Post – 2016-08-12

नादानी का निदान

कल मैं अपनी बात ठीक से रख नहीं पाया और तुम्‍हें भी झपकी आ रही थी। आज भी रख पाऊँगा या नहीं कह नहीं सकता क्‍योंकि यह इतनी उलझी हुई है कि एक पहलू काे समझने के लिए दूसरे की जानकारी जरूरी है। इसलिए आज पहले सुनो आैर समझो कि भारतीय सन्‍दर्भ में एक मार्क्‍सवादी का क्‍या कार्यभार है और उसका बोध तक कहीं बचा रह गया है। उनमें ही नहीं, उनके आलोचकों तक में।

मार्क्‍स बहुत बड़े चिन्‍तक थे, बहुत अध्‍ययनशील थे, उनका ज्ञान मुझसे कई गुना था, जीवन ऋषियों जैसा समर्पित। लोकहित ही उनके जीवन का लक्ष्‍य था और उसकी संभावना ही उनके आनन्‍द का स्रोत था। बहुत आदर है मेरे मन में उनके लिए और उनकी छाया भी छू सकूँ तो जीवन को सार्थक समझूँ इस लालसा के साथ जितने भी बूंद तेल मेरे हिस्‍से में था उसको बहुत कंजूस की तरह जलाते हुए जितनी रोशनी संभव थी बिखेरने का प्रयत्‍न करता रहा हूं, अकेला और अकंप। परन्‍तु मार्क्‍सवादी होने के नाते यह भी स्‍वीकारता हूँ कि मार्क्‍स सर्वज्ञ नहीं थे। उनकी जानकारी में बहुत कुछ ऐसा था जिसे खोटा कहा जाएगा। उस खोटे को भी उन्‍होंने प्रामाणिक मानते हुए कुछ विचार स्थिर किए थे जो इसी के कारण या तो इकहरे थे, अधूरे थे या गलत थे। भारत के विषय में उनकी जानकारी और विचार भी इसी कोटि में आता है। भारत से अपरिचित रह जाने के कारण, आदिम साम्‍यवाद की अवधारणा में भी कुछ खोट रह गई थी। भारतीय ग्रामों की स्‍वायत्‍तता और कतिपय मामलों में बाहरी तन्‍त्र पर निर्भरता को छोड़ दें तो अपनी अनेक कमियों के बाद भी यह उनके उस कम्‍यून की अवधारणा के निकट था जिसके सपने को उन्‍होंने कम्‍युनिज्‍म की संज्ञा दी थी।

भारतीय चिन्‍ताधारा में दो मुख्‍य और अनेक गौण धाराओं का मेल है। इसकी बहुवर्णता के पीछे मैं यह याद दिलाता रहता हूँ कि विगत हिमयुग की त्रासदी में उत्‍तर से दक्षिण की ओर या तटरेखाओं की ओर पलायन के करते आए हुए जनों और संस्‍कृतियों की भूमिका थी। ऊष्‍म काल आने के बाद हिमाच्‍छादित प्रदेशों के हिममुक्‍त होने और किसी सीमा तक जीवन यापन के अनुकूल होने पर यहॉं से बाहर की ओर भी लोग गए परन्‍तु सभी नहीं। इसकी एक अलग कहानी है जिसमें उलझने का यह समय नहीं।

परन्‍तु इस भीड़ के कारण अन्‍न का संकट भी पैदा हुआ था और उसके लिए भारी मारकाट मची थी जिसकी याद कपालकुंडला, चामुंडा, और कपाली शिव के रूप में बनी रही। अपने कबीले की रक्षा के लिए संहार और रक्‍तपात से न डरते हुए इस मातृशक्ति की भारत पूजा करते हुए उसे बलि क्‍यों देता रहा जब कि इसने शान्ति और अहिंसा को अपना आदर्श बना लिया था यह रहस्‍य इस आपदा काल को याद किए बिना समझ में नहीं आएगा। अस्तित्‍वरक्षा का यह संघर्ष शिल्‍प और कौशल के आदानप्रदान का भी कारण बना और विविध योग्‍यताओं वाले समूहों की पारस्‍परिक निर्भरता के रूप में भी सामने आया। यह प्रमुख कारण है जिससे सभ्‍यता का आविर्भाव इस देश में हुआ और उस क्रम में भी आगे बढ़ने और अपना हिस्‍सा पाने की प्रतिस्‍पर्धा के चलते कई बार मार काट हुई जिसे हम देवासुर संग्रामाें में पाते हैं। यह भी बहुत जटिल मामला है जिसका संकेत करके हम आगे बढ़ सकते हैं।

