Post – 2016-08-20

निदान – 25

फूलहिं फलहिं न बेत

”घालमेल तो तुम भी कुछ कम नहीं करते हो भाई । जब मिल कहता है आल थ्योरीज फ्राम द वेस्ट तो वह तुम्हेंं शैतान नजर आता है। उसी इतिहास को भारत के अभिजात मुस्लिम विद्वानों ने सबसे अधिक महत्व दिया, और वे भी तुम्हें दुष्ट प्रतीत होते हैं। और तुम जब सिद्ध करते हो कि विश्व सभ्यता का जनक भारत है और विचार से ले कर भाषा और ज्ञान और संस्कृति का प्रवाह भारत से पश्चिम की ओर रहा है तब तुम इन्हीं आरोपों से मुक्त हो जाते हो। इसी आधार यदि मैं तुम्हेंं दुष्ट कहूँ तो अपना बचाव कर पाओगे ?

” तुम्हें याद है अंधेर नगरी के राजा का वह न्याय जिसमें वास्तविक अपराधी का पता न चल पाने पर उसने कहा कि फांसी का फन्दा जिसके गले में ठीक बैठेगा, उसे फांसी दी जाएगी और वह फन्दा जब किसी के गले में ठीक बैठा ही नहीं तो सभासदों ने कहा, राजा काे भी इसे पहन कर देखना चाहिए। वह उसे ठीक बैठा और उसे अपने ही न्या‍य के अनुसार फांसी दे दी गई। सच मानो तो ठीक यही हाल तुम्हारा भी होना है। और कोई मुझसे सलाह ले तो मैं कहूँगा गोलचक्कर पर फांसी दो जिससे दूसरों को भी नसीहत मिले।” अपने विचार को वजन देने के लिए वह उठ कर ताली भी बजाने लगा।

”तुम्हारे जैसे मूर्ख श्रोता रहें तो कुछ भी हो सकता है। आए दिन बवाल करने में तुम्हारा इतना समय निकल जाता है कि कोई पूछे कि कर क्या रहे हो, यह हो क्या रहा है ? तो जवाब तक न दे सको । सोचने समझने की फुर्सत तो दूर, धैर्य से सुनने तक की फुर्सत नहीं। कहूँ कुछ, पर उसका एक वाक्य कहीं से लेकर पतंगबाजी करने लगोगे।”

”मैं तो तुम्हारा ही दिव्य वचन दुहरा रहा था। कहने में कोई चूक हो गई क्या?”

”मैं कभी किसी व्य‍क्ति या समुदाय को दुष्ट नहीं कहता, न ऐसा मानता हूँ। यदि मान लूँ तब न तो उसके सुधार की चिन्ता होगी, न उपचार का ध्या्न न रोगनिदान का झमेला। यूँ भी इतिहास में नैतिकता का पहलू वहॉं भी नहीं आता जहाँ किसी काम का परिणाम अनिष्टकर हो रहा हो या हुआ हो। मैं प्रयत्न यह करता हूँ कि उन कारणों, परिस्थितियों और अवरोधों को उजागर कर सकूँ जिनके परिणाम स्वरूप उससे ऐसा हो रहा है या हुआ था। मैं पहले भी इस बात को रेखांकित करता आया हूँ कि इतिहास के समक्ष हम जहाँ अपने को कर्ता समझते हैं वहॉं भी निमित्त बन कर रह जाते हैं। कोई निमित्त अपराधी नहीं हो सकता, न कालदेव को जिनके भीतर क्रियाशील सहकारी और प्रतिरोधी शक्तियों का खेल चल रहा है दोष दिया जा सकता है। इसलिए हम उन शक्तियों या कारकों को समझते हुए उनसे सावधान रह सकें अौर वर्तमान में उनके निवारण या संवर्धन की दिशा में अपने दायित्व का निर्धारण कर सकें, इतना ही हमारे वश का है।

”यदि मिल कहता कि आज की तिथि में यूरोप अग्रणी है और नए सिद्धा्त, विचार और आविष्कार यहॉं पैदा हो रहे हैं और यहाँ से शेष जगत में फैल रहे हैं तो मुझे इस कथन पर आपत्ति न होती। यह बात तो विलियम जाेन्स ने भी कही थी अपने पहले ही व्या्ख्यान में, परन्तु वह यह भी मानते थे कि पूर्व सभ्यता की नर्सरी है, यह भी मानते थे कि हमने सभ्य ता के तत्व एशिया से पाए हैं, यह बात तो हीगेल भी मानता था। परन्तु वैज्ञानिक विवेचन यह भी न होता।

