यह कौन सी मंजिल है कहां पर पहुंच गए
”देखिए सर, जब कोई ऊँची ऊँची बातें कर रहा हो और ऊँचाई की उसकी परिभाषा अपने को गर्हित बता कर दूसरे को प्रसन्न करना चाहता हो तो यथार्थ की बात करने वाला संकीर्ण और मानवताद्रोही तक लगता है या सिद्ध कर दिया जाता है। भाई साहब के साथ बीमारी यही लगती है।” मेरे मित्र की टिप्पणी का दंश शास्त्री जी के मन में अभी तक बना हुआ था।
हम तीनो साथ ही बैठे थे इसलिए भले उन्होंने संबोधित मुझे किया हो, सुन तो मेरा मित्र भी रहा था। चुप कैसे रहता। आप किस यथार्थ की बात कर रहे हैं, क्या हम जिस यथार्थ में जीते हैं, आप उससे भिन्न यथार्थ में जीते है।”
”यथार्थ तो एक ही होता है श्रीमन् परन्तु किसी को पूरा दीखता है और कुछ लोगों को केवल अच्छा अच्छा ही दीखता है और कुछ लोगों को कुछ बुरा ही बुरा दिखाई देता है, इतना बुरा कि वे बुराई से मुक्ति पाने के लिए पूरे संसार को ही मिटा देना चाहते है और कुछ लोग आप जैसे होते है जो दूसरों को खुश करने के लिए अपने समाज की ऐसी विकृतियां देश काल का ध्यान दिए बिना और बिना किसी प्रसंग के लाकर तमाशा खड़ा कर देते हैं कि लो देखो इससे बुरा कुछ हो सकता है, और इसके बूते पर ही वे अपने समाज के शेष लोगों से श्रेष्ठ सिद्ध होना चाहते हैं।
”जब मैं यथार्थ की बात करता हूं तो गुण-दोष युक्त यथार्थ की बात करता हूं, अच्छाई में बुराई के अनुपात की बात करता हूं, उपलब्ध विकल्पों के बीच चुनाव की बात करता हूं, काल्पनिकता और व्यावहारिकता की बात करता हूं और क्षमा करें श्रीमान जी, अाप जैसे लोग उस कृत्रिम और गर्हित यथार्थ की जिसे आपने जाने कहां कहां से सामग्री लेकर अपने को लोकोत्तर दिखाने के लिए तैयार किया है।”
मेरा मित्र भी कम जिद्दी तो है नहीं बोला, ”आप का यथार्थ उस शाखा का यथार्थ है जिसके आप प्रमुख हैं और जिसका जन्म ही मुस्लिम द्वेष से हुआ है, जिसका आदर्श हिटलर है, जिसके लोग पूरी जाति को ठिकाने लगाने की बातें करते हैं, जो इतिहास से इतना भी नहीं सीखते कि हिटलर की सनक से उसका तो जो होना था हुआ ही, उसके कारण जर्मनी पूरी दुनिया की नजर में गिर गया, जर्मनों से लोग आंखे फेरने लगे।”
बहस जो मोड़ लेती जा रही थी उससे भीतर से कुछ अव्यवस्थित अनुभव कर रहा था, कि मेरे मुंह से हठात् निकला, ‘गई भैस पानी में।’
मेरे मित्र का भाषण बन्द हो गया और उसने चौंक कर कहा, ”भैंस। भैंस कहां से आ गई?”
शास्त्री जी हंस पडे । सोचा, चलो माहौल तो बदला। इसका लाभ उठाते हुए कहा, ‘मैंने तो शास्त्री जी के गणवेश पर ध्यान ही न दिया था। अब समझ में आया इनके ब्राह्र्म मुहूर्त में जगने का रहस्य। पर एक बात बताइये, जब आप दोनों में इतनी समानताएं हैं तो कम से कम आप लोगों को तो मिल जुल कर, प्रेम से रहना चाहिए। अाप क्याे झगड़ने लगते हैं?”
