Post – 2016-08-13

निदान – 18
परहेज भी दवा है अगर मान सको तो

”हमारी पार्टी से यह भूल तो हो गई कि हमने प्‍लेबीसाइट का समर्थन किया। इसे हमने छिपाया भी नहीं। स्‍वीकार किया है। इस एक ही चूक को तुम कितनी बार दुहरा चुके हो और कितनी बार कोस चुके हो पता है। कल फिर तुम उसी पर आ गए।”

”इस समय इस सवाल को न छेड़ो तो अच्‍छा रहे। मैं जानता हूँ यह तुम्‍हारी जरूरत है। मैंने उन तमाम बातों को याद दिलाया था जिन्‍हें तुम्‍हें अपने अस्तित्‍व और देश के हित के लिए करना था और यदि अब तक न किया तो अब आरंभ करना चा‍हिए। आज भी उधर ध्‍यान दो और किसी भी प्रश्‍न को ले लो, जैसे भारतीय भाषाओं के माध्‍यम से ही उच्‍चतम शिक्षा दिलाने, अदालतों की भाषा हाई कोर्ट तक उस राज्‍य की भाषा और सर्वोच्‍च न्‍यायालय में किसी भी भाषा में अपनी बात कहने, बयान देने न्‍याय वकील और जज के लिए नहीं होता, उससे प्रभावित जनों के लिए होता है। यह समझाओ। अब तक अंग्रेजी का पल्‍लू पकड़ कर औपनिवेशिकता को बढ़ावा दिया है, देश और समाज को अपने आप से विच्छिन्‍न करते रहे। यदि तुम कोई सकर्मक कार्यक्रम अपनाओं तो इसक बॉंटो, उसे पटाओ, अपने ही घर को तोड़ो-उजाड़ो जैसे खतरनाक खेलों की जरूरत न पड़ेगी।

”यह न रास आए तो दलित समस्‍या की गहरी पड़ताल करो, आर्थिक और सामाजिक दोनों की यातना भोगने वालों को इस अधोगति से बाहर कैसे लाया जाय जिसमें वह एक तेजस्‍वी वर्ग के रूप में उभर सके, यह देश के सामने युगों से लम्बित समस्‍या है। इस असंतोष को उपद्रवकारी और विस्‍फोटक रूप देकर उसकी ऊर्जा को बर्वाद किया जा सकता है जो तुमने अब तक किया है, परन्‍तु इससे वांछित परिणाम नहीं आऍंगे।

”हम तो सदा दलितो के साथ रहे हैं यार ।”

”तुम तो कभी अपने साथ भी नहीं रहे, दलितों के साथ कैसे रह सकते हो? तुम अपने जन्‍म के समय से दूसरों के औजार बने रहे। उसने तुम्हारा उपयोग चिमटे के रूप में किया, अपना हाथ जलने से बचाने के लिए तुम्‍हें आग में झोंकता रहा और तुम आग उगलते रहे पर अपनी बात लोगों को समझा नहीं सके। समझाते भी क्‍या जब तुम्‍हारे पास कुछ अपना था ही नहीं, जो अपना हो सकता था उसका अनुसंधान ही नहीं किया। तुम दलितों से हमदर्दी दिखाने के लिए उनके प्रति होने वाले अत्‍याचारों के लिए ब्राह्मण को, मनु को, मनुस्‍मृति को काेसते रहे ।

”अभ्‍ाी तक का जो हाल है उसमें तो तुम्‍हारा कहानीकार लिखेगा, एक था दलित और एक था बाभन । दलित बेचारा जल्‍दी में था । बाभन से दस कदम दूर हो कर आगे निकला लेकिन सुबह की धूप थी उसके दुर्भाग्‍य से उसकी छाया ने बाभन का स्‍पर्श कर लिया। अब क्‍या था । बाभन उसे छू तो सकता नहीं था, उस ने एक बड़ा सा पत्‍थर उठाया और उसक सिर पर दे मारा। वह वहीं ढेर हो गया। लिख कर छपा देगा और तुम सभी उसे क्रान्तिकारी रचनाकार बताते हुए सातवें आसमान तक उठाते चले जाओग। क्‍यों, गलत कहा?”

”जब सीधी बात तुम्‍हारे मुँह से निकलती ही नहीं तो गलत क्‍यों कहोगे! सही कहते तो हैरानी होती । क्‍या तुम नहीं समझते कि दलितों के साथ अन्‍याय आज भी शर्मनाक पैमाने पर हो रहे हैं ?”

