Post – 2016-08-10

”तुमने एक बार आदर्श झाड़ते हुए कहा था, अपने बारे में या अपने से जुड़ी किसी चीज के बारे में प्रशंसात्‍मक बात नहीं करनी चाहिए। यह शिष्‍टाचार के विपरीत है, और कल तुम कह रहे थे हम अकेले हैं जो आत्‍मविजय की बात करते हैं जब कि दूसरे विश्‍वविजय की बात करते हैं, तुम आत्‍मविरुद नहीं गा रहे थे?”

”समझ का अन्‍तर है, इसीलिए कहा था, आगे की बात को समझने के लिए कम से कम एक दिन का समय तो तुम्‍हें उसे पचाने के लिए चाहिए ही। उसे पचाए बिना आगे की बात समझ नहीं पाओगे। तुमको तो यह भी याद न होगा कि हिन्‍दू होने पर मुझे न तो गर्व है न खेद, क्‍योंकि यह मेरा चुनाव नहीं है, एक हिन्‍दू परिवार में पैदा हुआ हूँ जैसे दूसरे दूसरे धर्म वाले परिवारों में। मैंने यह भी याद दिलाया था कि हमारा कर्तव्‍य है हम दूसरों की कमियां गिनाने की जगह अपनी कमियाँ दूर करें। तुम्‍हारी सोच यह है कि भले हमारी कमियां कितनी भी नगण्‍य हों हम उसको छोड़ कर और कुछ देखेंगे ही नहीं, इसलिए अपने को, और अपने पूरे समुदाय में सिर्फ अपने को महान सिद्ध करने के उनको इतना भयावह, इतना जघन्‍य बताते रहेंगे जिससे सिद्ध हो कि मुझको छोड़ कर, हमारा समाज दुनिया का सबसे गर्हित समाज है। यही किया है न तुमने।”

वह हत्‍प्रभ नहीं हुआ, ”तुम जिन सामीधर्मो से चिढ़ कर उनके ही तौर तरीकों को अपनाते हुए हिन्‍दुत्‍व को एक सामी धर्म बनाना चाहते हो, उस खतरे को भांप कर हम तुम्‍हें उधर जाने से रोकते हैं। हम अपने देश और समाज की तुमसे अधिक अच्‍छी सेवा करते आए हैं और करते रहना चाहते हैं। यही हमारी उपयोगिता रह गई।”

”और यह सब तुम उन्‍हीं सामी धर्मों के साथ मिल कर करते हो, उनकी गोद में बैठ कर, इस सेवा का फल चखते हुए और यह फल भी तुम्‍हें उन्‍हीं की योजना और पहल से मिलता है। हिन्‍दुत्‍व को सुधारने में तुमसे अधिक वलिदान वे कर रहे हैं, क्‍योंकि वे जो कुछ खुद बनता है वह तो करते ही है, जो उनसे संभव नहीं वह तुमसे कराते हैं। तुम क्‍या उनके पालतू नही बन चुके हो? तुम हित करने की सोचोगे तो उससे भी अधिक अहित करोगे, जो वे करते आए हैं और करना चाहते हैं। क्‍योंकि उनकी खाकर तुम इकबालिया बयान देने लगते हों अपने समाज की व्‍यर्थता, कदर्थता और मरणासन्‍नता का । यह काम उनके वश का नहीं है, या वे करते हैं तो अविश्‍वसनीय लगते हैं। यही कारण कारण है कि जब मैंने हिसाब मात्र दिया कि अमुक मूल्‍यवान निधि हमारे पास ही बची रह गई और इसकी आज के संसार को सबसे अधिक जरूरत है, तो तुमको इसमें भी आत्‍मश्‍लाघा दिखाई देने लगी। तथ्‍य आत्‍मश्‍लाघा नहीं होता, मैं कहूं मैं लेखक हूं जब कि दूसरे बहुत से लाेग लेखक नहीं हैं, तो तुम्‍हारी परिभाषा से यह आत्‍मश्‍लाघा हो जाएगी जब कि मैं अपने पेशे का परिचय दे रहा हूँ। तुम्‍हारा एक मात्र प्रयत्‍न अपने ही देश और समाज के मनोबल को गिराना रहा है या नही ? तुम दूसरों के हाथ बिके रहे हो या नही ? बिका हुआ आदमी क्‍या उन लोगों का प्रतिनिधित्‍व कर सकता है जिसको वह लगातार निशाना बना रहा हो उनके साथ मिल कर जो इसे मिटा देना चाहते हैं ?”