”मिल मानता था जिस देश के पास इतिहास नहीं वह सभ्य नहीं है और भारत के पास इतिहास और इतिहासबोध दोनों नहीे था, यह पहली बार मुस्लिम काल के साथ आया। यदि वह यह भी बताता कि सचेत रूप में इतिहास को अपव्याख्या से नष्ट करने वालों के पास और अपना ही इतिहास नष्ट करने वालों के पास इतिहास बोध होता है, तो सभ्यता के चरित्र को समझने में उससे भी चूक न होती और हम भी समझ पाते कि इतिहासबोध का वह कौन सा रूप था जिसमें भारत ने पुरा पाषाण काल से ले कर बाद के कालों के उन रेशों तक को अपने सास्कृसतिक प्रतीकों, रीतियों, व्यवहारो, भाषा और साहित्य में बचा रखा और यह आश्चर्य इतिहासबोध के बिना ही हो गया।”

”जब इतिहास ही नहीं है, आगे पीछे का तारतम्य तक नहीं मालूम, तो इतिहासबोध कैसे हो सकता है, यार । तुम भी कमाल करते हो।”

”टी.एस. ईलियट का वह प्रसिद्ध लेख ट्रैडिशन ऐंड इंडिविजुअल टैलेंट ‘ पढ़ा है ? पढ़ा तो होगा, तुम लोग तो उनके कचरे की टोकरी में से भी टुकड़े बटोर कर झालर की तरह टाँगे रहते हो। उसमें वह जो ग्रीक काल से अद्यतन के समकाल समुपस्थित होने की बात करता है वह इसलिए कि उसे भारतीय दार्शनिक चिन्तन का स्पर्श मिला था और इसे वह स्वीकार भी करता था। इतिहास के तथ्य और इतिहास के गढ़े हए सबूत इतिहासबोध में सहायक नहीं होते, यह वह तथ्यातीत बोध है जिससे एक बच्चाे जो बोलना तक नहीं जानता यह समझ लेता है कि कौन उसे प्यार करता है, कौन नहीं। इसे तुम नहीं समझ पाओगे, क्योंकि तुम स्वयं इतिहास ध्वंस के उस जघन्य कृत्य में सबसे आगे रहे, अपने को सेक्युलर सिद्ध करने की परीक्षा से गुजरने के कारण। तुम बस इतना जानो कि मिल उस मूल्यांकन से बौखलाया हुआ और इसलिए मानसिक रूप से विक्षुब्ध नस्ल वादी और रंगभेदी बहुज्ञ था जिसे विद्वान कहने में मुझे संकोच है परन्तु उसकी प्रतिभा की प्रखरता को स्वीकार करने में संकोच नहीं है। उस पर तरस आता है, इस टुच्चेपन से बच पाता तो वह अपने बेटे का बाप या बेंथम का मित्र होने के नाते याद नहीं किया जाता, वह एक महान विभूति हो सकता था। यही सीमा उसके गुरु डूग्लस स्टीवर्ट की थी जिसने वैसी ही बौखलाहट में घोषित किया था कि अलेक्जेंडर के हमले के बाद ग्रीक भाषा के संपर्क में आने के बाद भारत के फरेबी ब्राहूमणों ने संस्कृत नाम की एक जाली भाषा तैयार कर दी, अन्यथा उसका भी मैं बहुत आदर करता हूँ । जानते हो, इन्हें क्या समझता हूॅे?”

वह चुप रहा । ऐसे प्रश्न प्रश्न होते भी नहीं ।

”मैं इन्हें बौद्धिक मृगी का, इंटेलेक्चुअल एपिलेप्सी का मरीज मानता हूँ जो अपने देश, धर्म, भूभाग के प्रति अन्ध आसक्ति के कारण उसकाे किसी अन्य की तुलना में किसी भी काल और किसी भी क्षेत्र में पिछड़ा होने की कल्पना तक नहीं कर पाते और इसका साक्षात्कार होने पर उनकी अपनी बुद्धि का उपयोग उसके निषेध और विनाश के लिए करने को बाध्य हो जाते हैं जिस पर उनका स्वयं का नियन्त्रण नहीे रहता।”

