निदान – 26
एक
”तुम भले कहो कि तुम विश्व सभ्यता को विश्वमानवता की साझी विरासत मानते हो, परन्तु एक तो यह बात कुछ अतिरंजित लगती है और दूसरे तुम्हारे अपने मित्र भी इसका सीमित अर्थ ही लेते हैं कि भारत सबसे अच्छा देश, हिन्दू सभ्यता सबसे उन्नत सभ्यता और ….”
”सभी मनुष्यों में वे सबसे अच्छे ।” मैंने हँसते हुए उसका वाक्य पूरा किया।
“हाँ, यह भी कह लो !”
“यह हमारा राष्ट्रीय चरित्र है. जब तुम अपने को सबसे अधिक धर्म निरपेक्ष सिद्ध करने के लिए वाहियात आरोप गढ़ते हुए अपने को सिर्फ इसी आधार पर दूसरों से अधिक अच्छा सिद्ध करना चाहते हो तब तुम भी यही कर रहे होते हो. यह हमारी सांस्कृतिक अन्तःसलिला का प्रवाह है जिसे हम जब लक्ष्य नहीं करते या दबाने का प्रयत्न करते हैं तब भी प्रवाहमान रहती है. यह तुम भारतीय मुसलमानों और ईसाइयों में भी पाओगे. उनमें भी जो घोषित रूप में हिन्दुत्व का विरोध या इसकी निंदा करते हैं. सिर्फ शक्ल का अंतर नहीं, मिजाज का यह अंतर भी उन्हें दूसरे देशों के मुसलामानों और ईसाइयों से अलग करता है भले वे इस विषय में सचेत न हों. इसलिए वे यदि हिन्दुओं को विश्व सभ्यता का जनक मान बैठें तो उनके इस भरम का मैं बुरा नही मानूँगा. हाँ उनकी समझ पर भरोसा नहीं करूँगा.”
“सच तो यह है कि वे तुम्हारी समझ पर भरोसा नहीं करते. वे इसको कन्सीव ही नही कर पाते.”
“जब मेरे इतने निकट होकर तुम नहीं कर पाते हो तो उनसे शिकायत क्यों करूँ ? मैं इसका कारण जानता हूँ, तुम्हे शायद पता न हो. कन्सीव करने के लिए यूँ भी जैसे शारीरिक विकास का एक स्तर अपेक्षित होता है, उसी तरह वैचारिक विकास का एक स्तर अपेक्षित होता है. उसके अभाव में पूरी बात ग्रहण नहीं हो पाती. फिर जानकारी का एक दायरा जरूरी होता है. उसमे पहले से कुछ उहापोह की ज़रूरत होती है. परंतु सबसे अधिक ज़रूरी होता है उस मान्यता के निकट पड़ने वाली कुछ आधी अधूरी ही सही, बातों को किसी न किसी सन्दर्भ में पढ़ा या सुना होना. यदि बात इतनी नई हो और अतीत में इतने पीछे खींच ले जाती हो जहां तक पहले के धुरीण विद्वानों में भी कोई न पहुँचा हो तो वह कितनी भी प्रामाणिक क्यों न हो, हमें लाजवाब करने के बाद भी, बिलकुल सच प्रतीत होते हुए भी, अपेक्षा से बहुत आगे चले जाने के बाद जादू के खेल जैसा लगेगी जिसे हम प्रत्यक्ष देखते हुए भी विश्वास नहीं कर पाते. और ऊपर से यह प्रस्ताव यदि किसी ऐसे व्यक्ति की और से आ रहा हो जिसके विरुद्ध एक छिपा दबा अभियान लंबे समय से चलता आया हो तो उसके किसी विचित्र प्रस्ताव को तो यह कह कर ही ख़ारिज किया जा सकता है कि भी इनको तो चौंकाने वाली बातें करने की आदत है. अब तुम सुन भी रहे हो, बात समझ में भी आरही है, पर इस एक लटके के साथ तुम्हारी ही बुद्धि पर पत्थर पड़ जाएगा जैसे तुम्हारी बुद्धि पर पड़ा हुआ है.
