अम्बेडकरवाद का मनोविश्लेषण
‘‘तुम जानते हो दलित गांधी से कितनी नफरत करते हैं !’’
‘‘नफरत का मनोविज्ञान जानते हो ?’’
‘‘नहीं जानता तो तुम समझा दो!’’
‘‘इसका कारण है तुम्हारा सड़ जाना! जिसने तुम्हारा लगातार उपकार किया हो या कम से कम कोई अपकार न किया हो, उसकी उदारता के दबाव में अपनी क्षुद्रता के बोध के कारण उसके प्रति कोई अक्षम्य अपकार कर बैठना, या उपकृत रहने की हीन भावना के कारण उूपर से सम्मान दिखाना पर मन ही मन अपमानित अनुभव करना और अपने ही अन्तःकरण के समझ अपराधी बन जाना!
”घृणा करने वाला अपने आप से घृणा करता है और डिफेंस मैकेनिज्म के चलते उसे इसका बोध हो इससे पहले वह उस पर इसका प्रक्षेपण कर देता है जिससे उपकृत रहा या अपनी तुलनात्मक लघुता का बोध अनुभव करता रहा । इसी का परिणाम हम अनेक मामलों में पाते हैं – जिस व्यक्ति ने किसी अनाथ को अपने पुत्र की तरह पाला, शिक्षित किया, उसे यदि इस बात की स्मृति बनी रहती है, या लालन पालन के दौरान किसी तरह यह भेद खुल जाता है कि वह अनाथ था, तो एक कुंठा भाव उसमें पैदा हो जाता है! अपने संरक्षक की दी हुई सुविधाओं का भोग करते हुए भी वह भीतर से खीझा रहता है, एेसे प्रस्ताव रखता है जिससे उसे कष्ट हो। तुमने ऐपल के अाचिष्कारक स्टीव जाब की आत्मकथा पढ़ी है? न पढ़ी है तो फिर ध्यान से पढ़ना और सोचना इतना प्रतिभाशाली व्यक्ति क्या ऐसा कर सकता था और फिर इस सचाई का सामना करना कि उसने ऐसा किया।
”कई बार पोषित अपने पोषक की हत्या तक कर देता है । यह इस कुठा से पैदा निष्ठुरता तो है, पर इसमें एक तत्व और मिल जाता है। उसकी संपत्ति को हड़प कर स्वयं स्वामी बन कर उससे उपकृत होने की हीनता से मुक्ति पाना। ऐसा उच्च शिक्षा प्राप्त पोष्यपुत्र भी कर बैठते हैं, इसलिए इसका ज्ञान और प्रतिभा से सीधा संबन्ध नहीं है, यह आवेग से जुड़ी समस्या है।’’
‘‘कहां का ज्ञान बघारते हो तुम? मैंने कई ऐसे बच्चे देखे हैं जो पोषितपुत्र रहे हैं और अपने अभिभावक पिता का पितृवत सम्मान करते रहे हैं।’’
‘‘कोई बीमारी महामारी का रूप ग्रहण करले तो भी शत प्रतिशत को नहीं होती। केवल उनको होती है जिनकी प्रतिरोध क्षमता क्षीण होती है। महत्वाकंक्षा, लोभ, यहां तक कि अपनी परनिर्भरता से मुक्ति की आकांक्षा भी इस मामले में प्रतिरोध क्षमता को कम करती है! अपने लिए सब कुछ या अधिकतम चाहने वालों को नैतिकता की चिन्ता नहीं होती।’’
”तुमको मेरी बात समझने में कुछ कठिनाई इसलिए होगी कि पहले में अपनी व्याख्या में एक निष्कर्ष निकाल चुका हूं और अब तुमको लगेगा मैं उसी को सही ठहराने के लिए मनोविज्ञान की सहायता ले रहा हूं। तुम्हें यह पता है कि मेरी बहुत पहले से मनोविज्ञान में रुचि रही है, परन्तु मैं उसका अधिकारी व्यक्ति तो नहीं हो सकता कि मेरे दावों को तुम स्वीकार कर लो, इसलिए मैं इंटरनेट से सुलभ निबन्धों और शोधकार्यों का अवलोकन करता रहा कि उसमें कुछ काम की सामग्री मिल जाय। मैं एक विश्लेषण के कतिपय सूत्रों को बिना अनुवाद किए तुम्हारे सामने पेश करना चाहूंगा। यह अध्ययन लगता है स्किनर्स को केन्द्र में रखते हुए घृणा के मनोविज्ञान को समझने के लिए किया गया था इसलिए यह घृणा पर आधारित किसी दूसरे आन्दोलन के चरित्र को समझने में सहायक हो सकता है।
Hate masks personal insecurities. Not all insecure people are haters, but all haters are insecure people. Hate elevates the hater above the hated. Haters cannot stop hating without exposing their personal insecurities. Haters can only stop hating when they face their insecurities.
Haters rarely hate alone. They feel compelled, almost driven, to entreat others to hate as they do. Peer validation bolsters a sense of self-worth and, at the same time, prevents introspection, which reveals personal insecurities. Individuals who are otherwise ineffective become empowered when they join groups, which also provide anonymity and diminished accountability.
Hate groups, especially skinhead groups, usually incorporate some form of self-sacrifice, which allows haters to willingly jeopardize their well-being for the greater good of the cause. Giving one’s life to a cause provides the ultimate sense of value and worth to life.