इस तरह के सवाल के लिए दोनों तैयार नहीं थे। मेरे मित्र को तो मेरे स्वभाव का कुछ पता था, पर शास्त्री जी के लिए यह झटका था। उनके मुंह से निकला, ”यह क्या कहते हैं आप। कम्युनिस्टों से हमारी तुलना करेंगे?”
”मेरी इसमें कोई दिलचस्पी नहीं। पर क्या कभी आपने नट को रस्सी पर चलते देखा है ?”
इस बार मेरे मित्र के बोलने की बारी थी, ”तुम्हारा दिमाग कहां कहां भटकता रहता है, यार ? कभी भैंस तो कभी नट की बाजीगरी, अस्थिर चित्तता के नायाब नमूने हो तुम। विषय पर ध्यान ही नहीं।”
”मैं यह कह रहा था कि बांस के जिन खंभों पर वह रस्सी तनी होती है, उनको गाड़ा नहीं जाता। जमीन पर टिका कर पीछे की ओर दो रस्सियों से तान कर उनके खूंटों को गाड़ दिया जाता है। दोनों बांसों में और उनके पीछे की रस्सियों और खूंटों में समानता होती है। रस्सी तो दोनों के बल पर तनी रहती ही है। बस दोनों में एक ही भिन्नता होती है कि वे विरोधी दिशाओं में खड़े होते हैं, विरोधी दिशाओं में तने रहते हैं, परन्तु यदि एक गिर जाय तो दूसरा अपने आप लुढ़क आएगा और उसके साथ ही रस्सी पर कलाबाजी करने वाला भी जमीन पर आ गिरेगा। इसलिए कम्युनिस्टों को कम्युनलिस्टों का विरोध करने का प्रदर्शन तो करना चाहिए परन्तु इस बात का ध्यान रखना चाहिए कि अगला जमीन पर न आ गिरे, क्योंकि उसके बाद दूसरे का भी वही हाल होगा।”
कनमनाएंगे दोनों यह तो मुझे पता ही था। इसलिए उनकी मुद्रा देख कर ही मैं आगे बढ़ गया, ”जरा समानताओं पर तो गौर करे आप दोनों : अनुशासन प्रियता में आप और यह दोनों बराबर हैं और दोनों अपने दिमाग से काम नहीं लेते। नफरत दोनों का हथियार है और जहां दिमाग से काम लेना चाहिए वहां भी नफरत को विचार बना कर पेश करते हैं। दोनों का हिटलर से गहरा संबन्ध है परन्तु क्रम कुछ गड़बड़ है, फिर भी हिटलर का वह सूत्र दोनों अमल में लाते हैं कि यदि तुम्हारा दुश्मन तुमने नफरत नहीं करता तो समझो तुम अपने को साबित ही नहीं किया । दोनों को, नाजियों की तरह खंडित मानवता से प्यार है और अपने को सर्वश्रेष्ठ सिद्ध करने की जिद है। कम्युनिस्ट जमीन जायदाद और कारोबार वालों से नफरत करते थे इसलिए उनको कत्ल करके उन्होंने अपना समतावादी समाज तैयार किया पर उसमें भी अशुद्धियां पैदा हो गई तो जिन्होंने इस पर आपत्ति की उन्हे साइवेरिया के कैंपों में भेज, विचार और संचार के साधनों पर कब्जा जमा कर जो जी में आया किया और दुनिया को जो चाहा समझाया और बाहरी लोगों को दिखाने के लिए जो नुमायश तैयार की थी उसे दिखा कर इस भरम में डाल दिया कि इससे अच्छा समाज कोई हो नहीं सकता। हिटलर ने इनसे शिक्षा ग्रहण करके, वही काम दो दशक बाद जिन यहूदियों की सफलता से उसे घ़णा थी उनको यातना म़त्यु दे कर वही काम किया और आप जिनसे घृणा करते हैं उनका सफाया करने का इरादा रखते हैं। अन्तर सिर्फ यह कि कम्युनिस्ट जो सोचते थे वह कर सके क्योंकि तानाशाही में कुछ भी संभव है और उस समय तक दुनिया के अमन चैन का ठेका लेने वाला कोई लीग या आर्गेनाइजेशन भी नहीं था। हिटलर जो चाहता था, करके बेबाक निकल जाता और दुनिया को अपने इशारे पर नचाता यदि उसने गुरुद्रोह करके सोवियत संघ पर हमला न कर दिया होता। याद रहे कि तब तक तो उसे सोवियत संघ का भी समर्थन मिला हुआ था क्योंकि वह पूंजीवादी देशों से लड़ कर उन्हें मिटा या कमजोर कर रहा था। उस स्थिति में वह उस गति को भी न प्राप्त होता और दुनिया का इतिहास क्या होता यह केवल कल्पनाविलास की बात है, परन्तु लोकतन्त्र में ऐसा संभव नहीं है…
शास्त्री जी मैदान में आ गए, ”संभव तो कुछ भी है, गुरुदेव। लोकतन्त्र में संभव तो यह तक है कि जितने यहूदियों को हिटलर ने मौत के घाट उतारा था और जिसे उसके कुक़त्य के लिए नरपिशाच बना दिया गया, उससे अधिक जापानियों को एटम बमों से भूनने वाला टूमन, तानाशाह तक न कहलाया, युद्ध अपराधियों तक में न गिना गया, जिस देश की यह करतूत थी वह छोटे बड़े पैमाने पर आज तक यही करता आ रहा है पर अमेरिका की ओर कोई उंगली तक नहीं उठाता।”
मैंने ताली बजाई, ”रिजाइन्ड।”
सुन कर दोनों चौंके। मैंने कहा, कमाल की तार्किकता है शास्त्री जी में। अब मैं मोदी और भाजपा और संघ की वकालत का काम इन्हें सौपता हूूं क्योंकि मैं तो अपनी सेवायें उनको सताया हुआ समझकर अर्पित कर बैठा था। मगर शास्त्री जी, जब आप इतने तार्किक ढंग से अपना पक्ष रख सकते हैं तो आपने पहले यह कमाल पत्रों पत्रिकाओं में अपना पक्ष रख कर दिखाया क्यों नहीं?”
”यह एक दुखद प्रसंग है। तानाशाही उसे कहते हैं जिसमें मारते तो हैं पर पिटने वाले को रोने की अनुमति नहीं देते, यातना के उग्रतर रूपों की याद दिला कर चुप करा देते हैं। हमारी वही दशा रही है। आपने एक बार कहा था, ”अंग्रेज, सच कहें तो नस्लवादी ईसाई यह मानते थे कि गुलामों के आत्मा नहीं होती इसलिए यदि उनको कितना भी पीडि़त किया जाय उससे पाप नहीं लगता, उनकाे पीड़ा तक नहीं होती। ठीक यही मानसिकता सत्ता, संचार और विचार के समस्त केन्द्रों पर अधिकार जमाने वालों की रही है जो इन्ही शब्दों में कहते तो नहीं, परन्तु ध्यान दें तो मानते रहे हैं कि हिन्दू आदमी नहीं होता। वह निर्वासित हो, उत्पीडित हो, उससे हास्य रस पैदा होता है और हास्य रस के इन प्रेमियों के बीच हमारी आह और चीत्कार तक के किए कोई कोना नहीं था। आज वे इसलिए व्यथित है कि जो आदमी है ही नहीं वह आदमी होने का दावा कैसे कर रहा है। वह अपनी वेदना को व्यक्त करने का अवसर कैसे पा रहा है।”
शास्त्री जी ने प्रसंग ही ऐसा छेड़ दिया कि मेरा मित्र भी उसका प्रतिवाद न कर सका। उठते हुए इतना ही कहा, ”गलतियां और लापरवाहियां तो कुछ हमने भी की हैं, नहीं तो यह दिन तो न देखना पड़ता।”