Post – 2016-08-09

”शास्त्री जी यह बताइए आप लोगों का हाफपैंट कब उतरने वाला है।”
शास्त्री जी का चेहरा लाल। सर मेरा आपसे विचारों का मतभेद है, पर आपका इतने वरिष्ठ हैं आपके साथ दिल्लगी नहीं कर सकता। आप की डाक्साब से चलती है तो सुनने में मजा आता है, पर …”

मैंने बीच में हस्तक्षेप किया, “पैंट उतरने पर तुझे दीखेगा क्या यार! कभी तो सोचकर बोला कर.”

“नादानों से बात करने के यही तो खतरे हैं. पूरी बात समझने से पहले ही कूद पड़ते हैं. मैंने सुन रखा है की कुछ दिन के बाद शाखा में हाफ पैंट की जगह फुल पैंट चलेगी. जानना चाहता था इसमें कितना समय लगेगा और बनवानी पड़े तो फुल बनवायी जाये या हाफ.”

असंभव तो कुछ नहीं है तुमलोगों के लिए. जहां से टुकड़ा मिलता है उधर ही मुड जाते हो. देर मत करो, एक साथ ही दोनों बनवा लो. एक के ऊपर दूसरे को पहन कर शाखा में पहुँच जाना. ऊपर वाले को उतार कर तब तक अलग रखते जाना जब तक इसका चलन है पर दूसरों को धौंस में ले लेना किक तुम उनसे दूने शाखा चर हो. यही तो किया है, बाने और गाने के बल पर जब जो जी में आया बन गए.”

”मुझे अपने लिए कुछ नही करना. चिंता तुम्हारी थी. तुम्हारे लिए इतनी कुर्बानी तो दे ही सकता हूँ. सुना पांचजन्य के स्वाधीनता विशेषांक में तुम्हारे लिए कसीदे पढ़े गए हैं. जो रही सही कमी है वह भी पूरी हो जाय. यह पर्दा तो एक दिन उठना ही था. उठ गया. पहचान तो लें अब लोग अपने को मार्क्सवादी कह कर भारतीय कम्यूनिष्टों को कोसने वाले की असलियत क्या है. तुलसी दास की वह चौपाई क्या है यार भूल सी रही है ‘उघरे अंत न होंहि निबाहू. काल नेमि जिमि रावण रहू.’ यही है न इसका सही पाठ। ”

मैं सुनता रहा, मुस्‍कराता रहा, ” कीचड़ की गुणवत्‍ता पर बहस नहीं की जाती। उसका कीचड़ होना ही काफी है।” जब वह चुप हुआ तो इतना ही कहा । लेकिन वह सांस लेने के लिए रुका था। उसकी बात अभी पूरी नहीं हुई थी, हडि़या में कुछ और माल पड़ा रह गया था।

‘जानते हो मैं क्‍या करूंगा। तुम्‍हारी पैंट और हाफ पैंट दोनों सिलवाऊँगा, कपड़े की पसन्‍द तुम्‍हारी, खर्च मेरा, दर्जी की पसन्‍द मेरी और खर्च भी मेरा क्‍योंकि सिलवाऊँगा कुछ ढीला, कुछ वैसा जैसा खेत में धोखे को आदमी का भरम पैदा करने के लिए पहना दिया जाता है। और जब तुम पहन कर निकलोगे तो जो पैसा लगा है उसके बदले में सिर्फ एक फोटो लूँगा, और उस फोटो के नीचे लिखी होगी एक पैरोडी:
क्या छबि बरनूं आप की भले बने हो यार
दाढ़ी अपनी पोंछ ले टपक रही है लार ।”

अब उसकी बात पूरी हो गई थी। वह स्‍वयं तालियॉं बजाते हुए खड़ा हो गया था और चारों दिशाओं में घूम कर तालियां बजा रहा था। हँस तो उसकी पैरोडी और पैरोडी की भूमिका पर मैं भी रहा था, परन्‍तु इस खास मौके पर मैं गंभीर हो गया।

”तुम कुछ भी करो, उससे मैं रोक तो नहीं सकता, पर मित्र होने के नाते यह सलाह अवश्‍य दूंगा कि यह काम मत करना। इससे हमारी और तुम्‍हारी पहचान लुप्‍त हो जाएगी। लालाललित व्‍यक्तित्‍व ही तो तुम्‍हारी पहचान है। बहते रहे हो लाला लिप्‍त होकर और महिमा की पहचान यही रही है किसने कहां कहां से क्‍या क्‍या चखा। चिखनेश्‍वर इतनी महिमा पा लेते रहे हैं कि वे शरणागतों के विघ्‍नेश्‍वर तक बन जाते रहे हैं, परन्‍तु अादमी हो पाने की संभावनाओं से भी दूर खिसकते चले जाते रहे हैं। रसेतरे, रसा तले। यदि लालाला‍लित विचारकों, साहित्‍यकारों, पत्रकारो की तालिका बनाई जाए तो पुस्तिका का रूप ले लेगी।”

