Post – 2016-07-12

”शास्‍त्री जी, आपको शिकायत है कि सभी पत्र पत्रिकाओं, संचार के सभी माध्‍यमों पर हमारा अधिकार हो गया, इसलिए आपके विचारों के लिए उनमें स्‍थान नहीं मिलता। इसका उपाय यह तो हो ही सकता था, कि अाप अपने पत्र पत्रिकाएं निकालें और उनके माध्‍यम से अपने विचार प्रकट करें। हमारे देश में पत्र पत्रिकाएं निकालने पर कोई रोक तो हैं नहीं।” मित्र ने कल की बहस से कड़ी जोड़ते हुए कहा।

”कोशिश कर रहे हैं, उस दिशा में भी कोशिश कर रहे हैं।”

”कोशिश आपने पहले भी की है। आपका एक पत्र अंग्रेजी में और दूसरा हिन्‍दी में निकलता ही रहा है, पर उसके पढ़ने वाले नहीं मिलेंगे।”

”संगठनों या दलों से जुड़ सभी पत्रों का यही हाल होता है, वह आपके दल का हो, या कांग्रेस का हो या हमारी विचारधारा का हो। सच तो यह है कि यदि इस दृष्टि से देखने चलेंगे तो पांचजन्‍य और आर्गनाइजर के पाठक दूसरे दलो और संगठनों के मुख पत्रों से अधिक मिलेगे। परन्‍तु मै साहित्यिक और वैचारिक पत्रों की बात कर रहा था ।”

”इसके दो कारण हैं। पहला यह कि बुद्धिजीवी, विचारक, साहित्‍यकार, कलाकार दुनिया को खंडित करके नहीं देख सकता। आप खंडित मानवता की बात करते हैं इसलिए बुद्धिजीवी और संवेदनशील व्‍यक्ति आपकी विचारधारा से जुड़ नहीं सकता। जिस उदात्‍त चेतना और कल्‍पना की पूंजी से साहित्‍य और कला का जन्‍म होता है वह न आपके पास है न मुस्लिम लीग के पास थी, न नाजियों के पास थी …”

शास्‍त्री ने रास्‍ता रोक लिया, ‘न कम्‍युनिस्‍टों के पास थी यह कहना आप भूल गए।
देखिए श्रीमान्, खंडित चेतना और खंडित मानवता की बात नहीं करते। हम उस परंपरा की बात करते हैं जिसमें सबसे पहले विश्‍वबन्‍धु, विश्‍वामित्र, सुबन्‍धु, जैसे नाम ऋग्‍वेद के समय से ही मिलने लगते हैं। जिसमें समस्‍त पर्यावरण के संरक्षण और परिवर्धन की चिन्‍ता थी। हम न बुरी बातें सुनना चाहते न बुरी चीजें देखना चाहते थे और बिना किसी का शोषण उत्‍पीड़न किए स्‍वावलंबी बन समर्पित भाव से पूर्णायु जीना चाहते रहे हैं। कभी वेद की वह ऋचा सुनी है:
भद्रं कर्णेभिः शृणुयाम देवा भद्रं पश्येमाक्षभिर्यजत्राः ।
स्थिरैरंगैस्तुष्टुवांसस्तनूभिव्र्यशेम देवहितं यदायुः ।।
हमने सर्वे भवन्‍तु सुखिन: सर्वे सन्‍तु निरामया, सर्वे भद्राणि पश्‍यन्‍तु मा कश्चित् दुखभाग भवेत का स्‍वप्‍न देखा था।”

मेरे मित्र ने अटटहास किया तो पेड़ों से परिन्‍दों के उड़ने की फड़फड़ाहट सुनाई दी। ”अरे शास्‍त्री जी यह खयाली पुलाव था। कभी सचाई में बदला क्‍या। कहां की बातें करते हैं।”

