के कई तरह के समाधान अलग अलग दक्षताओं और स्रोतों से आए लोगों द्वारा दिए जाते रहे और वे आगे जारी भी रहे, उनका उन्मूलन या निषेध नहीं किया गया। जैसे सृष्टि को ले कर ही ऋग्वेद में एक विचार यह कि जैसे लोहार धौकनी से फूूक कर आग दहका कर चीजें बनाता है, उसी तरह धमन प्रक्रिया से विश्वप्रपंच रचा गया, सं कर्मार इवाधमत्। दूसरा विखर समस्त सृष्टि ब्रह्म से अलग नहीं है, जो कुछ हुआ और जो होगा – यद् भूतं यच्च भव्यं – सब कुछ ब्रह्म ही है। और उसी में वह नासदीय सूक्त है जो चिन्तन और काव्यनिरूपण की पराकाष्ठा है ।
दूसरे कोई समय ऐसा नहीं था जब हमारी सांस्कृतिक महाधारा में अादिम, अविकसित अवस्था में अपनी कुरीतियों और विश्वासों के साथ जीने वालों में से कुछ का प्रवेश न हो जाता रहा हो । यह क्रम आज तक जारी है। जब कोई इतर समाज, विशेषत: वह जो अपनी हीनता के कारण या अपने को श्रेष्ठ सिद्ध करने के लिए हमारी आलोचना करता है तो उसका ध्यान इन तत्वों पर ही जाता है जो हमारी सांस्कृतिक परंपरा के अंग नहीं रहें हैं, परन्तु जिनका दृढ़ता से निषेध नहीं किया गया।
और अन्तत: सामीधर्मो में पाई जाने वाली मान्यताओं का बीज रूप भारतीय चिन्तन में उससे बहुत पहले के समय से पाया जाता है। अब आप लोग इस पर विचार करते हुए आगे यदि कोई जिज्ञासा हो तो प्रश्न कर सकते हैं, परन्तु अभी नहीं।