Post – 2016-07-09

मध्‍यकाल से बाहर का रास्‍ता

आज वह मुझसे पहले ही पहुंच गया था। साथ में एक शास्‍त्री जी भी थे। मैं अभी नजदीक पहुंच रहा था तभी बोल पड़ा, ‘आ इधर आ तेरी सामत तुझे बुलाती है।’

बैठने के साथ मैंने हंसते हुए ही जवाब दिया, ‘अब तो लगता है तू सचमुच आदमी बन जाएगा। जिस आदमी को कविता करना आ जाय, उसकी जड़ता तो खत्‍म होने ही लगती है। बात क्‍या हुई, इतने उत्‍साह में दीख रहे हो?’

”पहले आप से मिलो, ये हैं शास्‍त्री जी।”

”मै जानता हूं शास्‍त्री जी को, और यह भी जानता हूं कि इनकी उपाधि नकली नहीं है, बल्कि गलत है।”

”क्‍या कहा?”

”कहा यह कि आप शास्‍त्री नहीं आचार्य हैं, परन्‍तु इनके शास्‍त्री होते ही लोगों ने इनकाे शास्‍त्री कहना शुरू कर दिया और इनको भी उसमें इतना मजा आने लगा कि किसी को रोका नहीं, कि भई शास्‍त्री मत कहो, अभी मैं आचार्य करने वाला हूं, साे शास्‍त्री नाम के साथ जुड़ गया आैर इनके प्रथम श्रेणी से आचार्यत्‍व प्राप्‍त करने के बावजूद, आचार्य जी कहलाने की प्रबल इच्‍छा के बावजूद, लाख धक्‍का देने पर भी शास्‍त्री टस से मस न हुआ। कई लोगों सेे भूल सुधारने का आग्रह किया, कि मै अब आचार्य हो चुका हूं, परन्‍तु सुनने वाले खुशी बांटने के लिए तालियां बजाते हुए दूसरो से कहते, देखा, शास्‍त्री जी ने आचार्य भी कर लिया ।” शास्‍त्री जी मेरी बात पर मुस्‍कराते रहे, न ‘हां’ कहा, न ‘ना’ और न कोई पादटिप्‍पणी जोड़ी।

उसी ने अचरज प्रकट किया, ”शास्‍त्री जी आप मुस्‍करा रहे हैं, कल तो आप इतने लाल पीले हो रहे थे कि लगा यह नामुराद मिल गया तो इसकी छुट्टी कर देंगे और इसकी बक बक से मुझे भी छुट्टी मिल जाएगी, लेकिन आज तो आप समझौता करने के मूड में आ गए हैं। इसने कुछ खिला पिता तो नहीं दिया, इसका कोई भरोसा नहीं।”

”अाप को तो मुझ पर भी भरोसा नहीं लगता और मुझे खाने पीने वालों में गिन लिया । वैसे खाने पीने के लिए बदनाम तो हम युगों से रहे हैं।’ वह मेरी ओर मुड़े, ” मैं तो आप का बहुत सम्‍मान करता हूं, परन्‍तु कल लगा यह किसी समस्‍या को गहराई तक समझे बिना ही दूसरों को सलाह देने के लिए बेचैन हो जाते हैं। अभिप्राय तो उत्‍कृष्‍ट ही होता है, पर अभिप्राय से क्‍या लाभ यदि उसके परिणाम निकृष्‍ट निकलें।”

वह उछल पड़ा, ”यह रहीं। अब बता भाई।”

मैं हंसने लगा, ”पहले उनको अपनी बात तो पूरी करने दो। अभी तो वह इरादों की बात कर रहे थे, जो किसी कथन या कार्य में प्रकट होते हैं, तुम्‍हारे पास अक्‍ल नहीं है, तो धीरज से तो काम लो, उस पर अक्‍ल भी खर्च नहीं होती।”

शास्‍त्री जी इस बीच चुप थे, फिर मेरी ओर मुड़े, ”यह बताइये आपने इस्‍लाम का इतिहास पढ़ा है ?”

