Post – 2016-07-12

बात अपने दिमाग की भी है

मैंने शास्‍त्री जी को कल जिस तर्कवागीश मुद्रा में देखा था, उसकी तो किसी संघी से उम्‍मीद ही नहीं थी। नहीं, गलत कह गया, मेरे मित्रों में स्‍वराज्‍य प्रकाश गुप्‍त भी रह चुके हैं जो निकरधारी संघी थे, और मित्र तो नहीं कह सकता, और वह संघ को यह कह कर गाली भी देते थे कि गधों की इतनी बड़ी जमात मैंने नहीं देखी पर कहते इसलिए थे कि वह संधियों से अधिक हिन्‍दुत्‍ववादी थे और जहां तक ज्ञान का मामला है उनके सामने मैं हाथ बांध कर खड़ा होता तो उचित होता पर सदा निर्वेद, निष्‍प्रभ उपस्थित होता था, क्‍योंकि आयु और ज्ञान ही नहीं शिष्‍टता में भी मेरे लिए अनुकरणीय थे, परन्‍तु जितनी मेरी समझ है, उसमें मैं उन्‍हें समझदार नहीं मानता था। वह मुझे मूर्ख समझते थे और पूरा मूर्ख भी नहीं समझते थे क्‍योंकि मेरी पुस्‍तक हड़प्‍पा सभ्‍यता और वैदिक साहित्‍य पढ़ने के बाद उन्‍होंने सराहना का पत्र भेजा और इच्‍छा प्रकट की कि उसका अंग्रेजी में अनुवाद होना चाहिए। मैंने उनके बारे में कुछ पता लगाया तो पता चला वह हिन्‍दुत्‍व केन्द्रित पुस्‍तके वायस आफ इ्रडिया से प्रकाशित करते हैं। मैं चुप लगा गया क्‍योकि मैं उन दिनों दिल से मार्क्‍सवादी था दिमाग से कोरा। कुछ दिनों बाद वह मेरे घर पहुंचे। मेरे सामने प्रस्‍ताव रखा कि वह स्‍वयं इसका अंग्रेजी संस्‍करण प्रकाशित करना चाहते हैं। मार्क्‍सवादी दूसरे मुखों से अलग होता है, दूसरे जहां मूर्ख होते हैं, मार्क्‍सवादी पवित्र मूर्ख होता है और किसी भी अपवित्र लगने वाले प्रस्‍ताव से सहमत नहीं होता। मैंने साफ मना कर दिया कि मैं किसी विचारधारा से जुड़े प्रकाशन से अपनी कोई कृति प्रकाशित नहीं कराना चाहता क्‍योंकि मूझे लगता है वह मुझे अपने काम का समझ कर मेरा उपयोग कर रहा है। मैं चाहता हूं मेरा प्रकाशक मेरी पुस्‍तक से अपना व्‍यापार बढ़ाने के उद्देश्‍य से प्रेरित हाे भले वह मेरा हिस्‍सा भी मार ले जाय। य‍दि ऐसा न होता तो पूजीवादी ब्रिटेन के सबसे पहले विनाश की बात करने वाले मार्क्‍स को अंग्रेजी में प्रकाशक न मिलते। मेरी नजर में आदर्श प्रकाशक वह था और आज भी है जिसे आप गालियां दे तो उनकी खपत को देखते हुए वह उसका भी कारोबार कर ले जाए।