Hate is the glue that binds haters to one another and to a common cause. By verbally debasing the object of their hate, haters enhance their self-image, as well as their group status.
The life span of aggressive impulses increases with ideation. In other words, the more often a person thinks about aggression, the greater the chance for aggressive behavior to occur. Thus, after constant verbal denigration, haters progress to the next more acrimonious stage.
Each successive anger-provoking thought or action builds on residual adrenaline and triggers a more violent response than the one that originally initiated the sequence. Anger builds on anger.
पहले इस अंश को ध्यान से दो तीन बार पढ़ो और फिर तीन तथ्यों पर ध्यान दोः
1. यदि वर्णभेद या सामाजिक ऊँच-नीच का इतिहास बहुत लम्बा है तो इसके प्रतिरोध का इतिहास भी बहुत लंबा है। उदाहरण के लिए जिस ऋग्वेद में पुरुष सूक्त है, जिसमें वर्ण-विभाग का औचित्य गढ़ा गया है, उसी में सुजात, सजात और आपस में न कोई छोटा न बड़ा न मझला समझे जाने वाले गणों की प्रशंसा भी है जो इस विषय में सामाजिक कसमसाहट को प्रकट करती है। उपनिषदों का ब्रह्म और उसकी सर्वत्र व्याप्ति के तर्क से कौन किस जाति का है यह सोचा ही नहीं जा सकता !
”उपनिषदों के ही चरित्रों में सनक सनातन सनन्दन का चिर बाल रूप आता है जो काल की चिरन्तनता नित नवीनता और उसके भूत वर्तमान और भविष्य के रूप में पहचाने जाने का प्रतीक विधान है। इनके आगे विष्णु भी तुच्छ है और वह नारद भी जो निगुर्ण भक्ति के व्याख्याता हैं!
”उपनिषद का यह सन्देश कि जो सभी प्राणियों को अपने भीतर देखता और सभी प्राणियों में अपने को देखता है वह किसी से नफरत नहीं कर सकता, भारतीय मानस का अंग बन गया था, इसलिए सन्त आन्दोलन उन्हीं विचारों से प्रेरित है जिनका पुनराख्यान रामानन्द ने किया था। इसी प्रभाव में तुलसी को भी धर्मसंकट में कहना पड़ता है कि सियाराम मय सब जब जानी, करउं प्रणाम जोरि जुग पानी, जब कि वह वर्णवाद को और कर्मकांड का समर्थन करते हैं। ब्रह्मसमाज जिसने उपनिषदों से प्रेरणा ली थी, आर्य समाज जिसने वेदों के वर्णवदमुक्त समाज को आधार बना कर यह प्रचारित किया था कि जाति, वर्ण, कर्मकांड और दूसरी कुरीतियों – बाल विवाह, विधवा विवाह, मूर्तिपूजा, परदाप्रथा , स्त्री शिक्षा का निषेध – शामिल था। प्रार्थना सभा में वर्णवाद के लिए जगह नहीं थी। अम्बेडकर की नजर तो वेद तक जाती है, दूसरी सभ्यताओं में सामाजिक स्तरभेद की ओर जाती है परन्तु अंबेडकरवादी इतिहास में पेरियार और ज्योतिबा फूले से पीछे का इतिहास लुप्त है। यह ईसाई पहल में भारतीय समाज को तोड़ कर जो बेघर हो जाएं उन्हें अपनी झोली में भरने के लिए पैदा किए गए कुटिल द्रोह से आरंभ होता है जिसे सही विद्रोह भी नहीं कहा जा सकता।
हम कह सकते हैं कि उन प्राचीन अवस्थाओं से वर्णवाद के विरुद्ध अभियान जारी रहा तो यह बुराई बनी क्यों रह गई ?’’
” इसका उत्तर पुनः एक प्रश्न के रूप में ही सामने आता है कि इस दूसरे दौर की खलबलाहट के बाद भी यह बुराई खत्म क्यों नहीं हो रही ? और इसके बाद उत्तर इन दोनों के समाहार से तैयार होगा कि समस्या बहुत गहरी है! इसे बनाए रखने में उनकी भी सक्रिय या निष्क्रिय भूमिका रही है जो अपने को इससे प्रताडि़त अनुभव करते हैं। साथ ही कुछ मानव स्वभाव की सीमाएं हैं और जो सामाजिक स्तरभेद को मिटाना चाहता है उसे इसके इतिहास, इसके समाजशास्त्र और इसके मनोविज्ञान का गहराई से विवेचन करना होगा जिस दिशा में कोई प्रयत्न हुआ ही नहीं। निदान गायब, दवा चालू और दवा सही दवाई भी नहीं, कुछ दो कुछ दो और जल्दी दो की है!
अब इस पृष्ठभूमि में उक्त सूत्रों का विश्लेषण करो तो इन प्रश्नों का उत्तर तलाशने का प्रयत्न करो किः
1. अम्बेडकर का स्वयं अम्बेडकरवादियों से क्या संबंध है?
2. अंबेडकरवादियों का इतिहासबोध क्या है और वस्तुबोध क्या है ?
3. उनकी भाषा में गालियों और भर्त्सनाओं का अर्थ क्या है?
‘‘इसके बाद भी जो बातें तुम्हारी समझ में नहीं आएंगी उनको कल समझने का प्रयत्न हम दोनों मिल कर करेंगे! मंजूर?’’
‘‘मंजूर!’’