”मैंने जब कहा था कि सभ्यता का आविर्भाव, खेती का आविष्का्र भारत में हुआ था तो यह भी बताया था क्यों ? बताया था कि किन परिस्थ्तियों में कितनी संस्कृतियों के लोग भारत में शरण लेने को बाध्य हुए थे और उनके बीच मारकाट से ले कर मिल कर बॉंटने खाने, शादी व्याह करने तक के बहुत तरह के संबंध थे और इनकी तकनीकी का आदान-प्रदान भी किन्हीं अंशों में हुआ था। फिर हिमयुगीन दुर्दिनों के बीतने पर, ऊष्म काल आने पर, थोड़ी निश्चिन्त‍ता हुई तो उन कौशलों का कमाल कई रूपों में सामने आया। आहारसंग्रह के चरण के सीधे आग पर भून कर जौ की बालियाँ खाने से लेकर उन्नत चरण का पूरा इतिहास हमारे रीतिविधानों से ले कर भाषा में और जहां तहॉं पुरातत्व में और हमारे नृतत्व में सुरक्षित है। इसकी ओर हमारे समाजशास्त्रियों, नृतत्वविदों और इतिहासकारों का ध्यान ही नहीं जाता क्योंकि उनका इतिहास आर्यों के आक्रमण से आरंभ होता है। इसे बोध कहोगे, या कुबोध या बुद्धिनाश ?

”मैं उन परिस्थितियों, कौशलों, प्रमाणों को सामने रख कर तथ्य निरूपण कर रहा था जिसमें भले यह कमाल भारतीय भूभाग में हुआ हो, इसमें विश्वमानवता का योगदान था, यह भी याद दिलाया। जैसे अपने दबाव की सांकेतिक भाषा में प्रकृति ने आदेश दिया हो, सभी आकर मिलो और अपनी अगली मंजिलों की दिशा और रूप निर्मित करो – उच्छ्र्वस्व महते सौभगाय । दिमाग तुम्हारा इतना कच्चा है कि यह पूरा खाका उसमें अट नहीं पाता इसलिए एक तिनका चोंच में दबा कर उड़ चलते हो।

”मिल नस्ल की बात कर रहा था, बिना किसी तर्क के दिशा की बात कर रहा था, इतनी प्रखर प्रतिभा का होते हुए भी वह जिद्दी जाहिलों जैसी बातें कर रहा था। मैं दिशा की नहीं न किसी नस्ल की बात कर रहा था, हमारी चेतना में नस्ल है ही नहीं। हो ही नहीं सकती। यहां तो एक ही पिता की दो पत्नियों की सन्तानों की समस्या है जिनकी जीवनदृष्टि भिन्नं है, एक दूसरे के प्रतिकूल तक है, परन्तु यह रक्त के कारण, या जगह के कारण नहीं, उसी यथार्थ के विषय में दो तरह की दृष्टियों के कारण है।

”और वह जो तुम लोग वैज्ञानिकता की बात करते हो, उसको तो पश्चिमी नजरिया अपना लेने के बाद समझा ही नहीं जा सकता जिसमें एक के होते दूसरा नहीं रह सकता या उसको मिटा कर ही रह सकता है। ज्ञान और विज्ञान है तो विश्वास के लिए जगह नहीं रह जाएगी। यह वैज्ञानिक दृष्टि है ही नहीं।”

”फिर वैज्ञानिक दृष्टि क्या है, मैं भी तो जानूँ ।”

”एक किस्सा तुम्हें सुनाऊँ। अभी, इसी समय याद आ गया। कहीं पढ़ा था। एक बार चन्द्र शेखर वेंकट रामन् किसी विदेशी सज्जन के अतिथि थे, उनके परिवार में किसी को तेज बुखार था, उन्होंने उसे पास बुलाया और एक तार उसके हाथ में बॉध दिया। बुखार उतर गया। आतिथेयी ने समझा यह भी इनका कोई आविष्कार होगा। जिज्ञासा की ताे उन्हों ने बताया, बचपन में मॉं ऐसे ही बॉंध देती थी, मैंने भी बस वही किया। तुम समझे मैं क्या कहना चाहता हूँ। छोड़ो नहीं समझोगे तुम। फूलहिं फलहिं न बेत जदपि सुधा बरसहिं जलद । अगली अर्धाली किसी से पूछ लेना। पर यार जिस बात को कहने की भूमिका कल बनाई थी, कल भी नहीं कह पाया और आज भी वह कहने से रह गई।”

”किसी बात को कहने के लिए दिमाग पर नियन्‍त्रण होना चाहिए । वही नहीं है तो पूरी होगी कैसे । तुम अधूरे वाक्‍यों के बादशाह हो।”

”शायद तुम ठीक कहते हो। बादशाहत भी‍ मिली तो भाषा के चिथड़ों की ।”