रहिमन फाटे दूध के मथे न माखन होय
शास्त्री जी के आने में आज कुछ विलंब हो गया था, फिर भी मेरे मित्र ने चर्चा उन्हीं की शुरू कर दी, ”अब तुम समझोगे क्यों मैं इन लोगों पर विश्वास नहीं करता। ये जिसे शैतान समझते हैं उसी जैसा बन कर उसे मिटाना चाहते हैं। इससे शैतानों की संख्या बढ़ती है और इंसानो का जीना मुश्किल होता जाता है।” उसने उन्हें दूर से आता हुआ देख लिया था।
”घबराहट में बहुत से उल्टे सीधे विचार मन में आते हैं। आदमी जो जो सोचता है वही वही बन नहीं जाता। विषस्य विषमौषधम्, कांटे को कांटा ही निकालता है, या ऐन आई फार ऐन आई, टिट फार टैट, जैसे को तैसा जैसे मुहावरे हमारी चेतना में भरे हुए हैं और स्थिति के अनुरूप समाधान बन कर उपस्थित हो जाते हैं। बेशक ये परिस्थिति को समझने, आैर उसे सुलझाने के अन्य तरीकों पर विचार करने में बाधक भी होते हैं।” मैं अपना वाक्य पूरा करता कि शास्त्री दो चार कदम पहले से ही करबद्ध मुद्रा अपनाते पहुंचे और हमने बातचीत के क्रम में आमने सामने होने के लिए जो दूरी बना ली थी उसी में बैठ गए।
”क्या विचार विमर्श हो रहा था?” शास्त्री जी ने हमें बातें करते तो देख ही लिया था।
”हम लोग अाप को कोस रहे थे। मैं बता रहा था शास्त्री जी संस्कृत के विद्वान होने के कारण सूक्तियों के युग में रहते हैं, उस युग से आगे बढ़ने को तैयार ही नहीं होते, जब कि दुनिया सूक्तियों के युग से बहुत आगे चली आई है। हमारी जहन में कई तरह के जीरो आवर्स हैं जिनसे चिपक जाने पर हम इतिहास के किसी मुकाम पर लटके रह जाते हैं। शास्त्री जी के पास लटकने के लिए बहुत की खूंटियँा हैं। ”
”सूक्तियाँ तो किसी भी चिन्तक के उत्कृष्ट विचारों का मणिभाकार रूप हैं। आप ठीक कहते हैं हम संस्कृत के लोग बात बात पर सूक्तियां जड़ देते हैं। हम उस शिक्षा प्रणाली से निकले हैं जिसका अस्तित्व लेखन का विकास होने से पहले से है, जिसमें उपयोगी विचारों को पद्यबद्ध करके कंठस्थ कर लिया जाता था, शिक्षाप्रद बातों को कहानियों में पिरोकर सुनाया और प्रसारित किया जाता था, जिसमें शिक्षा सार्वभौम थी और शैशव से मां की लोरियों और दादी की कहानियों से आरंभ हो जाती थी, जिसमें साहित्यानुराग इतना प्रबल था कि थके लोग भी सोने से पहले कहानियाँ सुनते और सुनाते कहानियों के फेड होेने के साथ सपनों की दुनिया में चले जाते थे। मैं तो बहुत अधिक जानता नहीं पर जितना जानता हूं उसमें सर्वशिक्षा का ऐसा विशद आयोजन दुनिया के किसी अन्य देश में नहीं था। बाद में लिखित साहित्य आरंभ होने और शिक्षा संस्थाओं के खुलने के बाद भी कवियों की रचनाओं का माधुर्य तो काव्य रसिकों तक ही सीमित रहता था, परन्तु उनके मार्मिक कथनों या सूक्तियों को लोग कंठस्थ कर लेते थे और उनका दैनिक व्यवहार में उपयोग करते थे। संस्कृत का विद्वान साधारण अशिक्षित या नाममात्र को शिक्षित व्यक्तियों से बात करते हुए उनका ही भाव प्रचलित भाषा में बताते हुए अपने कथन की पुष्टि करता था तो इस रास्ते वे अशिक्षित समाज में भी मुहावरों, लोकोक्तियों के रूप में फैल जाते थे। मुहावरे और लोकोक्तियां भी तो सूक्तियां ही हैं और ये देश के एक कोने से दूसरे कोने तक भाषा की दीवारों को पार करते हुए फैले है। वह एक महाशय हैं इमेनो साहब, भाषाविज्ञानी हैं तो उन्हें केवल भाषाओं के बीच के ये तार दिखाई दिये और उन्होंने इंडिया एेज ए लिग्विस्टिक एरिया की पहचान की और काफी नाम कमाया, पर अगर वह साहित्य और संस्कृति से भी इतनी ही गहराई से परिचित होते तो कहते इंडिया इस ए कल्चरल एरिया, मेंटली इंटीग्रेटेड और फीजिकली वैरिगेटेड और तब कोई मूर्ख यह नहीं कहता कि भारत को तो अंग्रेजों ने एक किया, उससे पहले यहां एकता की अवधारणा थी ही नहीं। यह टुकड़ों में बंंटा था।”
