हिरण्मयेन पात्रेण सत्यस्य अपिहितं मुखम्
“शास्त्री जी, बतकही की एक गंभीर सीमा यह है कि आप भूमिका बनाते हैं कुछ कहने की और बीच में कोई नया नुक्ता आ गया तो पूरी चर्चा उधर ही मुड़ जाती है।
“मैं आपसे यह कहना चाहता था कि शक्तिशाली शत्रु यदि हमारा अहित कर रहा हो तो भी हम उससे इस डर से शिकायत तक नहीं कर पाते कि कहीं रुष्ट हो कर वह भारी अनिष्ट न कर बैठे। कल तक ब्रिटिश सत्ता थी जिसकी चाल हमारे समाज को बांट कर, इतने छोटे छोटे टुकड़ों बिलगा कर रखने की थी, कि जरूरत पड़ने पर किसी का इस्तेमाल देशहित और इसलिए समग्र के हित के विरुद्ध किया जा सके और उसके बाद से घरेलू स्तर पर वही काम मिशनरी कर रहे हैं और उनके पीठ पीछे अमेरिका कर रहा है। इसमें सभी गोरे देश यदि सहयोगी नहीं हैं तो भी तब तक मौन समर्थक तो हैं ही जब तक उनके निजी हितों पर आंच न आती हो। यह हम जानते हैं, फिर भी न इसकी शिकायत कर पाते हैं न ही इसका सामना करने की तैयारी कर पाते हैं।”
”अपनी बात उदाहरण देते हुए समझाइये। अभी तक तो लग रहा है आप कठोर प्रश्नों का सामना न कर पाने के कारण विषयान्तर का सहारा ले रहे हैं। कल मैंने इन भाई साहब से कहा था कि आपने जो कहा था उसे चार वाक्यों में लिख कर दें तो यह भाग खड़े हुए और आज आप सोच रहें होंगे कि इसका जवाब आपसे न मांग बैठूं तो आप एक नई भूमिका तैयार कर रहे हैं।”
मेरा मित्र सुन कर मुस्कराता रहा पर बोला कुछ नहीं।
”देखिए कल की बात से हम कहीं पहुंचेगे नहीं। और इसने जो सभी मुसलमानों को दिमाग से खाली कह दिया वह लगता है आप से अपनी जान छुड़ाने के लिए जल्दबाजी में कह बैठा। इसीलिए वह भाग भी खड़ा हुआ, क्योंकि उन आला दिमाग लोगों का नाम लेते ही इसका दिमाग खाली तो नहीं, पर भूसा भरा जरूर नजर आता जो इसकी असलियत भी है।
”मैं यह कह रहा हूं कि शक्तिशाली और साधन-संपन्न लोग अच्छे से अच्छे दिमाग के लोगों का इस्तेमाल कर ले जाते हैं, सुलझे से सुलझे समाज में गलाकाट शत्रुता पैदा कर लेते हैं। हम या तो उन पर सन्देह नहीं करते या सन्देह होता भी है तो आनाकानी कर जाते हैं, क्योंकि हमारे कई तरह के हित उनसे जुड़े होते हैं जिनमे धन और मान, पद और अधिकार भी आता है। यह कोई नया तरीका भी नहीं है, हमारे लिए तो कम से कम चाणक्य के समय तक पुराना, या चाणक्य ही क्यों, बुद्ध के समय तक पुराना तो है ही। चाणक्य ने तो आटविक जनों को भी धन, मान दे कर उस देश के विरुद्ध करते हुए उसका घात करने की सलाह दी है जो धमान्तर के अतिरिक्त बन्धन और निष्ठा के द्वारा किया जा रहा है – आटविकानां अर्थमानाभ्यां उपगृह्य राज्यं अस्य घातयेत् । दूसरे बहुत से उपाय है जिन्हें अधिक योजनाबद्ध रूप में किया जा रहा है, एक एक को भड़काने के लिए। मादक द्रव्यों के प्रयोग से पूरी आबादी को बर्वाद कर देने के आयोजन के पीछे कौन है पता नहीं चलता। मुझे तो नाम भी भूल जाता है, पर आपको याद होगा कि बुद्ध ने किसी गण के विषय में कहा था जब तक उनमें एका है तब तक उनको पराजित नहीं किया जा सकता और फिर जो हुआ था वह भी आपको याद ही होगा।”
”तो मैं कह रहा था कि हमारे देश में भिन्नताओं के बावजूद एक अविरोध या निर्वैरता का वातावरण था। एक ढीला ढाला जुड़ाव था जिसमें टकराहट नहीं पैदा होती थी और ढीलेपन के कारण नम्यता और समायोजन क्षमता बनी रहती थी। जिस मध्यकाल के विषय में आपको हमको बहुत सारी शिकायतें हैं उसमें सत्ता में बैठे लोगों ने, मुल्लों, मौलवियों, नवाबो, राजाओं और उनके सिपहसालारों ने जो भी अत्याचार किए हों, आम जनता के बीच कभी धार्मिक सवालों पर तनाव नहीं हुआ। कभी झगड़ा फसाद नहीं हुआ, यह अंग्रेजों के आने के बाद उनके शासित प्रदेशाे से शुरू हुआ, देसी राजाओं के शासन में वह तब भी नहीं होता था। दंगा या रायट शब्द हमारे लिए अपरिचित थे, हाँ अखाड़ा और दंगल से हम अवश्य परिचित थे। बहुत सी बातों को लेकर आपस में झगड़े भी होते थे। अखाड़ों , मठों और पंडों के बीच आपस में ठनी रहती थी पर उनसे उनके जजमान तक अप्रभावित रहते थे। मुझे इस्लाम का इतिहास मोटा मोटी ही मालूम है पर जिन देशों मे इस्लाम फैला उनमें भी ऐसा होता नहीं था। ”