शास्‍त्री जी ने कच्‍ची गोलियां नहीं खेली हैं, ”सभी महान आदर्श कल्‍पना ही होते हैं। समानता, स्‍वतन्‍त्रता ओर बन्‍धुभाव भी कल्‍पना ही तो है। कभी चरितार्थ हुआ, परन्‍तु जब से कल्‍पना में आया इस दिशा में बढ़ने की प्रेरणा जगी, प्रयत्‍न आरंभ हुए, सताए हुए मनुष्‍य में भी यह विश्‍वास आया कि वह दूसरों की बराबरी पर आने का अधिकारी है और इस स्‍वप्‍न के बाद के संसार को देखें तो पाएंगे यह पहले की तुलना में कुछ उत्‍कृष्‍टतर हुआ है परन्‍तु इसके समानान्‍तर अवरोधी शक्तियों ने भी सक्रियता दिखाई है। यही हमारे इतिहास में भी हुआ, परन्‍तु हम उसके इस सूत्र को कभी भूले नहीं, अपनी प्रार्थनाओं में, लगातार शान्ति, सौहार्द, मैत्री के इन महावाक्‍यों को दुहराते हुए आत्‍म प्रबोधन करते रहे। आटोसजेश्‍चन। और यही कारण है विकृतियों को निर्मूल न कर पाने के बाद भी दूसरे किसी समाज में जिस तरह के सामाजिक दमन, उत्‍पीड़न प्रचलित रहे उसकी तुलना में हमारे यहां वही बुराई इतनी कम रही है कि उन समाजो का अनुभव रखने वाले हमारे समाज को देख कर चकित रह जाते थे कि यहां वह बुराई है ही नहीं।”

”शास्‍त्री जी, आप अपनी विकृतियों के इतने आदी हो चुके हैं कि वे न आपको आहत करती है, न ध्‍यान खींचती हैं। बदबू भरे परिवेश में लगातार रहने वाला व्‍यक्ति की घ्राणशक्ति खत्‍म हो जाती है।”

”यहां भी आपसे चूक हो रही है जनाब। कहना चाहिए था, गन्‍ध की उसकी परिभाषा बदल जाती है। गन्‍दगी के फर्मेंटेशन से जो मादकता पैदा होती है उसका आदी हो जाने के कारण स्‍वच्‍छ वातावरण उसे रास नहीं आता। कभी गन्‍दे सडे़ नाले के पास से गुजरते हुए ध्‍यान दीजिएगा एक्‍लोहल जैसी गन्‍ध की तो मेरी बात समझ में आ जाएगी और तब आपको समझ में आ जाएगा कि भारत के प्राचीन इतिहास में आप लोगों को घुटन क्‍यों अनुभव होती है, और विकृत समाजों के इतिहास पर आप इतने मुग्‍ध क्‍यों रहते हैं कि प्राचीन भारत के इतिहास को भी नष्‍ट करने लगते हैं । श्रीमान कभी आपने इस बात पर गौर किया है कि जैसे एक दौर में धर्मोन्‍मादियों ने हमारे मन्दिरो, उनकी कलाकृतियों, विद्यालयों को नष्‍ट किया ठीक उसी उन्‍माद से आप ने मार्क्‍सवादी इतिहास के नाम पर हमारी संस्‍क़ति को नष्‍ट करना आरंभ किया।

मेरा मित्र कुछ बोलने को हुआ पर शास्‍त्री जी पूरे जोम में थे, ”आप मुझे खंडित मानवता का प्रतिनिधि बताते हैं। आपका जो साहित्‍य है वह इ‍तना खंडित, इतना छोटा, इतना उथला है कि उसमें मजदूर को छोड़ कर पूरा समाज गायब है और मजदूर ही है जो आपके साहित्‍य से दूर भागता है क्‍योंकि वह जो भोगता है उसे आप जानते नहीं, जान भी जायं और उसे चित्रित भी कर लें तो वह अपने दूख से मुक्ति का उपाय करेगा या उसे दुबारा काल्‍पनिक स्‍तर पर भोग कर अपनी शाम खराब करेगा, इसलिए वह प्रेमिका की याद में गाने गाता है, होली कजरी गाता है और जिस मस्‍ती से गाता है उस मस्‍ती को भी आप नहीं समझ सकते। आप यथार्थ से कटे हुए, मजदूर का जीवन जिए बिना ही वातानुकूलित कमरों में बैठ कर उसकी उमस, घुटन और पसीने का कारोबार करते है़, पूरा दिन इनकम टैक्‍स बचाने और कम्‍पनियों के शेयर भाव की पड़ताल करते हुए उसके अभावो का बाजार भाव पता लगाते है, आप मुझे खंडित मानवता का प्रतिनिधि बताते हैं।”