मुझे अपने भ्‍ाीतर से ही कशाघात लगा। ‘सच को कहने के लिए इतनी इबारतों की जरूरत नहीं होती। सोचो, चूक तुमसे क्‍या हुई थी या हो रही है।’

मैंने अन्‍तर्यामी को समझाया, ‘चूक तो हुई है। ऊपर से अप्रभावित दिखने का प्रयास करते हुए भी उसकी बत्‍तमीजी से खिन्‍न हो रहा था इसलिए उसको समझाने के लिए उसको उसकी औकात दिखाने की जरूरत अनुभव हुई।”

”क्षमा किया, पर यह मत भूला करो कि तुम हिन्‍दू हो और यह दर्प से अधिक एक उत्‍तरदायित्‍व है। मानवमात्र को मानवता का पाठ पढ़ाने का।”

मित्र बदले के लिए तड़प रहा था, बोला, मैं कुछ कहूं तो बुरा तो नहीं मानोगे।

मैंने कहा, अच्‍छा होता कुछ देर बाद कहते, मैं अभी किसी अन्‍य से संवाद कर रहा था। पर यदि तुमने छेड़ ही दिया तो तुम अपनी ही बात कहो।

देखो मैं तो अपनी बात कह रहा था, परन्‍तु तुमको क्‍या ऐसा नहीं लगता, तुम हिन्‍दुत्‍व के प्रवक्‍ता बनते जा रहे हो।

जानने की जरूरत नहीं अनुभव हुई क्‍योंकि मैं हिन्‍दू हूँ, हिन्‍दू होने पर न तो गर्व अनुभव करता हूँ न शर्म। यह मेरा चुनाव नहीं था, इस पर मेरा वश नहीं था। मैंने एक बार पहले भी कहा था कि जिस तरह दुनिया भौगोलिक और प्रशासनिक द़‍ृष्टियों से बँटी है उसी तरह भाव जगत धर्म, विश्‍वास और मूल्‍यप्रणालियों में विभाजित है। हम जिसमें पैदा होते हैं उसकी सभी चीजों को अच्‍छा मान लेते हैं। अच्छा मान लेने के बाद अपनी कमियों और‍ विकृतियों की भी हम यदि पूजा नहीं करते तो उनका समर्थन करने लगते हैं, समर्थन करने में खतरा होता है तो उन सवालों पर चुप रह जाते है जब कि जरूरत बोलने, अपनी भूल स्‍वीकार करने, उस भूल से बचने के संकल्‍प में होना चाहिए। यदि वह नहीं है तो तुम जो होने का दावा करते हो वह नहीं हो।”

”यही तो मैं भी कहता हूँ । हिन्‍दुत्‍ववादियों, पहले अपना घर इस हद तक सुधारो कि इसमें किसी तरह की विकृति न रह जाय और फिर मुझसे बात करो।”

”बिके हुए लोगों के पास आवाज नहीं होती, चिग्‍घाड़ होती है, और चिग्‍घाड़ से लोगों को डराया जा सकता है, समझाया नहीं जा सकता, अन्‍यथा तुम उन्‍हें और विश्‍व समाज को ऊपर उठाने के लिए हिन्‍दू मूल्‍यों और मानों की बात करते, मुझे हिन्‍दू न कह कर मानवतावादी मूल्‍यों का पहरेदार समझते और घर की विकृतियों को दूर करने का रास्‍ता भी उस गौरवशिखर तक पहुंचने की नई चुनौती के रूप में पेश करते।”

”क्‍या है वह चुनौती बताओगे। हिन्‍दू संकीर्णतावादियों को अपनी हद में रखने का कोई रास्‍ता सुझाओगे।”

”तुम नहीं जानते हिन्‍दू होना विश्‍वमानव होने का पर्याय है। यह अकेली मूल्‍यप्रणाली है जो विश्‍वविजय का लक्ष्‍य नहीं रखती, आत्‍मविजय से परिचालित है। उन मनोभावों और प्रवृत्तियों पर विजय जिसके बिना मनुष्‍य पशु बना रह जाता है और पशुता के असंख्‍य रूपों का विस्‍तार आज की सबसे गंभीर समस्‍या है।”

”यार तुम कोई बात तो सलीके से रखा करो। इस लफ्फाजी से बाहर निकलने का कोई रास्‍ता निकालो, या चुप रहा करो। मैं यह पहले भी कहता रहा हूँ।”

”आज तुम कल के मेरे आघात से कराहते हुए, बदले में जान देने की कीमत पर भी कुछ कमाल करने के इरादे से निकले थे, इसलिए दिमाग का कहने वाला कोना सक्रिय था ग्रहण करने और सोचने समझने वाले कोने सोये रह गये थे। आज कुछ कहँ तो तुम्‍हें मेरा कथन आत्‍मप्रशंसा लगेगा, इससे बचने के लिए इसे कल के लिए रखते हैं।”

वह सहमत हो गया।