”न होते तो तुम्‍हें अपने पुनर्जीवन के लिए इस मसले को हाथ में लेने को क्‍यों कहता।”

”हम उन्‍हें साथ लेना चाहते रहे हैं, वे ही हमारे साथ नहीं आए ।”

”तुम्‍हारे साथ नहीं आए नहीं तो तुम उनके भी नेता बन जाते और तुम्‍हारा जनाधार बढ़ जाता और तुम वही ऊल जलूल काम अधिक ऊधम मचाते हुए करते रहते और दलित उत्‍पीड़न को दलितों को अपने साथ रखने के लिए उनके उद्धारक बन कर ओर बढ़ाते रहते।”

”मैं तुम्‍हारी बात समझ नहीं पाया कि तुम कहना क्‍या चाहते हो।”

”मैं तुमसे एक ही बात कहता आया हूँ, वही इस मामले में भी कहूँगा, ‘समझ से काम लो’ । इस समस्‍या की पड़ताल करो, इस प्रवृत्ति में किस दर से और किन कारणों से वृद्धि हुई है। पहले ऑंकड़े जुटाओ कि पिछले दस साल में कितने कांड दलित उत्‍पीड़न के हुए है और साथ ही दलितों द्वारा, दलित संवेदना और सुरक्षा उपायों का दुरुपयोग करते हुए किसी से बदला लेने या निकम्‍मेपन को बनाए रखने के लिए कितनी फर्जी शिकायतें की गई है। प्रत्‍येक मामले में उत्‍पीडि़त करने वाला व्‍यक्ति किस जाति और पृष्‍ठभूमि का था। इसी तरह क्षेत्रीय वर्गीकरण भी। अब स्‍वतन्‍त्रता से पहले के दिनों के जो ऑंकड़े सुलभ है उनका प्रयोग करते हुए प्रति दस वर्ष का चार्ट तैयार करो और ऑंकड़ों को बोलने दो। खुद चुप रहो। इससे व्‍याधि के कारणों का, अनुसंगी पक्षों का, इसके घटते या बढ़ते ग्राफ का भी पता चलेगा और इसका सामना कैसे किया जाना चाहिए यह तय करने में भी मदद मिलेगी। इसके लिए किसी को जत्‍था बना कर तुम्‍हारी पार्टी में शरण्‍ा मॉंगने की जरूरत नहीं पड़ेगी। परन्‍तु मैं जानता हूँ तुम इसे करोगे नहीं, क्‍योंकि तुम लोग कुर्सी पर बैठ कर क्रान्ति करने वाले लोग हो। पसीना बहाने में स्‍वयं विश्‍वास नहीं करते और अपनी सारी ऊर्जा निकम्‍मेपन का विस्‍तार करने में लगाई है।”

”चलो, हमने कर लिया। इससे हो जायेगी समस्‍या हल?”

”यह तो मैंने नहीं कहा। कहा इससे समस्‍या को समझने में और इसके समाधान के उपाय तलाशने में मदद मिलेगी। गरज कि हो सकता है कि अांकड़े यह शोर मचाने लगे कि हाल के दिनों में दलितों के साथ सबसे क्रूर व्‍यवहार उनका रहा है जिनको ओबीसी कहा जाता है। तब तुम्‍हारा ब्राह्मण-शूद्र का विरोध वाला सतहीपन खत्‍म हो जाएगा और अब समस्‍या सामाजिक से अधिक आर्थिक हो जाएगी! अवसर जनित हीनता अवसर प्राप्‍त जनों के प्रति ईर्ष्‍या और क्रूरता में बदलती दिखाई देगी। यह मेरा निष्‍कर्ष नहीं है, उसके लिए तो वह अध्‍ययन जरूरी है जो तुम करो तो तुम्‍हें अपने बने रहने का मुद्दा मिल जाएगा, जिसके अभाव में सांप्रदायिकता और जातिवाद को किसी न किसी तरह जिलाए रखने की समस्‍या से जूझ रहे हो और दोष दूसरों को देते फिरते हो।”

”अब हो गया सन्‍तोष या कुछ बाकी रह गया है।”

