सच कहो, सच के सिवा कुछ न कहो
”यदि मैं मानता कि जो मैं सोचता हूं वही ठीक है और इसके परिणाम वैसे ही होंगे जैसा मुझे दिखाई देता है, तो मैं अपने को बुद्धिमान भी समझता और दूसरों को अपने बताए रास्ते पर चलने को प्रेरित भी करता। फिर भी हमारे भीतर सही गलत की एक मोटी समझ होती है और वही हमें अपने कार्यों और विचारों के प्रति आश्वस्त करती है और हम आत्मविश्वास के साथ कुछ कहते, करते या फैसले लेते हैं। शास्त्री जी, आप सीता राम गोयल जी को जानते है?”
”उनको कौन नहीं जानेगा। फारसी, संस्कृत, हिन्दी, अंग्रेजी पर उतना अच्छा अधिकार किसी दूसरे का देखा नहीं। और हिन्दू मूल्यों के लिए जिस तरह वह समर्पित थे, वह भी किसी अन्य में दिखाई नहीं देता।”
”पर उनका चिन्तन और लेखन, ईसाइयों, मुसलमानों ने हिन्दू् समाज को कितनी क्षति पहुंचाई है, इसी तक सीमित था और यहीं तक सिमटा था उनका पूरा प्रकाशन। प्रकाशन में लाभ से अधिक अपने विचारों के प्रचार की चिन्ता, रहती थी अन्यथा हजारों की पुस्तकें मुझ जैसे अनमिनत लोगों को वह बिना मांगे, बिना मोल लिये क्यों भेजते रहते। मैंने कभी इस विषय पर उनसे बात नहीं की कि इस विचार के प्रसार से वह करना क्या चाहते हैं, केवल यह जानता था कि इससे जिस तरह का द्वेष भाव पैदा होगा उसकी परिणति गृहकलह में होगी। गृहकलह पैदा करके समाज को अस्थिर रखने की योजना शत्रु देशों की होती है? हम एेसा करके शत्रु देश की मदद करेंगे या अपने देश और समाज की सेवा करेगे। अन्याय हुआ यह जानने के लिए बहुत अधिक पढ़ने जानने की जरूरत नहीं है, इसे समझ कर आगे बढ़़ना और यह सुनिश्चित करना कि भविष्य में ऐसा न हो या इसे नियन्त्रित किया जा सके यह मेरी समझ से एक देशभक्तढ का काम होना चाहिए और यही सोच कर मैं उनके इन प्रयासों की उपेक्षा करता रहता था। एक बात बता दूं कि उनका संबन्ध कभी कम्युनिस्ट पार्टी से और बाद मे सीअीईए से रह चका था और बाद में भी विदेशी हिन्दुत्व कातर बन्दे उनके संपर्क में रहते थे। जब देखता हूं आप लोग भी उसी तरह की सोच रखते हैं तो मुझे आपकी देशभक्ति पर भी सन्देह होता है।”
शास्त्री जी ऐसे विषयों पर अपना पक्ष पहले से रखते आए हैं इसलिए वह मेरे प्रश्न से विचलित नहीं हुए, ”देखिए डाक्साब, आप हमें और मुझे लगता है सीताराम जी को भी समझने में आप भूल कर रहे हैं। उनके संपर्क में अनेक मुस्लिम विद्वान भी थेए बेशक वे शिया थ्ीे। किसी से द्वेष नहीं रखते। हम अन्याायी नहीं हैं, न अशान्ति पैदा करना चाहते हैं। उसी मध्य काल में हिन्दू राजाओं ने अपनी मुस्लिम प्रजा से, उनके खतरे में पड़े बाल बच्चों के प्राण और सम्मा्न को बचाने के लिए जो किया है और कई बार तो कुर्वानियां दी हैं, उनको शरण देने के मानवीय कार्य के चलते स्पयं अपने प्राणों की आहुति दी है। यह भी देखने वाला कोई हो तो उसे समझ में आएगा कि हिन्दू् आत्मरक्षा के लिए संगठित होते है और रहना चाहते हैं और वे उपद्रव के लिए संगठित होते हैं और इस स्व भाव को बदलना नहीं चाहते। उनके खुराफात पर भी उनके बुद्धिजीवी चुप रहते हैं और हमारे मुंह से एक गलत शब्द भी निकल जाय तो आप सभी तूफान मचा देते है।”
मेरा मित्र इसी समय पधारा परन्तु वह बिना कुछ बोले शास्त्री जी के दूसरी ओर कुछ इस सावधानी से बैठ गया कि हमारी चर्चा में व्यवधान न पड़े। शास्त्री जी का अन्तिम वाक्य उसके कान में पड़ गया था, इसलिए एक बार कुछ कहने को मुंह खोला और फिर बन्द कर लिया। शास्त्री जी का मुंह मेरी ओर था इसलिए वह इसे लक्ष्य नहीं कर सकते थे लेकिन मैं उनकी ओर देख रहा था इसलिए यह दीख गया। मैंने ही उकसाया, ”हां, हां, कुछ कहना चाहते थे तुम। बोलो।” सच तो यह है कि मुझे अभी कोई सही जवाब सूझ नहीं रहा था, इसलिए सोचा बात उस पर टाल दूं।
