दुनिया का कोई भी व्यक्ति किसी भाषा को आधे अधूरे रूप में ही जानता है। कई बार गलत भी जानता है और इस गलत को सही मान कर सही को जानने या यदि बताया जाय तो उसे मानने को तैयार नहीं होता। इसका एक छोटा सा कारण है। दुनिया की सभी भाषाऍं अनगिनत बोलियों के और कतिपय अन्य भाषाओं से कुछ ले दे कर बनी हैं, जिनमें से कुछ का लोप हो गया इसलिए हम उनके शब्दों को किन्ही वस्तुओं और क्रियाओं से जोड़ तो लेते हैं, पर यह समझ नहीं पाते कि इसके लिए यही ध्वनि क्यों अपनाई गई, यही शब्द क्यों प्रयोग में लाया गया। यह तो बुनियादी क्षति है जिसको प्रयत्न किया जाय तो कुछ मामलों में सफलतापूर्वक दूर भी किया जा सकता है।
मुझे जब १९६८ में द्रविड़ भाषाऍं सीखने के क्रम में ऐसे शब्दों का पता चला जो मेरी बोली में थे परन्तु संस्कृत में नहीं, न ही उन्हें किन्हीं तत्सम शब्द का बिगड़ा या बदला हुआ रूप कहा जा सकता था तो पहली बार मुझ यह लगा कि ये जिस बोली के शब्द हैं उसे बोलने वाले उत्तर से दक्षिण तक विचरण करते रहे हो सकते हैं और उनके कुछ सदस्य बीच बीच में बस गए होंगे जिनके माध्यम से वे शब्द उन बोलियों में प्रवेश कर गए, जिनको वे स्वयं अपना चुके थे। मैंने भाषाओं को सीखने का काम अधुरा छोड़ कर उन स्थान नामों का अध्ययन करने का मन बनाया जिनका कोई अर्थ समझ में नहीं आता। सोचा इससे उनका अर्थ समझ में आए या नहीं, यह पता चल जाएगा कि वे किन्हीं चरणों पर स्थानीय जनों की प्रधान भाषा को अपनाने से पहले कहां कहीं पहुंचे थे। वह बहुत रोचक अध्ययन था और इसने मुझमें इतना आत्मविश्वास पैदा किया कि मैं अपने साक्ष्यों के बल पर किसी अनमेल पड़ने वाली स्थापना, या किसी बड़े से बड़ेे चिन्तक काेे खारिज कर सकता था
उदाहरण के लिए नीहार रंजन रे का बंगला भाषा पर असाधारण अधिकार था, वह जानते हैं कि बंगाली समाज अनगिनत छोटे मानव समुदायों के मिलने से बना है किसका पता लगाने के लिए नृतत्व, पुरातत्व, भाषाविज्ञान, सभी को मिल कर काम करना होगा, परन्तु इसके साथ ही वह संस्कृतीकरण से भी आक्रान्त हैं और उन सीमाओं से भी बँधे रह जाते हैं जिनमें पाश्चात्य अध्येताओं ने इतिहास और भाषाशाास्त्र, यहॉं तक कि पुरातत्व और नृतत्व को सतही और गलत ढंग से पेश किया था इसलिए उन्हें बंग की जगह वंग जातीयता दिखाई देती है:
History has kept no strict account of how many, different people’s, how many various races and how many currents of culture mingled together and how they eventually merged into one of the settlements of RaaTha, PuNDra, Vanga. And SamataTa, which have comprised Bengal from very early times. But such an account may be found in people’s physical appearance, language, culture and material Civilization.(Nih arranjan Ray, History of the Bengali People, Tr.John W. Hood, Orient Longman, 1994).
