Post – 2016-07-03

वह विषपायी शिव से बड़ा था
”तुम संक्षेप में बता सकते हो कि गांधी और अंबेडकर में क्‍या अन्‍तर है।’
‘नहीं। संक्षेप में फतवे दिए जाते हैं, या समान ज्ञान और अनुभव वाले व्‍यक्ति से बात हो पाती है, सामान्‍य संवाद में संक्षेप में नहीं, अनावश्‍यक विस्‍तार से बचते हुए ही बात की जा सकती है।”
”तुम बात बात में सिद्धान्‍त बघारने लगते हो और उसमें बहुत समय चला जाता है।”
”यदि तुम सिद्धान्‍त से परिचित हो तो यह अनावश्‍यक विस्‍तार माना जाएगा। यदि नहीं तो सिद्धान्‍त को समझ लेने पर अल्‍पतम श्रम से किसी विचार को स्‍पष्‍ट किया जा सकता है। दुखद स्थिति यह है कि आज के प्रबुद्ध कहे जाने वाले लोग भी तर्क, प्रमाण, औचित्‍य और सिद्धान्‍त की चिन्‍ता किए बिना पूर्वाग्रहों या अफवाहो के आधार पर बात करने लगे हैं और ऐसे विचारों के लिए तैयार बाजार में अपनी गहरी पहुंच देख कर इस बात से सन्‍तुष्‍ट भी अनुभव करते हैं कि वे सार्थक और समयोचित हस्‍तक्षेप कर रहे हैं। इनसे बचने का बवच है सिद्धान्‍त की समझ और उसका निरूपण। पूर्वाग्रह, आत्‍मरति और भावुकता से बचने का एक ही तरीका है कि हम उस प्रकृति को समझे जिसके तर्क और दबाव में कोई काम होता है। इसी का दूसरा नाम सिद्धान्‍त निरूपण है। ”
”मैं इस बहस में नहीं पड़ूंगा, तुम विषय पर आओ। बता सकते हो गांधी और अंबेडकर में क्‍या अन्‍तर है।”
”सूत्र रूप में कहें तो गांधी ने मानव समाज को सुखी और गरिमामय बनाने के लिए अपना सब कुछ उत्‍सर्ग कर दिया.परन्‍तु उसके बदले उन्‍हें आजीवन उन लोगों से घृणा मिली जो अपने लिए सब कुछ पाना चाहते थे या सत्‍य की आवाज को दबाना चाहते थे, लोगों को गुमराह करके उनका अपने लिए इस्‍तेमाल करना चाहते थे। ऐसे लोगों की लंबी सूची है, अंबेडकर उनमें से एक हैं। अंबेडकर उनका सम्‍मान करते थे यह मेरा विश्‍वास है, परन्‍तु उसके एक क्षुद्र अंश पर एकाधिकार करने में उन्‍हें बाधक पा कर उनसे मन ही मन घृणा और मुखर रूप में विरोध करने लगे।”
”क्‍या कहते हो तुम ।”
”जनता से मिले अपार सम्‍मान के कारण बाद में भी वह उनका आदर भी करते थे और उनसे घृणा भी करते थे।”
वह हंसने लगा, ‘आदर भी करते थे और घृणा भी करते थे। तालियां ।’
‘प्रेम और घृणा, ये दो मानव आवेगों में सबसे प्रबल हैं और आवेगों के उत्‍तरी और दक्षिणी ध्रुव हैं, एक ही चुंबक के अनिवार्य सिरे हैं। उत्‍कट प्रेम को उत्‍कट घृणा में बदलने के लिए सिर्फ एक झटका चाहिए कि अापका प्रिय आप काे अपना सर्वस्‍व नहीं सौंप सकता, या आप जिसके प्रेम में पागल हैं, वह आपको प्‍यार नहीं करता, या वह आपके अतिरिक्‍त किसी अन्‍य को भी प्‍यार करता है। फिर तो वह उत्‍कट प्‍यार उतनी ही उत्कट घृणा में बदल कर कोई भी अनर्थ कर सकता है।
”प्रेम, घ्‍ाृणा, भक्ति, श्रद्धा आदि में जो सर्वनिष्‍ठ है वह है तर्क और बुद्धि का लोप। जो मानते हैं उससे अलग कुछ सुनने तक को अपना अपमान समझना। इनमेंं बुद्धि से केवल इतना ही काम लिया जाता है कि अाप अपनी मान्‍यता के अनुरूप साक्ष्‍यों की तलाश करते हैं और उसी का इतना विस्‍तार कर लेते हैं कि दूसरे पक्ष तिरोहित हो जाते हैं। गांधी ने जिस दिन भारतीय स्‍वतंत्रता आन्‍दोलन का नेतृत्‍व संभाला तब से उनके सामने देश का दुखी प्राणी था जिसके पास तन ढकने को पूरे कपड़े नहीं, पेट भरने को पूरा भोजन नहीं, उपवास और फांकों से आए दिन जूझना, उसकी जाति और धर्म कोई