निदान – 27
पुराने राक्षस : नये राक्षस
”सभ्यता के मार्ग में बाधा डालने वाले आरंभ से ही रहे हैं। सबसे बड़ी चुनौती नैतिक और भावनात्मक दृष्टिकोण के कारण रही है। अवरोध डालने वालों ने प्रगति को रोकने के लिए ऐसे उपद्रव किए जिनकी तुलना मानव संहार के आज के नमूनों से की जा सकती है तो प्रगति के लिए कृतसंकल्प लोगों ने भारी बलिदान देते हुए भी अपने व्रत से मुड़ने का नाम नहीं लिया । उनके त्याग और बलिदान की कथा को उस मिथकीय भाषा में ही लिखा जा सकता था जिसमें राक्षसों द्वारा बहाए गए ब्राह्मणों के रक्त से भरे घट से ही सीता (कृषिदेवी, हराई, कृषिभूमि) का जन्म होता है।”
”ब्राह्मणों के रक्त से क्यों ? ब्राह्मण तो किसी से लड़ता ही नहीं था, लड़ने वाले तो क्षत्रिय रहे हैं।”
”यह लड़ाई बाद के कामचोर ब्राह्मणों की नहीं, कृषि कर्म में पहल करने वाले समुदाय के साथ थी जो अपने को देव और ब्राह्ण कहते थे, या संभवत: इसमें दो भाषाई समुदायों के लोगों ने पहल की थी। इनमें से एक आग के लिए ती/दी का प्रयोग करता था दूसरा बर/भर का जिनसे देव और ब्रह्म का विकास हुआ और इनका भी अर्थ जलाने वाला, और अर्थविकास प्रकाशित करने वाला, प्रकाशित रहने वाला, और ज्ञानी आदि में हुआ। अग्निसाधक या आग का हथियार के रूप में प्रयोग करने वाले समुदा का तीन वर्णों में विभाजन हुआ – तिस्र प्रजा आर्या ज्योतिरग्रा -और चौथे की सेवाओं का इसने उपयोग किया। यह पहले भी कह आया हूँ।”
”अौर यही हजारों लोगों का समुदाय, सहस्राक्ष और सहस्रपाद समुदाय धरती पर छा गया और इसी ने आत्मविभाजन करके वर्णव्यवस्था का आरंभ किया जिसने पहले कृषि का विरोध करने वालों की दक्षताओं का अपने लिए उपयोग किया ?”
”संभव है, वास्तविकता यही रही हो, पर पुरुष सूक्त तक आकर स्वयं सूक्त के रचनाकार को भी ठीक इसी रूप में इसका बोध रहा हो, यह दावे के साथ कह नहीं सकता।
”कृषि कर्म की ओर बढ़ने वाले लोगों ने जिस चरण पर अधिक बड़े क्षेत्र में खेती करने के लिए झाड़ झंखाड़ जला कर भूमि की सफाई के आयोजन किए उस पर उनका सबसे कठोर विरोध असुरों या राक्षसों से हुआ। असुर का अर्थ है अनुत्पादक। यज्ञ का मूल अर्थ है उत्पादन यह कह आया हूँ – अतिमानेन ते वै असुरा ‘किं नु वयं जुहुवाम् इति स्व स्व आस्ये जुह्वतश्चेरु: ।’ फूल, फल, कन्द, साग जो भी पेट भरने को मिला उसे छक कर खाया और मस्ती में जुट गए ।
” इसके विपरीत, उनके आतंक से डरे, अपने प्राणों की खैर मनाने वाले खेती करने वाले देवों की आफत – जोतना, बोना, सींचना, रखवाली करना, तैयार अनाज को संभाल कर पूरे साल के लिए कंजूसी से खाना और अगले साल के बीजों के लिए घुनने सड़ने से बचा कर रखना और खेती के चक्कर में धूप, ताप, शीत, बरसात में खटना या तप और श्रम करना ।
”जैसे खेती का प्रतीकात्मक रूप कर्मकांडी यज्ञ हो गया, यज्ञ ही सबसे श्रेष्ठ कम बन गया – यज्ञो वै श्रेष्ठतमं कम – उसी तरह खेती का श्रम, तप, और संकल्प या व्रत कार्यविरत ऐयाशों की साधना और पाखंड में परिवर्तित हुुआ।
”राक्षस असुरो का ही दूसरा पर्याय हुआ। यह प्राकृतिक साधनों की रक्षा के संकल्प से जुड़ा था । हम यह पहले भी याद दिला चुके हैं कि ये आज के पर्यावरणवादियों में आदिम रूप हैं, परन्तु इसके लिए उन्होंने खेती की ओर अग्रसर देवों या ब्राह्मणों को मिटा देने का, उन्हें भगाने के लिए जितने अत्याचार किए उनके कारण रक्षा वाला पक्ष तो ओझल हो गया, क्रूरता, अत्याचार, उपद्रव उनकी पहचान से जुड़ गया। हम इसके ब्यौरे में नहीं जाऍंगे।”
”फिर इसकी चर्चा से क्या लाभ ?”