यदि समग्रता का बोध ही उलट दिया जाय तो ये सभी शाखाएं मिल कर भी किसी समस्या का हल नहीं तलाश सकतीें । वह बंग को वग का तद्भव मानते हैंं। उल्टे सिरे से समस्या को देखने समझने का प्रयत्न करते हैं।
संस्कृत का एक अर्थ होता है पका हुआ। यही उसके दूसरे रूपों में जैसे जुता हुआ, साफ, परिष्कृत आदि में भी पाया जाता है। पकवान से अनाज नहीं पैदा होता, अनाज के कुछ चरणों से गुजरने और कुछ तत्वों को जोड़ने मिलानेे और ताप देने के बाद पकवान तैयार होता है। इसलिए जो लोग संस्क़त शब्दों को या भाषा के दूसरे घटकों को शुद्ध और जन भाषाओं को अशुद्ध और उन्हीं से निकला मानते हैं वे सारे पोथे कंठस्थ कर लें तो भी न भाषा के विकास क्रम को समझ सकते हैं, न उस पकवान के निर्माण में प्रयुक्त उपादानों की भूमिका को समझ सकते हैं, न ही उन घटकों की उपलब्घि या साधित रूपों को।
एक ही पड़ोस में अंग, बंग, मगध, ओड प्रमुखता से बसे हैं और ये सभी आहारसंचयी जनजातियां हैं। वे केवल इस क्षेत्र तक सीमीत न थे। उदाहरण के लिए बंग, बांगड़, बंगलोर, बांका, वंका जिसे अंग्रेजों ने बैकाक बना दिया आदि तक फैले हैं। अंग, अंगकोरवात, अंगोला तक, ओड, औडि़हार, औध/अवध, उूटी, ऊटकमंड आदि में भी कभी पहुंचे थे। हम इस तरह भारतीय भाषाओं और जनसमाजों की रचना की एक जमीनी सूझ और सोच से गुजरते हैं जिससे किताबी ज्ञान समस्या से बचने की कवायद बन कर रह जाता है।
मैं यहां यह नहीं कह रहा कि संस्कृतज्ञ का बंग को वंग लिखना नहीं चाहिए। केवल यह कि संस्कृत में ब की ध्वनि उपलब्ध है इसलिए बंग को वंग करने की जरूरत न थी पर यदि किया ही तो तद्भव वंग हुआ और तत्सम बंग। इसके साथ हम एक् दूसरे सूत्र पर पहुँचते हैं कि बंग उन जनों में से केवल एक थे जो बंगाल में बसे थे। ऐसे अनगिनत भाषाई समुदायों का उसमें निवास था जिसका बोध सभी को है भी पर जिनका नाम तक हम नहीं जानते, न जान सकते हैं, परन्तु बंगला की बोलियों में जिनके कुछ तत्व तलाशे जा सकते हैं। इस तरह रचित कुछ कुछ अन्तराल पर बदलने वाली व्यवहार भाषाओं के क्षेत्र में प्रशासनिक, साहित्यिक, धार्मिक, शैक्षिक, विविध कारणों से जिस भाषा का प्रसार हुआ उसने सब कर एक आवरण डालते हुए ऐसी समरूपता पैदा कि जिससे एक बडे क्षेत्र में संचार संभव हो सका और इसने उन लक्षणों और घटकों का निर्धारण हुआ जो पूरे बंगाल में भाषाई जातीयता का बोध पैदा कर सके ।
परन्तु यह भाषा इन्हीं आदिम बोलियों में से एक थी जो सांस्कृतिक और आर्थिक गतिविधियों में तेजी आने के साथ अनेक भाषाओं के प्रभाव में अपना परिवर्तन करते हुए उस मानक चरण पर पहुंची थी जिसका प्रथम साक्षात्कार ऋग्वेद में होता है और फिर उसी चरण पर उसमें घालमेल भी होने लगता है जिससे उसके मानक रूप के नमूने कुछ ही ऋचाओं में मिलते हैं और कुछ की भाषा तो बाद के संस्कृत से अभिन्न हो जाती है।
अब यहॉं आकर ऐतिहासिक और तुलनात्मक भाषाविज्ञान का पूरा ढांचा ही उलट जाता है और वह वैज्ञानिक सूत्र सामने आता है जो विकास के जैव नियमों को सामाजिक निर्मितियों के मामले में उलट देता है। प्राकृत विकास में एक बहु में, सरल जटिल में, बदलता है। सामाजिक संस्थाओं और निर्मितियों में बहुत सारे लोग मिल कर एक संस्था, समाज, देश, आदि का निर्माण करते हैं जिसमें विविधताओं और विचित्रताओं में कमी आती है, सुथरापन आता है, जटिलताओं का समाहार होता है।