”तुमको कोई सिखा नहीं सकता। कुछ सीखने की जगह अपने बचाव के लिए तरकीबें तलाशने लगते हो। डिफेंस मेकैनिज्‍म अधिक प्रबल है। प्रबल किनमें होता है यह भी नहीं सोचते। तुम्‍हें अपने भले की चिन्‍ता हो या न हो, मुझे तुम्‍हारे हित की चिन्‍ता क्‍यों है, यह समझ सको तो भी सबका भला हो:

”पहला यह कि तुम भी हमारे देश के ही प्राणी हो और खासे अक्‍लमंद और अपने ढंग से कुछ पढ़े लिखे भी। तुम्‍हारी ऊर्जा भी हमारी सकल ऊर्जाभंडार का ही हिस्‍सा है, वह ध्‍वंसात्‍मक गतिविधियों में बर्वाद हो और तुम्‍हें भी बर्वाद करती चली जाए यह राष्‍ट्रहित में नहीं है।

”दूसरे, तुम्‍हारी इस देश को जरूरत है। तुम्‍हारे प्रभावमंडल में आने वाले लोग मानवतावादी सरोकारों से आकर्षित हो कर ही निकट आए थे, यह बात दूसरी कि तुम्‍हारे प्रभाव के प्रचंड हाे जाने पर अपने को वामपंथी बताए बिना कोई सम्‍मान से जिन्‍दा नहीं रह सकता था। एक समय था कोई नया आदमी सामने पड़ा तो लोग उसकी जाति पूछते थे, तुम पंथ पूछते रहे। दक्षिणपन्‍थी या वामपंथी ? इसलिए अपने जीने का रास्‍ता तलाशते तुम्‍हारे पास आ लगे व्‍यक्ति इसका अभ्‍यास करते करते वे मुहावरे ही दुहराने लगते थे जिसमें आन्‍तरिक सरोकार और अवसर की तलाश के बीच का फर्क मिट जाता था और अवसर आने पर ही प्रकट होता था।

” कारण कुछ भी हो, यह मानवाद हमारा सपना है, युगों पुराना और बार बार दुहराया जाने वाला। दूसरे समुदाय तो कबीलाई चेतना वाले रहे हैं जिनका ईश्‍वर भी उनके कबीले या धर्मबन्‍धुओं तक सिमट कर कहने को बड़ा पर होने को बहुत छोटा हो जाता रहा है। अपना ध्‍यान उस सपने को पूरा करने पर लगाओ तो सनातन धर्म और मार्क्‍सवाद का फर्क कम हो जाएगा ।

और अन्तिम तो मेरी चिन्‍ता नहीं है, चेतावनी है कि नकारात्‍मक कार्यक्रम का भविष्‍य नहीं होता और उससे जुड़े व्‍यक्तियों, संस्‍थाओं और संगठनों का भी भविष्‍य नहीं होता। इसके कारण तुम्‍हारी सत्‍ता ही नहीं घटी है तुम्‍हारी आवाज का असर भी कम हुआ है। इससे तुम्‍हारे नेताओं की आवाज अपने काडर तक भी बिखर कर पहुंच रही है। कभी तुम एक शब्‍द कहते थे तो कई कोनों से प्रतिध्‍वनित होते हुए वह सौ शब्‍द बन कर सुनाई देता था, आज चीखते हो तो वह मिमियाहट बन कर सुनाई देती है ।

”यह सच है कि मैं तुम्‍हारी आलोचना करते हुए बहुत कठोर हो जाता हूँ, स्‍वर ऊँचा हो जाता है, परन्‍तु इसका कारण यह है कि तुमको बोलते रहने का इतना नशा रहा है कि परमात्‍मा ने तुम्‍हें कान भी दिये है, यह तक भूल जाते हो। मैं तुम्‍हारी भर्त्‍सना करने से अधिक अपनी विवशता पर चीत्‍कार करता हूँ । तुम क्‍या करते रहे हो, यह बताने चलूँ तो कानों पर हथेली दबाए भाग खड़े होगे। इससे देश का बहुत नुकसान हुआ है। तुम्‍हारा नुकसान भी देश का नुकसान है इसे फिर दुहराता हूँ, पर तुम्‍हारा उद्धार मैं नहीं कर सकता। यह तुम्‍हें ही करना होगा – उद्धरेत् आत्‍मनात्‍मानं नात्‍मानं अवसादयेत् । सुधरने का यह आखिरी अवसर है। विश्‍वद्रोही और मानवद्रोही भावधारा से जुड़ कर विश्‍वकल्याण का सपना नहीं देखा जा सकता।