मुझे मानना पड़ा कि मेरी जानकारी बहुत मामूली है।

‘कुरआन आपने कितनी बार पढ़ा है?”

”एक दो बार उलटा-पलटा है।”

”हदीस आपने पढ़ी है ? आप जानते हैं हदीस के कितने पाठभेद हैं ?”

”लोगों के मुंह से दो चार बातें सुनी हैं।”

”मुल्‍लाओं ने जो फतवे जारी किए हैं उनकी जानकारी तो होगी ही।”

”जब अखबार में छपता है कि अमुक ने अमुक बात पर अमुक फतवा जारी‍ किया है, तो जान लेता हूं फिर जैसा कि अखबारी सूचनाओं के साथ होता है भूल जाता हूं।”

”भारत का मध्‍यकालीन इतिहास आपने ध्‍यान से पढ़ा है, जिसमें कोई मुसलमान किसी का सगा नहीं होता था, कोई किसी पर विश्‍वास नहीं करता था, सुल्‍तानों का काल विश्‍वासघातियों की करतूतों से रंगा हुआ है और मुगल मुसलमानों पर भरोसा न होने के कारण राजपूत राजाओं को सेना का कमान देते थे और वे भी कहीं दगा न दे दें, इसलिए आधे मुसलिम सिपहसालार रखते थे। हिन्‍दुू प्रजा के साथ किसने क्‍या सलूक किया, यह तो मालूम ही होगा।”

इतनी बार नहीं करने के बाद कम से कम इस पर तो हां कर के बच ही सकता था, पर झूठ बोलने की आदत नहीं, इसलिए बताया कि मेरा सारा इतिहास ज्ञान प्राचीन काल तक सीमित है, बल्कि उसके भी वैदिक काल तक पर सच कहें तो केवल ऋग्‍वेदिक काल तक । दूसरे कालों के विषय में यहां वहां से कुछ क‍हानियां किस्‍से ही मालूम हैं।”

”गांधी जी ने मुसलमानों को अपना भाई बिरादर समझ कर खिलाफत के उनके आन्‍दोलन को कांग्रेस का आन्‍दोलन बना दिया और उसके बाद पता है क्‍या हुआ?”

”इसके बाद अंग्रेजों के दुष्‍प्रचार के कारण सुनते हैं बोराें के हाथों हिन्‍दुओं का नरसंहार हुआ था, जो गांधी जी को भी बहुत बुरा लगा था। लेकिन इसकी कोई खास जानकारी नहीं।”

”आपको पता है कि आज के दिन जितने भी राज्‍य ऐसे दलों के हाथ में हैं जो अपने को सेक्‍युलर प्रमाणित करने के लिए मुसलमानों को कुछ ढील देते हैं उनमे आतंकवादियों के अडडे बन जाते हैं, बम बनाने के कारखाने काम करने लगते हैं और जिनमें जनतादल का शासन है उनमें से किसी से कम से कम यह शिकायत सुनने कें नहीं आती।”

अब मुझसे जवाब देते ही न बना । चुप लगा गया। मेरे चेहरे पर मेरी परेशानी अवश्‍य अपनी छाप छोड़ रही होगी।

शास्‍त्री जी ने अब अपना मन्‍तव्‍य प्रकट किया, ”क्षमा करें, भगवान सिंह जी, आप वयोवृद्ध हैं, पर ज्ञानवृद्ध नहीं। आप मनुष्‍य बहुत अच्‍छे हैं, सबका भला चाहते हैं पर यह नहीं जानते कि सबका भला की परिभाषा में कसाई और गाय दोनों के भले में हमें एक को चुनना होगा। लिखने का अन्‍दाज भी मुझे आपका पसन्‍द है, लेकिन देखिए , बुरा मत मानिएगा, जब आप किसी चीज को अच्‍छी तरह जानते नहीं तो दूसरों को उपदेश्‍ा देने क्‍यों दौड़ पड़ते हैं। कम से कम चुप तो रह सकते हैं, चुप रहने से भरम तो बना रहता। इतना सारा बवंडर, एक थमा नहीं कि दूसरा, अरे साहब जिस काम की जानकारी नहीं है उसे कुछ सलीके से करने के लिए उन लोगों पर तो छोड़ ही सकते थे, जो इसकी अच्‍छी जानकारी रखते हैं।”