“यहॉं इसे दुहराने की आवश्यकता इसलिए हुई कि मुख्यत: प्रकृति में उपलब्ध खाद्य पदार्थो पर निर्भर रहने के कारण औजारों के विकास, मछियारी, नौचालन, जलप्रवाह के नियन्त्रण आदि में असुरो का योगदान असाधारण था। इसलिए यह भी न सोचा जाय कि खेती का विरोध करने वालों ने सभ्यता के विकास में कोई योगदान नहीं किया। हुआ मात्र यह कि तात्कालिकता के दबाव में न तो ये किसी लंबी और समय-साध्य योजना बनाने को इच्छुक थे न कोई अन्य पहल जो किसानी करने वालों में थी। इनकी दक्षता का उपयोग इनके भोजन का प्रबन्ध करके किसानों ने करना आरंभ किया। इनकी प्रतिभा के बिना सभ्यता का विकास संभव न था। मजेदार बात यह कि सभ्यता का दबाव इसके विरोधियों का भी उपयोग कर लेता है, पर निर्णय अपने हाथ में रखता है ।
”विचित्र न्याय या मूढ़ता है। जिस भूमि को किसी ने कृृषियोग्य बनाया उसका उस पर शाश्वत अधिकार । अब आप स्वयं अपने मनोबन्धों के कारण उन्हीं तरीकों को अपना कर भूमि की सफाई करके स्वत: उत्पादक नहीं बन सकते परन्तु रोटी के लोभ में उनकी अपेक्षाओं के अनुसार अपनी सेवायें उन्हें देने को तैयार हैं। यहां तक कि खेती का श्रम भी भूस्वामित्व के बल पर इन राक्षसों या वन्यसंपदा की रक्षा करने वालों की सन्तानों के सिर आ गया और भूमि का स्वामी वह वर्ग बना रहा जिसका आत्मविभाजन सुविधा के लिए तीन में हुआ, जिसका केवल एक ही आगे अपने को ब्राह़्मण कहता रहा। उनकी स्वतन्त्र दक्षताओं का भी उन्हें अपना सेवक बनाए बिना भी यही करता रहा।
”इनक सहयोग से नौवहन, पशुपालन आदि में भी प्रगति हुई और खेती को उन्नत बनाने में भी क्योंकि पशु श्रम का उपयोग किए बिना हल, गाड़ी आदि विकास और प्रयोग संभव न था। जंगली पशुओं को पकड़ने, साधने में इन असुरों की इतनी सिद्धि रही है कि वे आज भी सॉंप, रीछ, बन्दर आदि को पकड़, पाल और प्रशिक्षित करके असंभव को संभव कर सकते हैं। हाथी जैसे जानवर को पकड़ कर पालतू बनाना और उसका उपयोग हाथी को पकड़ने में करना और वह अपने लिए नहीं, इसके बदले मिलने वाले आहार के लिए। ऋग्वेद में पिजड़े में बन्द सिंह का हवाला है, दुर्गा को सिंह की सवारी करते दिखाया ही जाता है। यदि नरबलि और पशुबलि करने वाली यह देवी सिंह के मांसाहार की जरूरत पूरी कर सकती थी तो वह उसे अपनी पीठ पर भी सवारी करा सकता था। सामान्य नागरिकों से लिए यह मँहगा सौदा था इसलिए त्याग दिया गया। पर सुनते हैं अफगानिस्तान में शेर और कुत्ते के क्रास से बहुत भयानक पर आज्ञाकारी कुत्ते विकसित किए गए थे।
”मैं यह याद दिलाना चाहता था कि जंगल जला कर सफाई करने के घृणित काम को छोड़ कर पशुपालन, पशु के पेशीय बल के उपयोग, उसे काबू में रखने के लिए नाथने, बॉंधने की युक्तियॉं निकालने, उनकी चंडता को कम करने के लिए उनका बधियाकरण आदि करने के सारे उपाय उनके द्वारा होते रहे, या हम कहें अन्न उत्पादन के स्रोतो और साधनों का विस्तार करके, मात्र एक मनोबन्ध सें कि हम उन मातृतुल्य वनस्पतियों को जलाने का अपराध नहीं करेंगे वे सेवक बने रहे और इस मनोबन्ध को तोड़ आगे बढ़ने के कारण किसानी करने वालों ने उनको भी अपनी सेवा में उन्हीं पालतू जानवरों की तरह लगा लिया जो हाथी, शेर, सांप और रीछ जैसे जानवरों को ही नहीं गगनचारी पक्षियों तक को पालतू बना सकते थे।
यह थी वह प्रक्रिया जिससे समस्त योग्यताओं से लैस होने के बाद भी कृषि भूमि का उद्धार अौर संस्कार न करने के कारण विविध शिल्पों में दक्ष लोग किसानी करने वालों के इशारे पर काम करने को बाध्य रहे।”
”यह तुम्हारी अपनी कल्पना तो नहीं ?”