इस संघर्ष के बीच वह समझ पैदा हुई और वह मूल्‍य व्‍यवस्‍था पैदा हुई जिसे हम भारत की विशिष्‍ट मूल्‍य व्‍यवस्‍था कह सकते हैं जिसमें शान्ति के महत्‍व को, मानवकल्‍याण की चिन्‍ता को केन्‍द्रीय और अन्‍य जीवों जन्‍तुओं के प्रति उदार भाव अपनाने को इतना महत्‍व दिया गया। जिन प्राणियों, वृक्षों, वनस्‍पतियों के, जलधाराओं, पर्वतों के उदार दान पर हमारा जीवन निर्भर है उनके प्रति गहन कृतज्ञता का यह भाव कि उनकी रक्षा के लिए प्राण दिया और प्राण लिया जा सकता है, यह विश्‍वास तो असुरों का था। उन्‍हें इस रक्षाव्रत के कारण ही राक्षस कहा जाने लगा और सभ्‍यता के विकास में बाधक मान कर उनकी निन्‍दा भी की जाती रही, इसे यदि केवल गाय के सिरे से समझने चलें तो समझने में कठिनाई होगी। बिस्‍नाइयों में आज भी एक प्राणी या पौधे की रक्षा के लिए कठोर आग्रह को समझ सकें तो यह रहस्‍य समझ में आ जाएगा। यह आदिम समाज की देन है।

बुद्ध के अष्‍टांग मार्ग का कोई भी अंग ऐसा नहीं है जो भारतीय परंपरा में पहले से विद्यमान न था। जैन मत की नैतिकता और साधना के भी पूर्वरूप इसमें मिलते थे। यही हाल हमारे उन दर्शनों का है जो बाद में अपने सुपरिचित और सुपरिभाषित रूप में तार्किक विवेचन के साथ आए। ऋग्‍वेद में इन सबके आभास मिल जाते हैं।

परन्‍तु ऋग्‍वेद में जो खास बात पाई जाती है वह है आसुरी संस्‍कृति और देवसंस्‍कृति का मेल। इस मेल का सबसे विचित्र पक्ष है असुर संस्‍कृति द्वारा देवसंस्‍कृति का पुनराख्‍यान जिसमें आगे चलकर असुर या वारुणी संप्रदाय ब्राह्मणवाद का सबसे मुखर प्रवक्‍ता बन जाता है जब कि इसी से पहले उसकी ठनी रहती थी। यह भार्गव परंपरा भी कही जा सकती है। हमारे पुराणों का संकलन और संपादन हो या उस मनुस्‍मृति के ज्ञात पाठ की रचना हो या महाभारत और गीता हो, सब भार्गवों की रचना है, जिन्‍हें ब्राह्मणों ने कभी अपनी बराबरी का दर्जा नहीं दिया फिर भी वे ब्राह्मण की श्रेष्‍ठता के गीत गाते रहे। गो ब्राह्मण की अतिरिक्‍त महिमा और दूसरी सेवेदनशीलताओं के पीछे भी यही रहे हैं। नये धर्मान्‍तरितों को भी अपने को सच्‍चा सिद्ध करने के लिए बहुत अधिक उत्‍साह दिखाना होता है फिर भी वे सन्‍देह के दायरे में ही बने रहते हैं ।