पुरानी आदत है। ऐसे मौकों पर वह सर खुजलाने लगता है, आज भी खुजलाने लगा। मैंने झिड़क दिया, ”ऐसा मत किया कर यार, इससे तेरा तो कुछ नहीं बिगड़ेगा, देखने वाले सोचेंगे तेरी घरवाली के सिर में जूएं पड़ गई हैं।”

वह घबरा गया । मैंने उसे समझाने प्रयत्‍न किया, ” देखो, हम किसी काम से या खुराफात से जो हासिल करना चाहते हैं अस्‍सह प्रतिशत मामलों में होता ठीक उन्‍टा है। तुम लोगों ने इसी इरादे से हमारा इतिहास लिखा, लिखा कहना भी गलत है, तुम्‍हें गोद में बैठा कर तुम्‍हें गुलगुले खिलाते हुए, तुम्‍हारी अतिशुद्धता की मिथ्‍याप्रतीति जगा कर, तुमसे लिखवाया गया और इस पर गर्व करना भी सिखाया गया। वे कुछ अधिक चालाक थे, स्‍वयं यह काम करते तो पकड़ में आ जाते। यहां तक अरबी फारसी का आधिकारिक ज्ञान रखने वाले मुस्लिम इतिहासकारों के होते हुए भी, मध्‍यकाल के इतिहास लेखन के लिए तुमको ही लगाया गया । तुम जिन्‍होंने, तथ्‍यों की अनदेखी करके, स्रोत सामग्री से अपरिचित होते हुए भी या कहो इस अपरिचय के बल बूते पर ही, कहानियां गढ़ कर एक उन्‍नत और सुसंस्‍कृत समाज को लुटेरो, बटमारो, हत्‍यारों और खानाबदोशों की जमात में बदला था खुश हाे कर बता रहे थे यह जो मध्‍य काल है जहांगीर से शाहजहां के समय तक का वह स्‍प्‍लेंडर का युग था। वैभव और विलासिता का काल। इसकी कीमत किसानों को क्‍या देनी पड़ रही थी इसका हवाला तक नहीं। तख्‍तताऊस के बनने पर हीरों मोतियों और नक्‍कासी पर अपार धन व्‍यय हो रहा था उस समय गुजरात में तीन साल तक लगातार अकाल पड़ा रहा फिर भी मालगुजारी वसूल की जाने के लिए जुल्‍म जबरदस्‍ती की जा रही थी उन आहों और आंसुओं का कोई हिसाब नहीं। पैसे जो बरस रहे थे। और जब दोनों बातें तुम ही कह रहे थे तो वे बेचारे मानने पर मजबूर थे कि हिन्‍दुओं से गर्हित समाज कोई नहीं और मुस्लिम काल के साथ पहली बार भारत सभ्‍य बना। इस श्रेष्‍ठता बोध में अपनी ही अगली पीढि़यों के चढ़े हुए दिमाग को सन्‍तुलित नही कर पा रहे हैं जिसका खमियाजा वे भी भोग रहे हैं और हमें भी भोगना पड़ रहा है। इतिहास के छात्रों को घेर कर, इतिहास के दूसरे सभी पाठों को नष्‍ट करके, दूसरी सभी पुस्‍तकों केा पाठ्क्रमबाह्य बना कर तुम्‍हारी मदद से जो तुम्‍हारे ही पुरखों को दरिंदों की जमात सिद्ध करने को आतुर थे उनका वर्तमान ही दरिन्‍दगी की ऐसी मिसालें पेश करता चला जा रहा है जिसे संभालने के तरीके उनको भी नजर नहीं आते जो उनकी करनी पर शर्म से शिफर हो जाना चाहते हैं।

”उसी इतिहास का दूसरा परिणाम भी योजना के विपरीत ही हुआ। सोई हुई आग को पीट कर बुझाने वालों को पता ही नहीं कि वह भड़कती हुई इस तरह फैल जाएगी कि जिनको मक्‍खी की तरह किनारे फेंक देते थे वे तुम्‍हें मक्‍खी की तरह फेंकने की स्थिति में आ गए। भाजपा के भाग्‍योदय में जितनी मदद तुमने की है उस का दशमांश भी संघ के बूते का नहीं था। और समझदारी का आलम यह कि नशाखारों की तरह उन्‍हीें जुमलों को दुहरा कर अपने प्रति बढ़ रही घृणा को स्‍वयं उकसाते रहते हो। कारण जानते हो, कारण यह कि नतीजा जो भी हो, उन्‍हें यदि कुछ मिलेगा तो उन मुहावरों को दुहराने से ही मिलेगा। लोभ मनुष्य को कितना पतित और जाहिल बना सकता है इसकी जीती जागती मिसाल वे हैं जिनसे तुम आज तक चिपके रह गए हो।