“होता कैसे जब दूसरे धर्मों का कोई जीवित बचता ही नहीं था।”
“ऐसी बात आप कहेंगे तो हैरानी होगी । पहले झटके में या कहें शुरू में जो बल प्रयोग हुआ सो हुआ, पर उनमें कोने अँतरे में जो भिन्न विश्वास के लोग बचे रहे वे अपने ढंग से जीते रहे । इंडोनेशिया मलयेशिया, म्यामार, यहां तक कि ईरान में भी जहां से अपना धर्म बचाने की चिन्ता में पारसी भाग आए थे। मुझे तो ऐसा लगता है कि एक दो अपवादाें को छोड़ दें तो कोई भी ऐसा मुस्लिम देश न होगा जिसमें भिन्न मत के लोग न रहते रहे हों। हां यह दूसरी बात है कि उनको बराबरी का हक न मिलता रहा हो। वह तो किसी समाज में नहीं था। समानता आदि की अवधारणाएं नई हैं और करनी में जैसा भी हो पर इसे व्यापक स्वीकार्यता दिलाने में मार्क्सवाद की भूमिका अधिक प्रभावी रही है। यह जो तबलीग आदि का बुखार धार्मिक कट्टरता पैदा करने के लिए आरंभ हुआ वह भी उस बडे़ षड्यन्त्र का ही हिस्सा है जिसके तार दूसरों के हाथ में हैं। यह मेरी अपनी समझ है, पता नहीं कहां तक सही।
”हां एक बात मेरे मित्र ने मुसलमानों के दिमाग के बारे में ठीक ही कही थी। यदि आप लिख कर लेना चाहें तो नोट करते जाइये मैं अन्त में दस्तखत कर दूंगा। मुखलमानों में कठमुल्लों का आतंक इतना जबरदस्त रहा है कि इससे बादशाह भी घबराते रहे हैं। अलाउद्दीन के बारे में सुना है, उसके आगे मुल्लों कठमुल्लों की नहीं चलती थी और अकबर ने उनके चंगुल से निकलने के लिए ही दीन इलाही का उपाय किया था जिसमें अबुल फजल और फैजी के पिता की बहुत कारगर भूमिका थी। जाहिर है, मुस्लिम बुद्धिजीवी भी इनसे लगातार डरते, घबराते रहे हैं और इसलिए उनकी बौद्धिकता का मुस्लिम समाज को कोई लाभ नहीं मिला, एक तरह से कह सकते हैं यह गुलाम समाज है। अपने ही मुल्लों और मौलवियों का गुलाम जिनसे विद्रोह करने की किसी की हिम्मत नहीं होती और फिर कुरान की दुहाई अलग अलग लोग अलग अलग देते हुए अपने को प्रासंगिक और स्वीकार्य बनाए रखने का प्रयत्न करते हैं। एक समय ऐसा था जब वेद को भी स्रष्टा से उत्पन्न मान कर आप्त बनाने का प्रयत्न हमारे यहां भी हुआ था। चल नहीं पाया क्योंकि तार्किकता का हनन किसी चरण पर किया न गया।
”वेद हमारे लिए पूज्य है, पर मान्य नहीं, कुरान उनके लिए पूज्य नहीं है पर मान्य बना हुआ है। जरूरत उसे अपने समय की अपेक्षाओं के अनुसार सम्मान देते हुए उसकी कैद से बाहर आने की है। गुलाम लोग स्वतंन्त्रता, समानता और बन्धुता का न अर्थ समझ सकते हैं न सम्मान कर सकते हैं। मुस्लिम समाज को आधुनिकता की अपेक्षाओं के अनुसार नई चेतना से लैस करने का एक बहुत जरूरी काम पड़ा हुआ है और इसमें उनके मुल्लों की आड़ में वे ताकतें हैं जो उनकी खनिज संपदा को पूरी तरह अपनी मुट्ठी में करने के लिए उन्हें असुरक्षित और कलंकित बना कर रखना चाहती हैं और मध्यकाल से बाहर आने नहीं देना चाहतीं। उन्हीं के चंगुल में आप जैसे लोग भी हैं पर इसे आप समझते नहीं और आप तो ठहरे विद्वान आदमी मैं समझाना चाहूं तो भी आपकाे समझा नहीं पाऊँगा। आप बाहर निकलने का कोई न कोई तर्क जाल खड़ा कर लेंगे।”
”देखिए डाक्साब, मैं इतना ज्ञानी या कुशल तो नहीं हूं कि आपको समझा सकूं पर यह समझना तो चाहूंगा ही कि आपके ऐसा सोचने का आधार क्या है?”