”जो इस तर्क को नहीं समझते वे अनाड़ी कई सौ साल उपनिवेशवादियों के जाल में ‘आर्य आए, स्थानीय लोगों को अपना गुलाम बनाया, शूद्र की कोटि में डाल दिया ।’ का जाप करते रहे। समाज रचना इस तरह प्रभावित होती तो अब तक तथाकथित ऊँची जातियों के सभी लोग शूद्र बन चुके होते । दसियों बार तो इस देश को आंशिक या व्यापक पराधीनता स्वीकार करनी पड़ी । मूर्खता ही हद यह कि किसी ने यह भी नहीं सोचा कि ये आक्रमण करने वाले आर्य जानवर चराते थे, जानवर चराने वालों को किसी को गुलाम बनाने की क्या जरूरत। ऊटपटांग बातें समझदार लोग तक अपने बौद्धिक आलस्य के कारण पीढ़ी दर पीढ़ी मानते चले जा सकते हैं, यह हमारी बौद्धिक गुलामी का परिणाम और प्रमाण दोनो है। यदि आप यह नहीं समझ सकते कि किसी समस्या की या व्यवस्था की जड़ें कहॉं तक जाती हैं तो आप सामाजिक न्याय के नाम पर हुड़दंग मचाते हुए समाज को क्षुब्ध तो कर सकते हैं, उस समस्या का समाधान नहीं कर सकते । समस्या पहल के अभाव की थी और पहल के अभाव को आज भी बढ़ाया जा रहा है कि सरकार या समाज सब कुछ कर दे तो हम निश्चिन्त आगे बढ़ सके । बढ़ सकें भी नहीं, वही हमें खींच कर आगे बढ़ाए ।
”खैर, हम कह रहे थे कि अब सभ्यता के दो पक्ष हो गए। एक पहल, संपदा पर अधिकार और उसके विस्तार का । और दूसरा प्रौद्योगिकी, आविष्कार, दर्शन, साहित्य कला आदि का जिसमें जाति निरपेक्ष रूप में सभी को संपत्ति के स्रोतों पर अधिकार करने वालों के द्वारा इस्तेमाल किया जाता रहा है। इस्तेमाल होने वालों को अपनी विशेषज्ञता में इतना आनन्द आता रहा कि उनकी मुख्य चिन्ता अपनी विशेषज्ञता के क्षेत्र में कमाल करने की रही। इसमें हम भी आते हैं। इस माने में ब्राह्मण की स्थिति शूद्र से भिन्न नहीं थी, जो ज्ञानसाधना में इतना मग्न रहा कि उसके बाद किसी तरह पेट भरने का प्रबन्ध हो जाय तो वह परम भाव से डकार लेता और आशीर्वाद देता, जब तब जयकारा लगाता हुआ विदा हो जाएगा।
”लेकिन आज मैंने इस प्रसंग को एक अन्य कारण से भी छेड़ दिया। यदि प्रकृति के किसी उपादान या प्राणी के प्रति आप की भावुकता इतनी प्रबल हो जाय कि उसे बचाने के लिए आप मनुष्यों का संहार कर सकते या उनको यातना दे सकते हैं तो आप उसकी रक्षा करने का अभिनय तो कर सकते हैं, रक्षा नहीं कर सकते क्योंकि उसका अर्थतन्त्र होता है। उसके अभाव में आप अपनी भी रक्षा नहीं कर सकते। हॉं आप बस यह नहीं जानते कि आज के राक्षस आप हैं। चाहे गोरक्षा के नाम पर ही हो, मनुष्य का उत्पीड़न और संहार उस भावाकुलता का परिणाम है जो प्रगति विरोधी है, आपकी आदिम प्रवृत्ति से जुड़ा और आदिम सोच का नतीजा है और उस पूरे समाज के जो इस व्याधि से ग्रस्त है, बौद्धिक ही नहीं, नैतिक गिरावट का प्रमाण है।”
उसने हाथ बढ़ा कर मेरा मुँह बन्द कर दिया, ”चुप रह यार, देख उधर से शास्त्री जी आ रहे हैं। तेरी सामत आ जाएगी ।”