मुझे फिर पीछे लौटना होगा। हमारे यहां इन दो प्रमुख प्रतिस्‍पर्धी विचारधाराओं में एक आत्‍मवादी रही है जिसको इन्‍द्र की परंपरा या देवपरंपरा कह सकते हैं। असुर परंपरा भौतिकवादी रही है जिसे विरोचन की परंपरा कह सकते हो। इस विरोचन की परंपरा में ही मृत देह की पूजा और भौतिक समृद्धि को अधिक महत्‍व दिया जाता रहा। सहमरण, सती और एक साथ समाधि के विरल उदाहरण भी इन्‍हीं के पाए जाते रहे हैं। हमारे शिल्‍प और कौशल पर असुर समाज का ही अधिकार रहा जब कि देवों ने संपत्ति के सभी स्रोतों पर अधिकार करके और इनको अपने कब्‍जे में अयुत कोटिवर्ष रखने के लिए सैन्‍यबल और नैतिक और भौतिक प्रतिबन्‍ध या न्‍यायप्रणाली का निर्माण किया और इनके द्वारा उनकी सेवाओं का लाभ उठाते हुए उन्‍हें अपना उपजीवी बनाए रखा। ये आरंभ से कृषिकर्म के विरोधी थे और उस दिशा में पहल नहीं की। स्थिति यह हो गई कि अभाव में देवसंस्‍कृति के संवाहकों ने उस खेती का श्रमभार भी इन्‍हीं पर डाल दिया और स्‍वयं उससे विरत हो गए।

तो मोटे तौर पर यह है हमारी समाज रचना जिसमें अर्थतन्‍त्र समाजव्‍यवस्‍था से इस तरह नाभिनाल बद्ध है कि कोई पहल जब तक दोनों पक्षों में आमूल परिवर्तन लाने में सक्षम न हो उसे तात्‍कालिक रूप में कुुछ सफलता मिल भी जाय तो वह स्‍थायी नहीं हो सकती। जो बात सबके लिए मान्‍य रही है या जिसके लिए सभी के मन में आदर रहा है वे वेही मूल्‍य हैं जिनको सनातन धर्म या क्षमा, दया, अस्‍तेय, अपरिग्रह आदि कहा जाता है और जिनकी साधना को या जिन पर नियंत्रण को आत्‍मविजय के रूप में परिभाषित किया जाता रहा है।

दुनिया के किसी दूसरे देश में यह मूल्‍य व्‍यवस्‍था नहीं पाई जाती। संभव है कुछ आदिम जनों में यह आज भी बचा रह गया हो, परन्‍तु भारत की विशेषता यह कि इसने इन मूल्‍यों को सत्‍तू की तरह छान कर अपने विकास के चरण पर भी त्‍यागा नहीं, इसलिए इसके वैभव के दौर भी व्‍यापक स्‍तर पर सामाजिक खुशहाली के दौर रहे हैं, न कि निजी वैभव का प्रदर्शन। दूसरे देशों के ज्ञात इतिहास के आदिम चरण से ही उनकी मूल्‍य व्‍यवस्‍था हमने ठीक उलट रही है। अहंकार का प्रदर्शन, हिंसा, यथासंभव सब कुछ जहां से भी जोडा या लूटा जा सकता है उसे लूटना, छल बल जैसे भी हो जो पाना है उसे पाने के लिए तैयार रहना, वैभव का प्रदर्शन, अपने और अपने कबीले को छोड़ कर किसी को इंसान न समझना और दूसरे जितने पदार्थ जैव अजैव, पाए जाते हैं उनका अपने सुख के निए विनाश की सीमा तक उपभोग और बर्वादी करने में भी संकोच न अनुभव करना। दूसरे सभी देशों और समाजों की मूल्‍यपरंपरा यही रही है। हमारी मूल्‍यपरंपरा का कभी पूरी तरह निर्वाह नहीं हुआ जिसके कारण इसमें कई तरह के विरोधाभास और अन्‍तर्विरोध पाए जाते हैं जिनका निराकरण हमारे सामाजिक आर्थिक रूपान्‍तरण की पहली शर्त है। और यह सचमुच एक आन्‍तरिक क्रान्ति के लिए लम्‍बे समय से प्रतीक्षरत है।