हो। गांधी ने बिना इसका दावा किए और कभी कभी तो जवाब देते हुए उसी स्‍तर पर अपने को ला कर देश का नेतृत्‍व संभाला। इससे पहले अफ्रीका में भी उन्‍होंने कभी उपवास को हथियार के रूप में काम में लिया था इसका पता लगाना होगा। शायद नहीं। साप्‍ताहिक उपवास, प्रतिरोध के रूप में उपवास, आधे तन की धोती, पगड़ी को छोटा कर गांधी टोपी, और जीवन में अविश्‍वसनीय सादगी, अपनी गन्‍दगी को स्‍वयं साफ करने की जिम्‍मेदारी। गांधी को तुम टुकड़ों में बांट कर नहीं समझ सकते। गांधी की राजनीति पीर हरने की राजनीति थी, सत्‍ता पाने की राजनीति नहींं और इसमे इतनी ताकत थी कि पूरा मारतीय समाज उसके एक इशारे पर आन्‍दोलित हो जाता था, इसलिए ब्रितानी राजनीति स्‍वतंन्‍त्रता आंदोलन को कमजोर करने के लिए इंग्‍लैंड में शिक्षा के लिए मेधावी युवकों को गांधी के प्रति उच्‍चाटन और कांग्रेस के कार्यक्रमों को उनके भाग्‍योदय में बाधक बताते हुए उनके कान भरने काे अपनी शिक्षा प्रणाली का अंग बना चुका था, इसलिए शिक्षा के लिए पहले विश्‍वयुद्ध के बाद जाने वाले तरुण यदि मुस्लिम हुए तो अधिक कट्छर और अपने संप्रदाय की चिन्‍ता से कातर हो कर लौटते, अन्‍यथा कम्‍युनिस्‍ट बन कर आते। अंबेडकर अपवाद थे। पर उनके भीतर गांधी के हिन्‍दु होने और वर्णसीमा के प्रति खुला विद्रोह न करने का संकेत दे कर उनके अछूतोद्धार के प्रयत्‍न को या तो पाखंड बताना या अव्‍यावहारिक सिद्ध करना आसान था। भारत में मिशनरियों द्वारा वर्ण विरोधी तेवर वाले जुझारू नेता पैदा करने में उन्‍हें सफलता मिल चुकी थी। मैं इस के सकल प्रभाव में अंबेडकर की पीड़ा, सरोकार, आकांक्षा और निजी महत्‍वकांक्षा को रख कर ही उनके आचरण और व्‍यवहार को समझने का प्रयत्‍न करता हूं और उनको असंगतियों और विसंगतियों का पुंज पाता।”
”मैं समझा नहीं, तुम कहना क्‍या चाहते हो। मुझे तो ऐसा लगता है कि यह जान कर कि अंबेडकरवादी गांधी से घृणा करते हैं, अंबेडकर स्‍वयं भी घृणा करते रहे हो सकते है, तुम गांधी प्रेम में अंबेडकर से उसका बदला लेने पर उतारू हो गए हो।”
”यह हो तो सकता है, और हो तो दुर्भाग्‍यपूर्ण है इसलिए मैं उन तथ्‍यों का उल्‍लेख करूंगा जिनके आधार पर मैंने अपना अभिमत बनाया है। यदि तुमको लगे कि वे ऐसी धारणा के लिए पर्याप्‍त नहीं हैं तो मानना होगा, इसमें मेरे राग-द्वेष का हस्‍तक्षेप हुआ होगा। तुम इन बातों पर गौर करो:
1. बाबा साहब ने केवल गांधी को ही दलित उद्धार के कार्यक्रम से अलग करने का प्रयत्‍न किया, आर्यसमाज के जो लोग इस कार्यक्रम से जुड़े हुए थे, उन को भी अपर्याप्‍त बता कर राह से हटाया। कांग्रेस से जिन हरिजन नेताओं ने सहयोग किया था और अपने समुदाय के हित के लिए भी चिन्तित थे, उनको दरकिनार करते हुए अपने को एकमात्र दलितों का प्रतिनिधि सिद्ध करते हुए मंच पर प्रवेश किया जब कि इससे पहले उन्‍होंने कुछ इस दिशा में कुछ खास काम नहीं किया था। कहें, वह समस्‍त दलित समाज का अपने ढंग से इस्‍तेमाल कर रहे थे, यम मेरी आशंका है।
2. दलितों के बीच बोलते हुए उन्‍होंने बडे़ ओजस्‍वी ढंग से यह शिकायत की थी कि इनके शासन से पहले आपकी यह दशा थी, और आज तक उसमें कोई सुधार नहीं हुआ। इसमें उनका स्‍पष्‍ट मत था कि जब तक स्‍वाधीनता नहीं मिल जाती, सामाजिक बराबरी नहीं मिलती तब तक हालत में सुधार नहीं हो सकता। इसके बाद भी वह स्‍वतन्‍त्रता आन्‍दोलन में बाधा क्‍यों पहुंचाते रहे यह समझ में नहीं आता।”