शास्त्री जी की इस अन्तर्दष्टि पर चकित तो मैं भी था, पर मेरा दोस्त तो जैसे ऊपर की सांस ऊपर और नीचे की नीचे। वह चुप हुए तो वह अपने को रोक नहीं पाया, ”शास्त्री जी आपने तो कमाल कर दिया। मैं तो आपको संस्कृत का आचार्य समझ कर निरा भोंदू समझ बैठा था। आज तो आपने मेरा दिमाग ही घुमा दिया।”
शास्त्री जी हाजिरजवाबी में किसी से कम नहीं हैं, ”अभी तो आधा ही घूमा है, पूरा घूम जाय तो कल से अगले पार्क में शाखा में चले आइएगा।”
एक साथ तीनों ने ठहाका लगाया और मेरा दोस्त साथ ही तालियां भी बजाने लगा, ”भई मान गया। सूक्तियों को आप ने मणिभाकार कहा तो मैंने सोचा सूक्तियों से भरे आपके दिमाग में पत्थर ही पत्थर भरा होगा, लेकिन अब तो लगता है उन्हें मोम से चिपका कर रखा गया है।”
”देखिए श्रीमन, सूक्तियों के लिए क्या कहा था एक कवि ने, कहा था, ये ज्ञान के शिखर हैं। इनका भारत को शिक्षित करने में बहुत योगदान रहा है। कविता सभी कर लेते हैं, सूक्तियां कुछ ही प्रतिभाशाली कवि गढ़ पाते हैं। इनका आकर्षण भी अपार है। यह जो तुलसीदास काे और इनसे पहले वाल्मीकि और व्यास को लोग इतना आदर देते हैं वह इसलिए नहीं कि उनमें भक्तिभावना प्रबल हाेती है। महत्व इस लिए देते हैं कि इनमें युगों से रक्षित सूक्तियों का भंडार है और केवल रामायण पढ़ कर ही एक अल्पशिक्षित व्यक्ति भी व्यावहारिक मामलों में इतना निपुण हो जाता है और उसके आत्मविश्वास का स्तर इतना ऊपर उठ जाता है कि बड़े बड़े विद्वानों से सिर उठा कर बात करता है। उत्तर भारत को शिक्षित करने में तुलसी की जो क्रान्तिकारी भूमिका है, आत्मगौरव की रक्षा में उनका जो योगदान है उसके कारण उन्हें वह सम्मान मिला है जो किसी दूसरे को नहीं मिला।”
”शास्त्री जी जैसे उस दिन आपको मस्जिद के नाम पर पार्क की जमीन दबाने की बात याद रही, पर मन्दिर की आड़ में किया गया वही काम भूल गया था, उसी तरह लगता है आप ने तुलसी की प्रतिक्रियावादी भूमिका को कान्तिकारी बता दिया और कबीर को भुला दिया।” मित्र ने चुटकी ली।
”देखिए, कबीर साहब को तुलसी दास के सामने मत खड़ा करें, एक साहब ठहरा दूसरा दास। इसी तरह की भूल लोग सूटेड बूटेड नाना भांति इलीवेटेड बाबा साहेब के सामने आधी धोती के फकीर को खड़ा करके करते हैं। कंह सेवक कंह दास। मैं तो श्रीमान जी आप जैसे ज्ञानी प्रोफेसर के साथ डाक्साब को जो जिन्दगी भर क्लर्की करते रहे और एक बार सोचा कहीं पढ़ाने का काम मिल जाय तो वहां घुसने भी नहीं दिया गया, आपके साथ बैठा देख कर ही घबरा जाता हूं। लेकिन विडंबना देखिए कि डाक्टरेट आप ने की और मैं और मुझ जैसे बहुत से लाेग अपनी नादानी में डाक्साब डाक्साब को ही कहते हैं और आपको श्रीमान कह कर ही सन्तोष कर लेना पड़ता है।” मेरे दोस्त की ऐसी हालत तो मुझसे फटकार सुनने पर भी न होती रही होगी।