परन्तु सभ्यता अपने सभी चरणों पर वैश्विक ही रही है, इसमें किसी का शोषण और उसकी संपदा की लूट का योगदान हो, दूसरे के लोभ का, तीसरे के कौशल का, चौथे के हाथ और पॉंचवे की पीठ का, एक के कारखाने और दूसरे के कच्चे माल और बाजार का । ये भूमिकाएं जीवट, पहल और जागृति के अनुसार बदलती रहती हैं। देखना यह होता है कि हम पिस रहे हैं या पीस रहे है और हमें अपने को बचाना या अपनी भूमिका बदल कर रंगमंच पर नये तेवर से उपस्थित होना है।
दो
यदि सभ्यता के निर्माण और विकास में समस्त मानवता का योगदान रहा है और आज के नितान्त पिछड़े समाजों ने भी किसी न किसी चरण पर अग्रणी भूमिका का निर्वाह किया है तो वहीं कोई ऐसा चरण न रहा जब इसके शत्रु और विनाश के लिए तत्पर लोग न रहे हों। आत्मगौरव जरूरी है, परन्तु आत्मगौरव वश यह सोच लेना कि हम सबसे अग्रणी रहे हैं, इसलिए दूसरे हमसे ग्रहण करें, हम किसी से कुछ न लेंगे। पिछड़े समाजों के पिछड़ेपन का कारण उनका बुद्धि और कौशल के माने में दूसरों से कम रह जाना नहीं, अहंकार वश उस चरण के बाद भी दूसरों से सीखने में अपनी हेठी अनुभव करना रहा है। हमें पिरामिडों के कौशल और वास्तुशिल्प पर उस काल की सीमा का ध्यान रखते हुए आश्चर्य होता है परन्तु उससे कम आश्चर्यजनक सन्तुलन का वह बोध नहीं है जिसे हम एक पर एक बिना किसी गारे मसाले के रखे अनगढ़ शिलाखंडों की चिति नहीं है जो आंधियों तूझानों को झेलती अपने सन्तुलन के बल पर टिकी रहती है। इन दोनों के बीच एक संबंध है और क्रूर सचाई भी है। संबंध यह कि नगर निर्माण, पुल निर्माण, पथ निर्माण, दिशा बोध, प्राथमिक खगोलविद्या सभी के सूत्र इन जनों से जुडे़ हुए हैं । अपनी कला और ज्ञान और इसमें असाधारण निपुणता के प्रति इनका समर्पण भाव इतना गहन था कि किसी तरह पेट भरने का प्रबन्ध हो जाय तो ये अपना सारा समय अपनी कला में ही लगा देंगे। इसके चलते इनका शोषण भी हुआ और यदा कदा दमन भी।
” इनकी छाप भारत के मेगालिथ, चीन के मेगालिथ, फ्रांस, स्काटलैंड, बुल्गारिया और मिश्र तक ही नहीं माया सम्यता में भी पाई जाती है और इनके योगदान की सही समझ न होेने के कारण विद्वानों ने भी मूर्खतापूर्ण अटकलें लगा रखी हैं। मूलत: जिस भी क्षेत्र में इस कला और वस्तुदृष्टि का विकास हुआ इनका बिखराव मेरी समझ से हिमयुगीन आपदा के कारण हुआ, दोनों गोलार्धों में।
”ये विज्ञान के जनक हैं परन्तु इसके बाद अपने अभिमान में ये अपने आत्मराग के कारण न समय के साथ चल सके, न अपनी पुरानी योग्यता की रक्षा कर सके और तक्षकों के रूप में इन्होंने कुशल श्रमिक बन कर वास्तुकला, मूर्तिकला, और सिविल इंजीनियरी आदि का विकास किया परन्तु धन के स्रोतो पर अधिकार करने वाले चतुर लोगों के सेवक बन कर रह गए। इनकी पाषाणी कला से अनाज नहीं पैदा होता था और अनाज पैदा करने वाले दूसरे कलाकारों को रोटी के मोल खरीदते और नचाते रहे। इसी तरह का पागलपन उन जनों में था तो प्रकृति की कृपा से कम समय में ही अपना पेट भरने का प्रबन्ध कर लेते थे, इसलिए खाली समय नाचने गाने में लगाते थे। इन्होंने कविता, नृत्य, अभिनय, संगीत में असाधारण प्रगति की परन्तु प्रकृति प्रदत्त आहार से उनकी अपनी आवश्यकताऍं पूरी हो जाती थीं इसलिए कृषिकर्म की ओर कृषिकर्मियों के उकसाने के बाद भी ध्यान न दे सके और बाद में जब रोटी की पोषकता और स्वाद का पता चला तो रोटी पैदा करने वालों के हाथ के खिलौना बन गए। जानते हो किन्नरों, यक्षों, गन्धर्वों का संबन्ध नृत्य, अभिनय और संगीत से तो है ही, इनका क्षेत्र पर्वतीय क्यों है ?”