वह रुआंसा हो गया था, परन्‍तु अपने का संयत रखने का प्रयत्‍न कर रहा था। मैं आज अपने आवेश को नियन्त्रित करने की कोशिश के बाद भी ऐसा कर नहीं पा रहा था, ” यदि तुम्‍हें अघरे अन्‍त न होंहि निबाहू, कालनेमि, जिमि रावण राहू’ का अर्थ यदि कल न समझ में आ रहा था तो अब समझ में आ गया होगा। और मैं अपने को एकमात्र मार्क्‍सवादी क्‍यों कहता हूं, यह जानना चाहते, तो देखो, मैं अकेला लेखक हूँ जिसने जो कुछ भी 1970 के बाद लिखा है, मार्क्‍सवादी औजारों का इस्‍तेमाल करते हुए लिखा है। भाषाविज्ञान लिखा तो उसमें नस्‍ली भाषाविज्ञान की कलई तो खोली ही गई थी, यह दिखाया गया था कि भाषा के विकास का भौतिक आधार और स्रोत क्‍या है? कि जिन क्‍लासिक भाषाओं से हमारी बोलियों और उनसे पहले की बोलियों के कृत्रिम रूपों अपभ्रंश, प्राकृत, पालि का जन्‍म दिखाया जाता रहा है वह गलत है। बोलियों से ये साहित्यिक भाषाएं पैदा हुईं। उसमें दिखाया गया था कि भाषापरिवारों की अवधारणा ही गलत है, सही है इनका समाजशास्‍त्र और भूगाेल और अर्थतन्‍त्र, इसलिए अमुक प्रमाण सिद्ध करते हैं कि तथाकथित आर्य और द्रविड़ भाषाओं के बीच गहरा जुड़ाव है जो इनके प्राथमिक चरण से बना रहा है। मैं बहुत उत्‍साह में था कि यह बात हमारे मार्क्‍सवादी विद्वानों की समझ मे आ जाएगी। नहीं आई, क्‍योंकि इसका उनके भाववादी भाषाविज्ञान और उस पर टिके इतिहास से सीधा विरोध था जो मार्क्‍सवाद का कारोबार चला रहे थे।

मैंने पुरातत्‍व, इतिहास, वैदिक साहित्‍य के आधार पर अर्थव्‍यवस्‍था और समाज-व्‍यवस्‍था के विकास के चरणों को सप्रमाण चित्रित करते हुए हड़प्‍पा सभ्‍यता को वैदिक सभ्‍यता का भौतिक पक्ष सिद्ध किया जो इतना प्रमाणशुद्ध और तर्कशुद्ध है कि तरह तरह से कोशिशश करने के बाद भी उसकी किसी स्‍थापना का खंडन नहीं हो सका और उसमें साहित्‍य के आधार पर जो अन्‍य स्‍थापनाएँ दी गई थी उनकी पुष्टि अागे जेनेटिक अध्‍ययनों और पुरातात्विक उत्‍खननों से हुई । यह इतिहास उस काल्‍पनिक और जाली इतिहास को निर्मूल करता था इसलिए यह तक समझ में नहीं आया।

मेरे उपन्‍यासों में भी यही स्‍वर है और मार्क्‍सवाद की शक्ति क्‍या है इसे इन क़ृतियों में से किसी को पढ़ कर, उनकी अन्‍तर्वस्‍तु और विवेचना काे देख कर समझा जा सकता है। मैंने तुम्‍हारी मूढ़ताओं से जाना कि तुम बने हुए मूढ़ हो, अन्‍यथा ज्ञान तो तुम्‍हें बहुत है। पर इसके कारण ही तुम व्‍यक्ति से सौदे में बदल चुके हो जिसे कीमत देकर कोई खरीद सकता है।

भारत में मार्क्‍सवाद के उद्धार का एक ही उपाय है धार्मिक विद्वेष से लिखवाई गई उन पोथियों को जला दो जिन्‍हें तुम मार्क्‍सवादी इतिहास के नाम पर छात्रों पर उन्‍नति के सभी रास्‍तों पर कब्‍जा जमा कर गुलामों की तरह लादते रहे हो और मेरी पुस्‍तकों का नये सिरे से पाठ करो। मार्क्‍सवाद की इस देश को जरूरत है और मेरी भी है शायद पर आज तो तुम भीतर तक इतने घायल हो चुके होगे कि कुछ दिन बेडरेस्‍ट लो तो यह बात समझ में आएगी ।”

”और इसके बाद भी कहोगे कि आत्‍मप्रशंसा नहीं कर रहा था।”

”तुमको अब भी पता नहीं चला कि मैं मार्क्‍सवादी पद्धति की महिमा बता रहा था जिसने सर्वसत्‍तासंपन्‍न भाववादी इतिहासकारों को अजायब घर में दाखिल कर दिया और इसीलिए अपने अकेलेपन की बात कर रहा था। रामविलास जी के बाद दूसरा कोई दीख रहा हो तो बताना, परन्‍तु अपनी ओर से तो तुमने उनकी भी आरती उतारने में कसर न छोड़ी थी ।