”यही समझाने के लिए मैंने सीताराम जी का और उनके सीआइए सूत्र का और उनके और संघ के माध्यम से हिन्दू चेतना वाले लोगों के बीच पैठ बनाने वाले विदेशी विद्वानों का उल्लेख किया था। यह काम बड़ी चतुराई से और एक लम्बा जाल बुन कर किया जा रहा है। इसमें बहुत सारे विशेषज्ञ भी काम कर रहे हैं। अमेरिकी पुरातत्वविदों में ऐसों की संख्या खासी है। विशेषज्ञता के दूसरे क्षेत्रों में भी लोग भरे हुए हैं। भारतविद व भाषाविज्ञानी ऐडविन ब्रायंट मुझसे मिलने 1994 में कभी आये थे तो उन्होंने कुर्ता, चप्पल, उनेउू पहन रखा था। मुझसे अच्छी हिन्दी बोल रहे थे जो सीखी हुई नपी तुली हिन्दी में होता है। उनके परिचय पत्र पर एक ओर हिन्दी में कोई हिन्दू नाम लिख रखा था और दूसरी ओर उनका असली नाम। एक विद्वान है जो दक्षिण एशियाई पुरातत्व में भी दखल रखते हैं, उनका नाम जार्ज एर्दोसी है, आज से दो दशक पहले की बात है, एफ आर आल्चिन उसके साथ एक ग्रन्थ संपादित कर रहे थे। उन्होंने बताया कि अब उनका नाम बदल गया है। उन्होंने इस्लाम कबूल कर लिया है। योजना शीतयुद्ध के उसी तरीके से चल रही है पर अब शत्रु भारत और पाकिस्तान सहित दूसरे मुस्लिम देश आ गए हैं। अाप को गर्व होगा कि हमारा हिन्दू धर्म या इस्लाम इतना गौरवशाली है कि दूसरे धर्मों के लोग इसे अपना रहे हैं, इसके गुन गा रहे हैं, पर असलियत यह है कि वे आपके अपने बन कर आपके हितों के विरुद्ध काम आपको उकसा कर, अधिक कट्टर हिन्दू या मुसलमान बना कर स्वयं किनारे खडे आप को एक दूसरे से लड़ाते हुए कर रहे हैं। आपको मुसलमानों से लड़ने की जगह किसी युक्ति से उन्हें साथ ले कर उनसे लड़ना होगा तभी आपकी मुक्ति है। मुसलमान जैसे भी हैं उनके साथ आप को रहना ही रहना है इसलिए समझ पैदा करके रहें। आज इस चाल को न समझने के कारण जाहिल दोनों है, मुसलमान जज्वाती अधिक होने के कारण आप से अधिक मुर्ख हैं परन्तु आपने तो पंचतन्त्र पढ़ा ही होगा। उसमें ऐसी अनेक कहानियां हैं। वे मुसलमानों को दरिंदा, खूंखार, विश्वशान्ति के लिए खतरा बता कर तेल उत्पादक देशों को अस्थिर, अपने ऊपर अधिक निर्भर रखना चाहते हैं और इस क्रम में एक दूसरे से लड़ाकर मिटाना चाहते हैं और आपके दुश्मन इसलिए हैं कि धर्मान्तररण् की आड़ में आपके देश में राष्ट्रहित विमुख और अपने धन और समर्थन पर निर्भर उपनिवेश तो नहीं पर प्रभावक्षेत्र बनाना चाहते हैं।”
”आप मुझे क्यों समझा रहे हैं डाक्साब, इन श्रीमान को समझाइये। इन जैसों को जो इस खेल में उनके साथ हैं और समझते हैं कि वे दुनिया को सेक्युलरिज्म का पाठ पढ़ा रहे हैं। इनको बताइये कि हम अन्यायी नहीं अन्याय के शिकार रहे हैं और आज भी हैं। बांटने और पैठ बनाने के उनके प्रयास में ये भी सहयोगी की भूमिका निभा रहे हैं। मुस्लिम बुद्धिजीवियों के बारे में आप अधिक जानते होंगे, हम तो अपने इन दिमाग से खाली और महत्वाकांक्षा से लबालब अपने बुद्धिजीवियों को नहीं समझ पाते। इनके कारनामों की ओर से तो आपने भी मुंह फेर रखा है।