वह चें बोल गया, ”मुझसे ऐसे सवाल क्यों करते हो ? मैं हिन्दी का अध्यापक रहा हूँ कल्चरल ऐंथ्रापोलोजी का नहीं ।”
”इसलिए कि पर्वतीय बनों को ठेकेदारों द्वारा नष्ट करने और निर्माण कार्यों के उपयुक्त पेड़ों को लगा कर जिस तरह के जंगल पहाड़ों पर अब बचे रह गए है, पहले वैसी स्थिति नहीं थी। अपार विविधता थी।
ऋग्वेद का एक पद है, गिरिर्न भुज्यु, उपमा में कहा गया है कि पर्वतीय क्षेत्रों की तरह भोज्य पदार्थों से भरपूर । वहीं ऐसी रंगबाजी संभव थी जिससे रंगमंच का जन्म हो सके, नाटक का विकास हो सके। देखो तो, इनमें से किसी का श्रेय खेती करने वालों को नहीं जाता, परन्तु उत्पादन के महत्व को समझने वालों ने संपत्ति के स्रोतों पर अधिकार करके दूसरों का नचाया कहते हुए झिझक होती है, क्योंकि वे तो दूसरों को भी कह रहे थे, आहार संग्रह छोड़ कर खेती पर आओ, इसमें अधिक लाभ है, यह अधिक पौष्टिक आहार सुलभ कराता है। उनको अपना जनबल बढ़ाने की इतनी चिन्ता थी कि अधिक से अधिक संतान पैदा करना एक पुण्य का काम था और कोई भी पुण्य का काम करना सन्तान प्राप्ति के समान था।”
”तुम कहना क्या चाहते हो?”
”कहना यह चाहता हूँ कि तुम मूर्ख हो पर कह नहीं सकता। पूरी बात सुनते तो। चलो, जब छेंड़ ही दिया तो कहूँ कि एक समय में हम भी माइनारिटी सिंड्रोम से ग्रस्त थे, परन्तु हमारी यह मनोग्रस्तता समाज को आगे ले जाने के अभियान से जुड़ी थी, आर्थिक उन्नयन से जुड़ी थी और जो जुड़ न पाए वे अपने असाधारण कौशल और संवेदना के बाद भी पिछड़ गए और उन्हें सामाजिक अधोगति का सामना करना पड़ा जब कि सभ्यता का सारा तामझाम उनकी योग्यता और अपनी विशेषज्ञता के प्रति समर्पण भाव का ऋणी है।”
उसे एक शेर याद आ गया । याद आ ही गया तो शेर तो शेर है, छलांग लगाकर बाहर तो आएगा ही और आया, ”हमीं से रंगे गुलिस्तां हमीं से रंगे बहार । हमीं को नज्में गुलिस्तॉं पर अख्तियार नहीं।”
”कहो तो ताली बजा दूँ पर यह समझ लो शायरी से समस्यायें पैदा होती हैं सुलझती नहीं हैं और कई बार इनका अर्थ उल्टा होता है। मुसीबत यह कि मैं खुद सलीके से कोई बात कह पाता ही नहीं।”
”कल कागज पर लिख कर आना और सरकारी फरमान की तरह पढ़ना । हो सकता है, मैं भी मान लूँ।”
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