शास्त्री जी ने मेरे मित्र का हाथ अपने दोनों हाथों में लिया और कुछ दबे स्वर में कहना आरंभ किया, ”देखिए, श्रीमन, हास परिहास की बात अलग है, परन्तु मैं कबीर के जीवन और लेखन में एक विसंगति को समझ नहीं पाता या जिस रूप में समझता हूं वह यह है कि कबीर अपनी पीड़ा के गायक है, उनमें वह परदु:ख कातरता नहीं है जो तुलसी में है। कबीर या उनके पिता या दादा जिन भी परिस्थितियों में इस्लाम कबूल करने को बाध्य हुए वह उनका चुनाव नहीं था फिर भी वह हिन्दू नहीं हो सकते थे। उनके संस्कार, विचार और आदर्श उपनिषदों से लिए हुए हैं, माध्यम कौन से रहे हो सकते हैं, यह हम अधूरे रूप में ही समझ सकते हैं, परन्तु जिस मजहब में उन्हें डाल दिया गया उसकी रीति नीति को पचा नहीं पाते। उनकी स्थिति ना हिन्दू ना मुसलमां की है। वह लोक पीड़ा से कातर नहीं है, उस आध्यात्मिक और आत्मिक उच्छेदन से विकल हैं। दलितों की वेदना हिन्दुओं की अस्पृश्यता की निन्दा में व्यक्त होती है, पर उनकी आर्थिक अधोगति या किसी की आर्थिक दुर्दशा की ओर उनका ध्यान नहीं जाता क्योंकि बुनकर अपने खाने पीने का इन्तजाम अपने पेशे से कर लेता है। परन्तु इसके कारण मैं उन्हें छोटा नहीं मानता। आध्यात्मिक लंगर की तलाश में वह योगसाधना और अात्मानन्द की ओर ले जाते हैं। उनके व्यंग्यों में धार है वह आत्मविश्वास का स्तर उठाता है पर ज्ञान का स्तर नहीं। ज्ञान उनके यहां अन्तर्ज्ञान बन जाता है। तुलसी भीतर से बाहर की ओर की यात्रा करते हैं, वह पूरे भक्ति आन्दोलन में अकेले हैं जो भूख और दारिद्र्य की पीड़ा की बात करते है। प्रशासन की उददंडता की आलोचना करते हैं। अकेले निग्रहवादी साधनाओं और भटकाओं को समाज के लिए अनिष्टकर बताते हुए सक्रिय और सकर्म जीवन का समर्थन करते हैं। कबीर साहब की स्थिति बाद के अंबेडकर साहब जैसी है। इनको भी आर्थिक तंगी का सामना नहीं करना पड़ा इसलिए सामाजिक-आर्थिक अधोगति की ओर उनका ध्यान ही नहीं जाता। केवल अस्पृश्यता, और उसका उतना ही सतही समाधान, धर्म परिवर्तन। हिन्दू इतनी जल्द पूरी तरह बदल नहीं सकते इसलिए वह हिन्दू पैदा हुए पर हिन्दू मरेंगे नहीं। हो सकता है मेरे समझने में कुछ इकहरापन हो। और हां, मायावती जी के बारे में कभी सुना था, वह आईएएस की तैयारी कर रही थीं जब कांसीराम जी ने उन्हें समझाया कि राजनीतिक भविष्य के सामने आइएएस कुछ नहीं। अर्थात् दलितों की पीड़ा नहीं, अच्छे कैरियर की तलाश उन्हें दलित राजनीति में ले आई और उन्होंने आइएएस अफसरों से जूती ठीक करा कर अपने उस अहं की पूर्ति भी कर ली और जीते जी पत्थर में बदल गईं। दलित पीड़ा की दुहाई दे कर ये हंगामा मचाने वाले नौजवान हैं इनके सामने भी पीड़ा नहीं कैरियर है। अपने लिए अपनों का इस्तमाल करके ऊपरी मंजिल तक पहुंचने की व्यग्रता। अकेला एक मुझे, रोहित वेमुला, भीतर से बेचैन लगता है, परन्तु उसकी वही बिडंबना ना हिंदू ना मुसलमां वाली ही थी, न दलित न सवर्ण फिर भी उपेक्षा की पीड़ा गहरी थी। जो चला गया वह क्या बन पाता ये बैठे ठाले लोगों के विनोद के विषय हो सकते हैं। हमारे लिए विचारणीय नहीं।”
शास्त्री जी ने मित्र का हाथ छोड़ दिया और उठ कर खड़े हो गए। मेरे लिए श्रोता बने रहने का सुख ही पर्याप्त था। मैं भी उठ खड़ा हुआ।