उसने बड़े अनमने भाव से कहा, ”नहीं, मैं कहना कुछ नहीं चाहता था। सिर्फ यह याद दिलाना चाहता था कि हमने न अपना स्वभाव बदलने की दिशा में कोई काम किया न उसका स्वभाव बदलने की दिशा में।”
शास्त्री जी ने ठहाका लगाया, ”क्या बात करते हैं साहब। हमारे संगठन का तो जन्म ही कटु अनुभवों से हुआ है। हमने अपने स्वभाव के अनुसार उनकी भावनाओं काे अपने अनुकूल करने के लिए खिलाफत आन्दोलन को अपना आन्दोलन बना लिया और हमे मोपला खिलाफत का पुरस्कातर मिला – अपमान, धर्मान्तशरण और निर्मम हत्याएंं और उत्पीड़न। इनका साथ दो तो यही मिलता है। समझे आप । ”
मेरा मित्र उस आन्दोलन के विषय में कुछ जानता था, उसने कहा, ”शास्त्री जी यदि आप उत्तेजित न हों, धैर्य से मेरी बात सुनें और उसके बाद कुछ कहें तो उस पर विचार करूूंगा क्योंकि यह बहुत गंभीर मसला है, हमारे गले की हड्डी बना हुआ है। नहीं, हड्डी नहीं, आप तो शाकाहारी हैं, इसलिए प्रेमचंद ने गले में फसा सोने का हंसिया प्रयोग किया है। बनारस के पंडितों ने यह आविष्काार किया होगा। तो कहिए यह हमारे गले में फंसा सोने का हंसिया है जिसे न तो हम निगल पाते हैं न उगल पाते हैं। मोपला विद्रोह खिलाफत का ही हिस्सा था। तब संचार के साधन बहुत दुर्बल थे। मुसलमान जो जीरो टाइम को अपना वर्तमान बना कर या अपने वर्तमान को जीरो टाइम में पहुंचा कर आज की सभी सुविधाओं का मजा लेते हुए जीना चाहते हैं, दिमागी तौर पर खोखले हैं, उनके दिमाग में कुछ भी भर दो वे उसी पर जान देने और दूसरों की जान लेने को तैयार हो जाएंगे। आन्दोेलन ब्रितानी राज्य् के विरोध में आरंभ हुआ था। उनके शत्रु अंग्रेज थे । उन्होंने उन्हेे मारना काटना शुरू किया। अंगेजो ने हमरी ही भेद नीति को हमसे अधिक समझा था और उन्होंने यह देखते हुए कि इस आन्दोलन को शक्ति प्रयोग से दबाने के परिणाम उल्टें होंगे यह प्रचारित किया कि अंग्रेज खिलाफत आंदोलन के डर से भाग खडें हुए। अब हिन्दुस्तान पर खलीफा का राज्य कायम हो चुका है। अब तुम्हें पवित्र इस्ला्मी राज्य स्थापित करना है, और वह आक्रोश हिन्दुओं की ओर मुड गया। और फिर वे नृशंस कृत्य हुए इससे मैं भी इन्काार नहीं करता। मैं सिर्फ यह कहना चाहता हूें कि अंग्रेजों ने उनको समझा, उनकी कमजोरियों को समझा और अपने प्रतिशोध में बल प्रयोग की जगह बुद्धि का प्रयोग करते हुए उनके क्रोध को हिन्दुंओं की ओर मोड़ कर सुरक्षित हो गए। क्या हमने ऐसी समझदारी कभी दिखाई। उनके दिमाग को बदलने का और सच तो यह है कि अपने दिमाग को बदलने का कोई गंभीर प्रयत्न किया?”
शास्त्री जी भिड़ गए, ”श्रीमन्, आपने तो अपने बारे में मेरी धारणा ही बदल दी। पहली बार लगा कि आपको भी इस देश और समाज के हित की भी चिन्ता है। मैं तो समझता था कि आपको सिर्फ क्रान्ति की चिन्ता है जिसके लिए आप किसी तरह का उचक्कापन कर सकते हैं, कोई बयान दे सकते हैं और किसी की जबान काट सकते हैं और जब पता चले कि क्रान्ति तो हो ही नहीं सकती तो भ्रान्ति को भी तीन चौथाई क्रान्ित मानते हुए इसके प्रसार के लिए खुली जबानों को कुछ और खोलने की जंंग लड़ सकते हैं। मैं आपको यह सूचित कर दूं कि अपने अनुभवों से हमने सीखा और बदला है और बदला अपनी परंपरा के अनुरूप ही है। इस बदलाव से संघ का जन्म हुआ जो प्रचारतन्त्र पर आपके एकाधिकार के कारण कुत्सित लगता है, परन्तु यदि वैज्ञानिक मानको का सहारा लें तो आप कुत्सित दिखाई देते हैं। ये ऐसे प्रश्नत हैं जिन पर असमापी विवाद हो सकता है। मैं आपकी मदद करते हुए केवल यह निवेदन करन चाहता हूं कि आप लिख कर मुझे दे दें कि मुसलमान जाहिल होते हैं, उन्हें कोई भी बहका सकता है, वे आधुनिक सुविधाओं को छोड़ना भी नहीं चाहते और हिज्रत और हज्रत के शून्य काल में भी जीना चाहते हैं तो मैं आपसे आगे कोई शिकायत न करूंगा। बोलिए, लिख कर देंगे आप?”
मेरे मित्र को इसी समय कुछ याद आ गया। ‘’अरे, मैं तो घर का ताला लगाना ही भूल गया।‘’ वह उठा और चलता बना।