मेरा दोस्‍त खड़ा हो कर दोनों हाथ भांगड़े वाले अन्‍दाज में उठा कर नाचने लगा, और फिर तालियां बजाता हुआ बेंच पर वापस आ बैठा। उसके मन की मुराद बहुत दिनों बाद पूरी हुई थी।

मैंने बिना हत्‍प्रभ हुए सिर उठाया और हल्‍की मुस्‍कराहट के साथ कहा, ”मैं तो आपको केवल संस्‍कृत का विद्वान समझता था। वह भी आपके नाम के साथ जुड़ी उपाधि के कारण, नहीं तो मेरी संस्‍कृत की जानकारी भी वैसी ही है जैसी दूसरे विषयों की। मैं समय समय पर मित्रों को अपनी जानकारी की सीमा की याद दिलाता रहता हूं फिर भी जो सबसे आसान काम है, याने चुप लगा जाना, वह मुझसे सध नहीं पाता। आप ने मेरे गहन अज्ञान के बाद भी मुझे पढ़ा सुना है, यह आपकी अनुकंपा है। मैंने जो समय समय पर कहा है उसके कुछ सूत्रों का आप को स्‍मरण करा दूं तो संभव है हम एक दूसरे को समझ सकें और उनसे ही आपकी शंकाओं का भी निवारण हो जाय। मैंने जिन शब्‍दों या मुहावरो में इन्‍हें पहले कहा है ठीक उन्‍हीं में न दुहरा पाउूंगा:

” मैंने कहा था, ‘यह मत सोचो कि जब पूर्ण ज्ञान हो जायेगा उसके बाद ही अपने दिमाग से काम लोगे। पूर्ण ज्ञान कभी होगा ही नहीं। जितना भी ज्ञान है, उसी से काम लो, किसी दूसरों के कहने में न आओ। क्‍या आपने इसे ध्‍यान से सुना था?’

शास्‍त्री जी ने हामी भरी, और सहमत हो गए कि बात लाख टके की है।

”मैंने कहा था, इतिहास में बहुत जहर भरा है, (अमृत तो लोगों से बचने ही नहीे पाता)। यह तुम्‍हें तय करना है कि उस विष को शोधित पारे की तरह अपने उपयोग में लाना है, या उसे छोड़ देना है या उसका संग्रह और सेवन करना है।’ आपकाे यह कैसा लगा था?’

शास्‍त्री जी इस बार कुछ असमंजस में पड़ गए । मैंने आगे कहा, ”देखिए, आज जहर का भी बहुत बड़ा कारोबार है। पूरी पीढ़ी की पीढ़ी इसके पीछे पागल हो रही है और आत्‍मविनाश निश्चित है यह जानते हुए भी अपनी मौज मस्‍ती छोड़ना नहीं चाह रही। आप चाहें तो इतिहास से इसे मुफ्त उठा कर इसका कारोबार कर सकते हैं और रातों रात मालामाल हो सकते हैं। क्‍या आप इस कारोबार में जाना पसंद करेंगे ? या इस जहर का शोधन करके इससे विवेक और नई दृष्टि पैदा करना चाहेंगे ?”