अाप कला और साहित्‍य की इतनी बातें करते हैं और इनकी धेले की समझ नहीं। कला कागज का फूल नहीं है कि कहीं से खरीद लाए गुलदस्‍ते में लगा दिए। यह अपनी जमीन में पैदा होती है, जमीन से जुड़े लोगों द्वारा पैदा की जाती और इसकी गन्‍ध पर्यावरण में इस तरह फैली रहती है कि जो दूसरे कामों में व्‍यस्‍त रहते हैं उनको भी इसका कुछ न कुछ लाभ मिलता है। आप कहीं का पढ़कर, वहां रहे और गए और वह जीवन जिए बिना ही उस जैसा लिख कर उसके बराबर होना चाहते हैं और जहां सफल होते हैं वहां भी उससे इतनी ही बाहबाही पाते हैं कि देखो यह भी हमारे जैसा बनना चाहता है और काफी करीब आ गया है। पर इससे अधिक नहीं। उसके समाज में भी आपकी पैठ नहीं बन पाती, अपने समाज में भी पैठ नहीं बन पाती।

मै चुपचाप मजे ले रहा था, मेरे मित्र ने फिर कुछ बोलने का प्रयत्‍न किया परन्‍तु शास्‍त्री जी ने उसे रोक दिया, ”सुनिये, पहले सुनिये मेरी बात, आप की बातें मैने हजारों बार सुनी है, सभी एक ही बात कहते है, जैसे पाठ रट रखा हो, इसलिए मुझसे सुनिये, साहित्‍य और कला विषाद गाथा नहीं है, यद्यपि दुख और पीड़ा के लिए भी उसमें सदा से स्‍थान रहा है परन्‍तु उसे इकहरे और किताबी दुख के लिए नहीं, दुख और पीड़ा के असंख्‍य रूपों के लिए। करुण रस की महिमा से मैं इन्‍कार नहीं करता परन्‍तु कला ससीम को असीम से जोड़ने का, आह्लाद और लास्‍य की अकल्पित संभावनाओं के आविष्‍कार का भी माध्‍यम है। अपनी पराकाष्‍ठा पर यह विश्‍वसाक्षात्‍कार का रूप ले सकती है। आप ने उसे पंगु बना कर उसका बाजार खड़ा कर लिया और कहते हैं सबसे प्रतिभाशाली लोग आपकी ओर ही खिंचे चले आते हैं। वे सबसे प्रतिभाशाली नहीं, अल्‍प से बहु पाने और इसके लिए किसी तरह की मिलावट करने की योग्‍यता रखने वाले लोग होते हैं और ऐसों ही से तो आप का बौद्धिक वर्ग बना हुआ है। जो तत्‍वदर्शी हैं वह हमारे साथ हैं। वे यह देख कर अवाक् रह जाते हैं कि यह हो क्‍या रहा है। हम ऐसे लोगों को आमन्त्रित करने वाले हैं कि चकित और विस्मित होने की जगह सक्रियता दिखाइये और फैशनेबुल बौद्धिकता और कला साधना से आगे जाने वाली, अपने समाज से जुड़ने और उसे जोड़ने और जगाने वाली विचार साधना और कला साधना कीजिए।”

”जब अापको अपनी कल्‍पना का पहला बौद्धिक, पहला कलाकार मिल जाय तो उस नमूने को यहां ले आइयेगा। हम भी दर्शन कर लेंगे। आज तो आप किसी की सुनने वाले नहीं इसलिए राम राम, कहिए तो जैश्रीराम भी कह दूं।” वह उठ कर चलता