Post – 2016-07-10

कबहुं न छाड़ें खेत

शास्‍त्री जी मैंदान छोड़ने वालों में से नहीं हैं। मैंने कहा था आज आने के लिए तो वह पहले से मोर्चा संभाले मेरी प्रतीक्षा कर रहे थे। मैंंने विनोद में यह बताया तो हंसने लगे, ”नहीं, इसमें मोर्चा संभालने जैसी कोई बात नहीं है। मैं ब्राह्म बेला में ही जग जाता हूं, इसलिए मेरा दिन विलम्‍ब से जगने वालों की तुलना में कुछ लम्‍बा होता है।”

”और अपने बराबर की उम्र वालों की तुलना में आप की आयु भी कुछ लम्‍बी होती है।” सुन कर वह प्रसन्‍न हो गए, ”हां, यह भी कह लीजिए।”

”शास्‍त्री जी, मैं अपनी कही कुछ और बातों की याद दिलाना चाहता था। पहली यह कि मनुष्‍य में प्रशंसा की भूख इतनी प्रबल होती है कि वह इसके लिए गर्हित से गर्हित और असंभव से असंभव काम कर सकता है। और यह किसी भी आदमी या किसी भी समाज में संभव है, शर्त यह कि उसकी मूल्‍य प्रणाली ऐसी बना दी जाए।”

शास्‍त्री जी की स्‍मृति मेरे मित्र की तुलना में अच्‍छी है, ओजोन पूरित मलयानिल का सेवन करने वाले हुए, इसलिए उन्‍होंने यह भी याद दिलाया कि पवित्रता और न्‍यायप्रियता के नाम पर ईसाई मिशनरियों और पोपों ने स्‍वयं कितने अमानवीय कुकृत्‍य, कितने बड़ पैमाने पर किये, और वह भी फ्रांस जैसे देश में भी जो कला और संस्‍कृति में अपने को अनन्‍य मानने का भ्रम पालता है, यह भी एक बार मैंने कहा था। बस एक बात पर उन्‍हें सन्‍देह था कि अपने समाज में भी ऐसा हो सकता है सो कुछ ऐसे प्रचलनों की याद दिलानी पड़ी तो दबे मन से मान लिया, ‘हां, था तो पर अपने यहां… ” फिर आगे कुछ कहे बिना ही उदास से हो गए।

”मैंने यह भी कहा था कि कोई भी कथन या कृत्‍य इतने असंख्‍य ज्ञात और अज्ञात कारकों की परिणति होता है कि उसको देखते हुए जो घटित हुआ उसके अतिरिक्‍त कुछ घट ही नहीं सकता था और इस दृष्टि से विचार करने पर हम पाते हैं कि हमसे जो हुआ वह हमने किया नहीं, मात्र निमित्‍त बने रहे। करने वाला कोई और है। उस समय भी मैंने कहा था वह और भौतिक और सामाजिक और आर्थिक कारको का संकेन्‍द्रण भी हो सकता है।”

”नहीं, पहली बात तो आपने ठीक इसी तरह कही थी, पर बाद वाली बात आज जोड़ रहे हैं।”

मैं हैरान रह गया, शास्‍त्री जी की स्‍मृति इतनी स्‍वच्‍छ है। जो सूचना वहां पहुंच गई वह बिना किसी जोड़-तोड, फेर-बदल के फ्रीज रहती है। खैर, ”मैंने उन असंख्‍य घटकों का हवाला दिया था जिसमें हमारे गर्भ काल से लेकर बाद के समय के अनुभव, हमारी जननी को मिले पोषण, हमारी वंशागत व्‍याधियाें, गुणसूृत्रों, आर्थिक और सामाजिक स्थितियों, संपर्क और व्‍यक्तिगत अनुभव सभी का योग होता है और सबसे अधिक योग उस शिक्षा का होता है जिसकी संस्‍थाएं गुरुजन, परिजन, मित्रमंडली, लब्‍ध परंपरा और इतिहास पुराण, शिक्षा केन्‍द्र आदि हैं और उूपर से सामयिक घटनाओं आदि के दबाव में हम जो कुछ करते हैं हम मान लेते हैं कि हम कर रहे हैं, जब कि वह हमारे माध्‍यम से घटित हो रहा है।”