जिन्‍हें तुम भारतीय कम्‍युनिस्‍ट कहते हो, उनमें से किसी को इस समाज रचना को गहराई में उतर कर समझने की जरूरत नहीं हुई। समतावादी समाज के नारे पर मुग्‍ध सुशिक्षित मूर्खो का इतना बड़ा जमावड़ा किसी अन्‍य पार्टी में न मिलेगा जो कम्‍युनिस्‍ट पार्टी में मिलेगा। यह यथार्थवाद की कसमें खाता है और जिस समाज को बदलना है, जिसमें आमूल परिवर्तन लाना है, उसके चित्‍त की ही समझ इसे नहीं।

समाज के चित्‍त को, इसकी मानसिकता को, समझने के लिए इतिहास में जाना होता है। पहले से इतिहास नहीं लिखा मिलता तो उसकी खोज करनी होती है। उसके प्राचीन साहित्‍य को समझना होता है, लोक विश्‍वास और उनकी रीतिनीति का सम्‍मान करते हुए उसे समझने का प्रयत्‍न करना होता, जिससे उनके रागबन्‍धों और संवेदनशील पक्षों को समझा जा सके। आधुनिक साहित्‍य यदि पश्चिम की नकल बनने की कोशिश न करता तो वह भी लोकमानस को समझने में सहायक हो सकता था, परन्‍तु उसके रचनाकारों और विचारकों की रुझान भी कम्‍युनिज्‍म की ओर रही और इनकी दशा भी कम्‍युनिस्‍टों जैसी ही रही, कि ये कलात्‍मकता के शिखर की तलाश में अपने ही लोक तक पहुँचने के लिए तैयार ही न थे। जितने सुशिक्षित नेता कम्‍युनिस्‍ट पार्टी को मिले उतने किसी अन्‍य को नहीं। परन्‍तु इनकी पहली पीढ़ी ही इंग्‍लैंड रिटर्नों की थी जो पश्चिम रह कर जो कुछ पढ़ा और जाना था उसी को ज्ञान का अन्‍त समझते रहे। यह विश्‍वास प्रबल कि किताबी ज्ञान से कुछ भी किया और समझाया जा सकता है। मूर्खता की हद यह कि उसी इंग्‍लैड उपनिवेशवादियों ने भारत को समझने और नियन्त्रित करने के लिए वे सारे काम किए जिसे हम ऊपर गिना आए हैं। उन्‍होंने हमें अपने नियंत्रण में रखने के लिए अपने ढंग की व्‍याख्‍या की थी जिससे किसी दूसरे का काम नहीं चल सकता अौर चलेगा तो उनका जो स्‍वाधीन हो चुके देश को अपनी सत्‍ता के लिए नए सिरे से गुलाम बनाना चाहते हैं, चाहे वह जाति के नाम पर हो या क्षेत्र के नाम पर हो या धर्म के नाम पर हेा। मजे की बात यह कि यहां का कम्‍युनिस्‍ट सत्‍ता की भूख में या उसके निकट बने रहने के लिए पहले आंचलिकता को हवा देता रहा और आज जाति और उपजाति को हवा दे रहा है। जातिवादी जमीन को कमजोर करने और गोड़ने के लिए जो जमीनी स्‍तर पर करना था और जिसके रास्‍ते समाज में गहरी जड़ें जमाई जा सकती थीं उसकी ओर इसका ध्‍यान ही न रहा। प्रगतिशीलता पश्‍ववर्तिता का ऐसा रूप नासमझी का दस्‍तावेज है।