मैं अागे बढ़ता इससे पहले की वह बोल पड़ा, ”तुम्‍हारी समझ में नहीं आएगा, परन्‍तु वह जिस स्‍वाधीनता की मांग कर रहे थे वह तुम्‍हीं कह चुके हो कि पाकिस्‍तान की तरह एक दलितस्‍तान की मांग थी जिसमें सभी दलित बराबरी और भाईचारे के साथ रह पाएंगे। वर्णसमाज के साथ रह कर अस्‍प़ृश्‍यता से मुक्ति का वह कोई उपाय देखते ही नहीं थे और वह समस्‍या आज तक इसीलिए बनी रह गई है।”
हो सकता है, पर यह एक असंभव शर्त थी यह ब्रितानी सरकार भी मान रही थी। खैर, तीसरी बात जो मैं कहना चाहता था, अंबेडकर बार बार अपनी अडंगेबाजी के कारण सरकार से पद और पुरस्‍कार पाते रहे और हर बार यह बहाना बनाते कि मैंने उसे इसलिए स्‍वीकार किया कि हो सकता है वहां रह कर दलित समाज के लिए कुछ कर सकूं पर यह नहीं बताया कि वहां रह कर किया क्‍या। यह उनके अपराधबोध की उपज प्रतीत होता है।
अब गांधी को सामने रखें तो उनमें दलित पीड़ा उनके जीवन में समाई हुई है और बाबा साहब पद, प्रतिष्‍ठा और वेशभूषा तक सांवले अंग्रेजो की भारतीय जमात के सदस्‍य बने रहे।
गांधी वर्णव्‍यस्‍था को नहीं मानते थे, वह उसे झटके से तोड़ने के विरुद्ध थे। उसे भीतर से बदलना चाहते थे। वह बनिया थे और मेहतर भी थे। उनके जो मुवक्किल अफ्रीका में आते थे उनके ठहरने का प्रबन्‍ध उनके अपने आवास में ही होता। उनके पेशाब के लिए कमरों में एक पात्र होता। जो पुराने और समझदार लोग थे वे उसे सुबह स्‍वयं ले जा कर ठिकाने लगाते, नये या जड़ भरत नहीं कर पाते। गांधी उनको इसकी याद भी नहीं दिलाते। स्‍वयं उसे उठा कर ले चलने को उद्यत। बा अपने रहते ऐसा होने नहीं दे सकतीं और स्‍वयं ऐसा करने को तैयार न होते हुए गहरी पीड़ा के साथ एेसा करतीं। यह था गांधी का वर्णवाद। वह इसकी कठोर मान्‍यताओं को भीतर से बदलना चाहते थे। वह अकेले थे जिन्‍हें गरीबों की चिंता इतनी गहरी कि उन्‍हें सभ्‍य आचार सिखाने के लिए उठने, बैठने, थूकने, गंदगी फेंकने, सफाई रखने के तरीके सुझाते, वे अंग्रेजी दवाएं नहीं कर सकते जिनके लिए पैसा देना होता। इसके लिए कितनी बीमारियों को पानी, मिट्टी, उपवास, सही आहार, आदि की प्रकृत चिकित्‍सा से दूर किया जा सकता है इस पर प्रयोग करते रहे। अकेले वह थे जिन्‍हें अंग्रेजों को हटाने से अधिक महिलाओं को पर्दे से बाहर लाने, अशिक्षितों को यहां तक कि प्रोढ़ों को भी शिक्षित करने की चिन्‍ता थी। जीविका के लिए कौशल सिखाने की चिन्‍ता था और उनके अपने श्रम से अपनी जीविका अर्जित करने के लिए कुटीर उद्योग और मुकदमेबाजी से बचाने के लिए ग्राम समाज और ग्राम पंचायतों के पनरुज्‍जीवित करने की चिन्‍ता थी। ऐसे अन्‍त- बाह्य एक व्‍यक्ति को जो अपना अहित करने वालों को भी घृणा नहीं करता था, तुम भले न समझ पाओं, जैसा पहले कह चुका हूं, आइंस्‍टाइन ही समझ सकते थे और कह सकते थे कि लोगों को विश्‍वास न होगा कि ऐसा कोई आदमी इस धरती पर कभी हुआ भी। यह सच है कि उसका अस्तित्‍व ही नहीं उसका नाम भी अपने हित के लिए अपने समाज, देश और इसकी संपदा का उपयोग करने वालों को कशाघात देता रहता है और उससे बचने के‍ लिए वे घ़णा को बवच के रूप में इस्‍तेमाल करते हैं। परन्‍तु आज कल इस घ़णा की एक ऐसी पाठशाला चल रही है जिसके पास धूर्तता और धन और शक्ति केन्द्रित है जिसका वह इसके लिए उपयोग कर रहा है।”
”यह बताओ, तुम चुप लगाने की क्‍या फीस लोगे।”
मुझे चुप तो लगाना ही था।