शास्‍त्री जी को मानना चाहिए था कि मैंने उूपर जिसे संक्षेप में कहा था उसे कुछ विस्‍तार से समझाते हुए कह आया था, पर अपनी बात कटते देख भड़क गए, ”आपके पास अब कहने को कुछ नया नहीं बचा है कि जो पहले कहते रहे हैं उसी को दुहरा रहे हैं। सुनिये, जो कुछ आपने कहा था उसमें यह भी कहा था कि कुछ मामलों में विरल अपवादों को छोड़ वृहत्‍तर समुदायों का आचरण एक जैसा होता है और मुझे मुसलमानों से यही शिकायत है। ये जहां भी हैं, जिस भी देश में हैं, जिस भी समाज ने इन्‍हें बसने और रहने की स‍ुविधाएं दी हैं, सभी में इनका यही चरित्र है। हुए ये दोस्‍त जिसके दुश्‍मन उसका आसमां क्‍यों हो।’

”वाह! क्‍या कही है आपने। परन्‍तु मैंने यह कहा था कि एक विचारक की भूमिका चिकित्‍सक की होनी चाहिए न कि अपराध शाखा के पुलिस की। यदि कोई विकृति या व्‍याधि बहुत बड़े पैमाने पर दिखाई देती है तो भी हमारे पास एक ही उपाय है कि हम उन घटकों का पता लगाएं जिनका परिणाम कोई प्रवृत्ति या कार्य है। महामारी में आप रोगी को नहीं उस अदृश्‍य विषाणु को दोष देते हैं जिसने उसमें प्रवेश कर लिया है, उस माध्‍यम या संवाहक का पता लगाते हैं जिनके संसर्ग में आने से यह व्‍याधि फैली है, न कि रोगी को दोष देते हुए बदले की कार्रवाई के रूप में स्‍वयं उसी व्‍याधि से ग्रस्‍त होना चाहते हैं।”

शास्‍त्री जी को गुस्‍सा कम आता है लेकिन मेरे समझाने में कोई चूक रही होगी कि वह भीतर ही भीतर कसमसाने लगे थे और यह कसमसाहट उनके चेहरे पर बढ़े रक्‍त के दबाव में प्रकट हो रही थी। चेहरे पर बढ़ती लाली की ओर ध्‍यान गया तो हठात् एक विनोद सूझा और वातावरण को हल्‍का बनाने के लिए कहना चाहा, ”शास्‍त्री जी आपके सिर पर तो खून सवार होता जा रहा है।” परन्‍तु उनसे अपने मित्र जैसी प्रगाढ़ता न थी, फिर उम्र का भी अन्‍तर था, इसका उल्‍टा ही असर होता, इसलिए चुप तो कर गया पर कुछ देर तक मजा लेते हुए मुस्‍कराता रहा।
हम बातों में इतने लीन थे कि यह पता ही न चला कि मेरा मित्र कब आ कर मेरी बगल में बैठ गया था। इस वाक्‍य की सूझ और फिर मुस्‍कराहट से जो राहत मिली उसका यह लाभ हुआ कि उसकी उपस्थिति का भी आभास हो गया।
शास्‍त्री जी अपने विचारों पर पूरी तरह द़ढ़ थे, ‘देखिए, आप मुसलमानों को नहीं जानते। यदि आप कहते हैं कि समाज और व्‍यक्ति के निर्माण में परंपरा का भी हाथ होता है तो यह समझ लीजिए कि इनकी परंपरा ही विश्‍वासघात की रही है। कर्बला से ले कर आज तक, और हो सकता है उससे पहले से ही, मुहम्‍मद साहब ने खुद क्‍या किया था, उन पर आयद होने वाली आयतों तक में यह मौकापरस्‍ती देखी जा सकती है। आस्‍तीन का सांप, पीठ में खंजर घोंपने, जैसे मुहावरे यहां तक कि दगा, फरेब जैसे शब्‍द हमारी भाषाओं में न मिलेंगे क्‍योंकि यह हमारे आचरण में न था। हां, एक मुहावरा अवश्‍य मिलेगा, तिलगुड़ भोजन, तुरुक मिताई, आगे मीठ पीछे पछताई । आप समझे मेरी बात ?”