अब हम पाते हैं कि स्वयं संस्कृत को भी धातु, प्रत्यय, उपसर्ग के सहारे नहीं समझा जा सकता, बोलियों को तो समझा ही नहीं जा सकता और इस रहस्य पर तो लगातार परदा डाला ही जाता रहा है कि कैसे भारोपीय की यूरोपीय शाखाओं में ‘मुंडा, द्रविड़ आदि संस्कृतेतर भाषाओं की शब्दावली पहुँच गई।
इस क्रम में हमें पता चलता है कि अपनी ही भाषाओं के ऐसे अनगिनत शब्दों को हम जानते ही नहीं जो अत्यन्त सूक्ष्म व्यंजनाओं को प्रकट करते है और एका एक विशाल शब्द भंडार है जिसका हम प्रयोग करते हैं पर अर्थ नहीं जानते और रोचक यह कि हम कोशों तक में कुछ शब्दों को गलत रूप में प्रस्तुत और गलत अर्थ के साथ पाते हैं। अब आपके लिए जरूरी है कि आप अपनी आंख और औचित्य पर ध्यान दें।
आप पाते हैं लिखा चिह्न जब कि शद्ध चिन्ह होना चाहिए । चिन का अर्थ किसी बोली में आग था। इसे हमने अपना लिया । चिनगारी में, चिनचिनाहट में, चिनार में यही चिन है। आग का प्रयोग प्रकाश और ज्ञान आदि के लिए । इसलिए चिह्-न नहीं, चिन्- ह सही प्रयोग हुआ। एक दूसरा शब्द लें कुष्मांड, कुष्मांड या कुसुमांड नहीं, कुम्हांड या घड़े जैसे बडा गोलाकार फल । पुत्र के साथ तोअनर्थ ही कर दिया गया और यह यास्क से लेकर आप्टे तक एक समान मिलेगा।
जब इस सिरे से देखते हैं तो संस्कृतीकरण का एक इतिहास सामने आता है जिसको भारतीय सन्दर्भ में ही समझा जा सकता है । यह समझ ही उस पूरी मान्यता, उसे सही सिद्ध करने के लिए रचे गए पोथों, कोशों और व्याकरण ग्रन्थों को संग्रहालय की शोभा बना देता है। विषय इतना विस्तृत है कि इसकी रूपरेखा भी पूरी तरह स्पष्ट न की जा सकी । उसे अधिक ग्राह्य बनाने के लिए उदाहरण तो आ ही न सकेंगे पर एक उदाहरण्ा दें । तर, तिर, तुर, जिनमें व्यंजन स्थिर है, स्वर उन बोलियों के कारण या उनके लालित्य प्रेम के कारण बदले हैं और जिनमें अनिश्चय को देखते हुए इसे तृ नाम की धातु में उतार दिया गया और इसकी पूर्ति के लिए हमारी वर्णमाला मे ऋ नाम के एक स्वर की कल्पना की गई जिसका उच्चारण कोई नहीं जानता। कुछ क्षेत्रों में रु और कुछ में रि के रूप में उच्चरित किया जाता है। इस कल्पित स्वर की आवश्यकता न थी।
अब इस तर/तिर/तुर/ तृ का अर्थ है पानी । एक दूसरा शब्द है पानी के लिए इष । पानी के लिए प्रयुक्त शब्द इच्छा, कामना, लालसा आदि के लिए प्रयोग में आए । तृषा का अर्थ हुआ पानी की इच्छा। तृ और इष/इषा का संधि रूप तृषा हो सकता है इसे व्याकरण से नहीं समझा जा सकता। यह तृषा उत्कट कामना के लिए प्रयोग हो कर त़ष्णा बन जाती है। और पानी की जोर दार प्यास त्रास, पानी पिलाओ मेरी जान जा रही है के लिए त्राहि तो फिर रक्षा के सामान्य अर्थ में भी प्रयुक्त होने लगता है। त्रस्त, संत्रास आदि का अर्थ अब धातु को किनारे रख कर समझने की कोशिश कीजिए तो भाषा व्याकरणिक अन्धकार में की जाने वाली टोह वाली पद्धति की तुलना में लगेगा आखों के आगे उजाला छा गया है। व्याकरण बोझ न रह कर एक आलोक और क्रीड़ा में बदल जाएगा।
25 अगस्त