इसके पीछे भी मेरी एक समझ थी जिसे समझ न माना जाय तो मुझे आपत्‍ि‍त न होगी। मामला एक आढ़ती से जुड़ा है। उसका एक मित्र था जिसका लड़का किसी काम से लग न पाया था। उसने कहा, इसे कल से मेरी गद्दी पर भेज देना। लड़का काम से लग गया। अगले दिन कोई व्‍यापारी आया। उसे कुछ बातों को ले कर शिकायत थी। वह अनाप शनाप बकने लगा। लाला चुप रहा। फिर वह गालियां देने लगा, लाला चुप रहा पर भतीजा अपने चाचा का अपमान कैसे सह सकता था। उसने उसकी जो तुर्की ब तुर्की की उसके बाद गाली देने वाला तो टिक ही नहीं सकता था, लाला ने अपने दोस्‍त को कहा, यह छोरा मेरे काम का नहीं। इसे वापस ले जाओ। छोरा हैरान उससे गलती क्‍या हुई थी। लाला ने कारण बताया और समझाया कि वह गालियां दे रहा था, कुछ दे ही रहा था न। ले तो नहीं रहा था। यह मेरी समझ से पूजीवाद का सिद्धान्‍त था और यह एक ‘राग निरपेक्ष विचार था और इसलिए वैज्ञानिक न भी, तो भी भरोसेमन्‍द तो था ही। इस सोच का ही परिणाम था कि मैं किसी भी विचारधारा से जुड़े प्रकाशन को अपने लिए विचारणीय तक नहीं समझता था।

मैंने वामपंथियों जैसी निष्‍ठुरता से और यह मर्यादा तक भूलते हुए कि मैं अपने घर आए किसी व्‍यक्ति से बात कर रहा हूं, दो दूक बात की तो वह बिना किसी क्षोभ या प्रतिरोध के बोले, मैं जिस प्रकाशन से इसे प्रकाशित करना चाहता हूं वह मेरे पु्त्र का है मेरे पौत्र के नाम है, उससे केवल दार्शनिक और विचारधारा निरपेक्ष पुस्‍तके ही प्रकाशित हुई हैं और आगे होंगी।

मन में अंग्रेजी में प्रकाशित होने की लालसा थी परन्‍तु उनका सुझाव था कि अनुवाद मैं ही करू़ॅ।

मैंने बताया, मुझे अंग्रेजी पढ़ना आता है लिखना नहीं आता। तो उन्‍होंने कहा, ‘अाप की हिन्‍दी का वाक्‍यविन्‍यास हिन्‍दी का नहीं, अंग्रेजी का है। आप प्रयत्‍न करें , अाप अंग्रेजी लिख सकते हैंं।

मैंने कुछ शर्तें रखीं। उनके हिन्‍दुत्‍ववादी प्रकाशन की पुस्‍तक सूची में मेरी पुस्‍तक का नाम न होगा। मंजूूर। मेरे लिखे में कोई त्रुटि हो तो उसे सुधारा जा सकता है, पर अलग से जोड़ा कुछ नही जा सकता।

गोयल जी ने मेरी सभी शर्ते मान लीं।

इसका ही परिणाम था मेरा दि वेदिक हड़प्‍पन्‍स जिसमें मैंने सोचा कि यदि अनुवाद मुझे ही करना है तो क्‍यों न अद्यतन जानकारी का समावेश करते हुए इसे नये सिरे से लिखा जाय।

इसमें पहले खंड की सामग्री समेटते हुए ही मुझे पसीना आ गया। अगले खंड का साहस ही न हुआ, परन्‍तु इतिहास के श्‍मशानसाधकों को इसके प्रकाशन के बाद ही ठोकरें खाने के बाद अक्‍ल आई।

फिर भी मैं जो कहना चाहता था वह कह ही न पाया। मिसाल के लिए प्रथम खंड के प्रकाशन के बाद दूसरे खंड की सामग्री को एक अलग खंड में प्रकाशित करने का काम।

और एक बात और याद दिला दूं। सीताराम गाेयल मुझे भी कई तरह की गालियां दिया करते थे। गाली का एक रूप वह था जो वह मेरे बारे में दूसरों से कहा करते थे, और दूसरा रूप था वायस आफ इंडिया द्वारा प्रक‍ाशित पुस्‍तकों को मुझे निरन्‍तर, बिना मेरेी रुचि के भेजते रहना। मेरे पास उनके प्रकाशन की सभी पुस्‍तके उपलब्‍ध हैं और उन्‍होंने यह जिज्ञासा तक नहीं की कि मैने उन्‍हें पढ़ा या नहीं। मिशनरी इसी तरह काम करते हैं।

मैंने अपनी मूल्‍यप्रणाली में शास्‍त्री जी का दर्जा उंचा कर दिया ।