मेरा मित्र अभी तक चुप सुन रहा था, अब उससे न रहा गया तो मेरे कुछ कहने से पहले ही उसने हस्‍तक्षेप कर दिया, ”शास्‍त्री जी आप से ज्‍यादती हो रही है। इस तरह की सोच से झगड़ा फसाद तो किया जा सकता है, मिल जुल कर रहा नहीं जा सकता।”

शास्‍त्री जी उत्‍तेजित हो गए, ”मिल-जुल कर रहना कौन चाहता है, उनके साथ?”

मेरा दोस्‍त फिर बीच में कूद गया, ”मिल जुल कर तो आप हिन्‍दुओं के साथ भी नहीं रह सकते, इसकी तो आपको आदत ही नहीं है, आप तो अपनी छाया तक से नफरत करते हैं, आप किसी दूसरे के साथ मिल जुल कर कैसे रह सकते हैं। आप मिलिए या बिदकिए आपका काम उनके बिना चलता नहीं है। इस समाज के तार इस तरह गुंथे मिले हैं कि इसकी आप को समझ ही नहीं हो सकती।”

शास्‍त्री जी हैरानी में उसका मुंह देखने लगे। बिना कुछ बोले ही उनके चेहरे से यह भाव प्रकट हो रहा था कि कल तो यह आदमी मेरे साथ था और आज इसे क्‍या हो गया। दोनों के स्‍वर में आई कर्कशता मुझे भी खल रही थी। इससे तो सोच समझ का रास्‍ता ही बन्‍द हो जाएगा, ”आप किसी को डांट कर या पीट कर तो कोई बात समझा नहीं सकते, तैश में क्‍यों आ गए आप लोग। हम तो अपने मन के भीतर के उस जहर को बाहर निकालना चाहते थे जिसे भला बने रहने के लिए हम छिपाए या दबाए रहते हैं। मन को स्‍वच्‍छ बनाने के लिए दूसरा कोई उपाय नहीं। उस मवाद को बाहर आने दीजिए तभी घाव भरेगा। पर नश्‍तर इतने आवेश में न लगाएंं कि घाव गहरा हो जाय ।”

मेरे हस्‍तक्षेप का इतना असर तो हुआ ही कि दोनों का चेहरा उतर गया, कहिए तनाव कम हो गया। मैने शास्‍त्री जी को समझाना चाहा, ‘देखिए जोड़ने का काम अर्थव्‍यवस्‍था करती है और तोड़ने का काम धर्मशास्‍त्र करते हैं। खैर अब तो मिलों का बोलबाला है, लेकिन आज भी बुनने का काम जुलाहे करते हैं। उनको अलग कर देते तो नंगे रह जाते आप। दर्जी का काम मुसलमान करते है। रंगने का काम रंगरेज करते हैं। …”

शास्‍त्री जी फिर तैश में आ गए, ”हैं, मुसलमान हैं, पर आपही कह चुके हैं कि जिन पेशों में घर में कुछ तैयार सामान पड़ा रहता था ज‍ि‍जिया आदि के नाम पर उनकी लूट पाट होती रहती थी इसलिए उन्‍होंने सामूहिकत धर्म परिवर्तन कर लिया। वे थे तो हिन्‍दू ही और हिन्‍दू मूल्‍यों के प्रति कितनी गहरी ललक थी। कबीर को कभी इस नजर से पढें तो बहुत सारे भ्रम दूर हो जाएंगे।”

मैंने अपने को संयत रखा, ”हिन्‍दू थे, अब नहीं हैं। अब मुसलमान हैं। उन्‍हें पहले इस्‍लाम कबूल करने के लिए बाध्‍य होना पड़ा पर अपने पुराने रीति व्‍यवहार वे निभाते रहे। जिस तरह का कीर्तन भजन करते थे उसी तरह का दरगाहों पर करने लगे।‍ जिस तरह की मनौतियां अपने देवताओं से मांगते रहे अब पीरों और फकीरों से मांगने लगे। आज तो आप हजरत निजामुद्दीन की दरगाह पर जाइये तो वहां कौवालियां गाते कौवाल मिल जाएंगे, पर जब खुसरौ ने निजामुद्दीन औलिया से कहा कुछ हिन्‍दूू जो हाल ही में मुसलमान बने हैं, आपकी महिमा गाते बजाते आना चाहते हैं तो औलिया ने कहा था, ‘ इस्‍लाम में गाना बजाना मना है।”
पूछा, तालियां बजाते हुए गा सकते है, तो जवाब मिला ताली बजाना भी मना है। पर कीर्तन करने वालों को तो समर्पण भाव के लिए भजन कीर्तन जरूरी था ही। आज यह हाल है कि कोई दरगाह और कौवाली को अलग करके देख ही नहीं सकता। जिसकी जिन्‍दा रहते अनुमति नहीं दी, उनके मरते ही उन्‍हीं की महिमा में उसे करके दिखा दिया।