शास्‍त्री जी का संशय पहले से अधिक बढ़ गया था। पर कुछ कराहते हुए स्‍वर में उन्‍होंने कहा, ”सुनने में तो ये बातें अच्‍छी हैं, परन्‍तु जो इतिहास नहीं है, वर्तमान है उसका क्‍या करें? आप कहते हैं मध्‍यकाल में बहुत कुछ अनर्थकारी हुआ उसे भूल जाओ, परन्‍तु यह जो मुस्लिम समाज है वह मध्‍यकाल से बाहर आना ही नहीं चाहता। पहले उसे यह डर था कि स्‍वतन्‍त्र भारत के लोकतन्‍त्र में बहुमत हिन्‍दुओं का होगा, शासन उनके हाथ में होगा, वे मध्‍यकालीन अत्‍याचारों का बदला लेंगे इसलिए शान्ति और सम्‍मान से जीने के लिए अलग राज्‍य जरूरी है, परन्‍तु अलग राज्‍य होने पर मध्‍यकालीन अत्‍याचारों को उन्‍होंने फिर दुहराया और आज भी दुहरा रहे हैं। उन देशों में हिन्‍दुओं के घटते अनुपात और उनकी दुर्दशा का कुछ तो पता होगा ही आपको। मैं इतिहास के जहर काे इतिहास में छोड़ आउूं पर इस वर्तमान में जीवित और बार बार दुहराए जाने वाले मध्‍यकाल से कैसे पिंड छुड़ाया जा सकता है? है कोई योजना आपके पास?’

एक क्षण को लगा, सारा उपदेश संदेश बेकार हो गया। मुझसे कुछ कहते न बन रहा था। मैंने एक लम्‍बी सांस ली, और कुछ संभला तो पूछा, ”मेरे पास तत्‍काल तो कोई योजना नहीं है, परन्‍तु आपके पास कोई योजना है? ऐसी योजना हो जिस पर अमल करके आप उनसे छुट्टी भी पा सकें और बचे भी रह सकें?”

”है क्‍यों नहीं, जैसा वे मुस्लिम बहुल देशों में करते हैं वैसा ही उनके साथ किया जाय ?”

मैंने कहा, ‘मुस्लिम देशों में लोकतन्‍त्र नहीं है, लोकतन्‍त्र में लाख कमियां हों, वह मानवीयता को नष्‍ट होने की बड़ी कीमत दे कर भी उसकी रक्षा करना चाहता है।”

”लोकतन्‍त्र हमें नहीं बचा सकता तो लोकतन्‍त्र ले कर क्‍या करेंगे?”

”आज के लिए इतना ही। आप लोकतन्‍त्र को नष्‍ट करके उनके मध्‍ययुग को अपना वर्तमान बनाना चाहते हैं। उन जैसा बन कर जिनसे आप को नफरत है, अपने को बचाना चाहते हैं। यदि आपकी योजना सफल हो जाये तो जीत तो उन्‍हीं योजनाओं की हुई जो आपको मिटाने के लिए तैयार की गई हैं। इसमें आप ही नही हैं, वे भी हैं जिनको आप मिटाना चाहते हैं पर सचाई यह है कि मिटाने वाला अदृश्‍य भी नहीं है फिर भी आप उसे देखने से इन्‍कार कर रहे हैं। वे भी इन्‍कार कर रहे हैं। मध्‍ययुग के औजारों से आधुनिक काल का युद्ध नहीं जीता जा सकता। मध्‍यकाल की समझ से आगे नहीं बढ़ा जा सकता। जो आधुनिक युग में पहुंच चुके हैं और शेष दुनिया को मध्‍य युग में रख कर उसी के अन्‍तर्कलह से उसे मिटाने पर आमादा हैं, और उनको मिटा कर अपने लिए जगह बनाना चाहते हैं असली लड़ाई उनसे है। इसके लिए आपको किसी के मध्‍यकाल में जाना न होगा, ऐसा उपाय करना होगा कि उन्‍हें उनके मध्‍ययुग से बाहर निकाला जा सके। ऐसा पर्यावरण तैयार करना होगा, जिससे उनके बुद्धिजीवी अपने समाज को बदलने के लिए काम कर सकें।”

”मेरी समझ में आप की गोलमोल बातें नहीं आई श्रीमान्।”

”जानता हूं, वज्रकूट दिमाग को पोरस होने मे समय लगता है। हम कल फिर बात करेंगे।”

शास्‍त्री जी मेरे मित्र के साथ बैठे रहे, यह पहला मौका था जब मुझे पहले उठना पड़ रहा था। क्‍या मैं समस्‍या से भाग रहा था?