अब तुम स्‍वयं तय करो, क्‍या तुमने अपने समाज को, इसके यथार्थ को समझा? फिर इस यथार्थ को समझा कि मार्क्‍स की सहानुभूति मोटे तौर पर मानवता के प्रति रही हो सकती है, जैसे अपने यहाँ प्राणिमात्र के हित की बातें की जाती रही है, पर वह जिस क्रान्ति की बात कर रहे थे वह यूरोप और अमेरिका की, गोरी जातियों की क्रान्ति थी। मजदूर वर्ग तो वहीं तैयार हुआ था। उस क्रान्ति में हम सम्मिलित नहीं हो सकते थे क्‍योंकि भारत का सारा कारोबार, घरेलू उद्योग तक खत्‍म किया जा चुका था और हम केवल कच्‍चे माल की आपूर्ति कर रहे थे और तुमने स्‍वतन्‍त्रता आंदोलन के साथ नये उभरे कल कारखानों को भी हडताल और काम रोको से नष्‍ट करके वही काम करते रहे जो अंग्रेज सारा उत्‍पादन अपने हाथ में रखने के लिए अपने जोर से करते रहे थे। मार्क्‍स ने भारत को जेम्‍स मिल के इतिहास से समझा था जिसका इतिहास उन प्राच्‍यविदों की प्रतिक्रिया में लिखा गया था जो ऊपर वर्णित भारतीय जीवनमूल्‍यों पर इतने रीझे हुए थे कि उनकी प्रशंसा तक हमारी अधोगति को देखते हुए व्‍यंग्‍य लगती थी , इसलिए उन उच्‍च गुणों तक को मार्क्‍स ने दुर्गुण समझ लिया था। धर्म को अफीम मानने वाले मार्क्‍स को अफीमची मिशनरियों की रपटों को सच मान कर लिखे गए इतिहास से भारत को समझना पड़ा था।

अपनी ओर से तुमने जो मार्क्‍सवादी इतिहास लिखना शुरू किया वह मिल के अधूरे काम का तार्किक विस्‍तार था परन्‍तु इसका कारण यह था कि तुम्‍हारी पार्टी ने जैसा हम दिखा आए हैं, मुस्लिम लीग के कार्यभार को अपने कार्यभार में जोड़ लिया अौर उससे मुक्‍त न हो । अपने इतिहास और संस्‍कृति को समझना अपने यथार्थ की जड़ो को समझना था, वह आपने नहीं किया, उल्‍टे उसे नष्‍ट करते रहे क्‍योंकि एक ही किताब पर पली समझ से अपने इतिहास को नष्‍ट करने वाले और इसलिए अति भावुक प्रतिक्रियावाले लोगों की अपेक्षाओं पर सही उतरने के लिए तुम इतिहास को समझने की जगह उसे नष्‍ट करने में जुट गए और इस तरह अपने सामाजिक तानेबाने को समझने की जगह इसे नष्‍ट करने में गौरव अनुभव करते रहे
। समझदारों की इतनी बड़ी जमात मूर्खता के ऐसे कीर्तिमान स्‍थापित करती रही कि अपने यथार्थबोध को ही नष्‍ट कर डाला।

एक अन्तिम बात सुनो, जिस देश में विचार ही सबसे प्रबल हथियार रहा है उसमें खून बहाने वाला हथियार सफल नहीं हो सकता। शक्ति का प्रयोग वे करते हैं जिनके पास न्‍याय और औचित्‍य नहीं होता, अपने प्रचार और बचाव के लिए सही तर्क और सही विचार नहीं होता। अपना विचार होता ही नहीं। ओढ़ा हुआ होता है।
सुपारी किलिंग की तरह सुपारी पालिटिक्‍स भी होती है। अब यदि सचमुच तुम्‍हारे भीतर थोड़ी सी भी अक्‍ल हो तो तुम मुझे समझाओं कि अपने समाज का बौद्धिक मेरुदंड तोड़ने के अतिरिक्‍त तुम्‍हारा क्‍या योगदान है हमारे समाज को। जिसका मेरुदंड ही टूटा हुआ हो उसका दिमाग कैसे काम कर सकता है ? हमारे एक मित्र कह रहे थे कि क्‍लास स्‍ट्रगल की तो आप ने बात ही नहीं की। भई मजबूत सर्वहारा तबका तो पूँजीवादी विकास से पैदा होता, उसकी तुमने जड़ों पर ही प्रहार आरंभ कर दिया। भूल समझ में आई तो इतनी देर से कि सुधार के साथ ही दीवार और छत नीचे आ गई। यूनियनों के दलालों को संघर्षकारी शक्ति न समझा करो जिन्‍होंने प्रगति ही नहीं, सामान्‍य गतिविधि को भी असंभव बना दिया।

”उठो, चलें। या उठने में भी मदद करनी होगी ?”