”विवशता में मुुसलमान बने, अन्‍तरात्‍मा इतनी जल्‍द नहीं बदलती। बहुतेरे बाहर मुसलमान रहते घरों के भीतर हिन्‍दू हो जाते, अपने देवी देवताओं की पूजा दूसरे हिन्‍दुओं की तरह करते जिनके मन्दिर गिरा दिए जाते थे । घरों में मन्दिर और पूजा का कोना उसके बाद ही आरंभ हुआ लगता है। इस्‍लाम कबूल कर लिया और उपनिषदों की चिन्‍ताधारा में समाज समीक्षा करते रहे और भरथरी के गान गाते हुए घूमते भीख मांगते रहे। मेवात के राजपूत तो लंबे समय तक अपने पुराने संस्‍कारों से पूरी तरह कटने को तैयार न थे। इसी तरह के अवशेषों से बनी थी वह संस्‍कृति जिसे गंगाजमुनी तहजीब कहते रहे हैं।”

”आप यह भी तो कहिए कि गंगा जमुनी संस्‍कृति को हिन्‍दुओं ने बनाया और मुसलमानों ने मिटाया है और आज तक मिटाने पर उतारू हैं।

”गंगाजमुनी संस्‍क़ति के शत्रु आप भी थे। एक बार हिन्‍दू समाज से किसी भी विवशता में बाहर गए हुए लोगों को वापस लेने और अपने समाज में मिलाने की क्षमता आप जैसे लोगों के कारण हिन्‍दू समाज में न रही इसलिए उन्‍हें धीरे धीरे अधूरे मुसलमान से पूरा मुसलमान बनाने वाले या कहें तबलीग के नुमाइंदे कट्टर बनाते रहे। केवल जुलाहे और रंगरेज ही नहीं, पंचानबे प्रतिशत मुसलमान आपके भाई हैं। उनके भीतर वही रक्‍त है जो आपके भीतर । उनकी चेतना के अन्‍धलोक में वही मूल्‍यप्रणाली लाख मिटाने के बाद भी किसी न किसी अंश में बनी रह गई है जो आप में है। जिन विश्‍वासघातियों की परंपरा का ज्ञान आपको है वे सभी पशुचारी जमातो के थे और जिनकी जीविका का एक साधन ही लूट पाट था। लुटेरो और आयुधजीवियों में जवानों की कद्र अधिक होती है, बूढ़ो, अशक्‍तों को उनका बचा हुआ ही मिलता है इसलिए उस तरह की पितृभक्ति पहले उनमें न थी पर आज के मुसलमान के विषय में आप यह नहीं कह सकते। जरूरत उनसे दूर जाने की नही, न हड़बडी में एकमेक हो जाने की है, बल्कि साथ रहने की तमीज पैदा करने की है। इसकी अपनी समस्‍याये हैं। हमारे चाहने से ऐसा न होगा, बल्कि उल्‍टा असर पड़ेगा, यह काम उनके बुद्धिजीवियों का है और हमें उनसे पूछना होगा कि वे अपने धर्म दायादों की पशुता को कम करने के लिए किस तरह का और कितना हस्‍तक्षेप करते हैं। यदि नहीं तो क्‍या वे मानेंगे कि मुस्लिम चिन्‍तक या साहित्‍यकार अपने ही हम पेशा हिन्‍दुओं से अधिक कायर या कमतर होता है ।”

शास्‍त्री जी को मेरी बात सही लगी नहीं शायद । वह बिना कुछ बोले उठ कर चल दिए । चलते चलते कहा, ‘आज तो बस इतना ही।’