Post – 2016-06-18

पीछे की दास्तां और आगे का रास्ता

उसने बैठने के साथ ही छेड़ा, ”हां तो तुम कुंठाओं और पूर्वाग्रहों का क्या उपचार सुझा रहे थे?”

”यदि उपचार का पता होता तो मैं स्वयं अपनी कुंठाओं और पूर्वाग्रहों से मुक्त न हो लेता।”

” लेकिन कल तो तुमने…”

मैंने उसे अपना वाक्‍य पूरा करने न दिया, ” कल की बात तो कल कही थी, तुमसे छुट्टी पाने के लिए।” में हंसने लगा तो उसका चेहरा देखने लायक था।

उसकी बेचैनी को कुछ और बढ़ाते हुए मैंने कहा, ‘’और जो बात कही थी उसे तो तुमने ध्यान से सुना तक नहीं।‘’

”अजीब अहमक आदमी हो।”

मैंने कहा था, ‘’कुंठाओं और पूर्वाग्रहों का उपचार क्या हो सकता है इस पर हम कल बात करेंगे।। यह तो नहीं कहा था कि उपचार कर देंगे या उपचार मुझे मालूम है।‘’

उसकी मुद्रा से लग रहा था कि वह छला गया सा अनुभव कर रहा है। थोड़ी बहुत शरारत तो मेरी ओर से हुई भी थी। अब मैं गंभीर हो गया। ’’देखो पूर्वाग्रहों से मुक्ति का पहला उपाय यह है कि यदि कोई व्यक्ति कुछ कह रहा है तो उसे ध्यान से सुनो। पहले से ही यह न सोच लो कि वह अमुक है इसलिए अमुक बात या अमुक इरादे से कोई बात कहेगा। इसका मतलब यह नहीं कि उसकी जाति, धर्म, देश, अंचल, समाज, लिंग, आर्थिक दशा, और विचारधारा आदि असंख्य विशेषताओं से वह मुक्त है, मतलब केवल यह कि तुम इनके आधार पर बने अपने पूर्वाग्रहों को उस पर पहले से ही लाद कर उसे न सुनो, इस स्थिति में तुम उसे पूरी तरह न सुन पाओगे न समझ पाओगे। फिर उसकी सीमाओं से उसे बाहर लाने का तो प्रयत्न कर ही नहीं सकते, उल्टे उसे धक्का दे कर उसी सीमा में रहने को विवश कर दोगे।‘’

अब वह कुछ व्यवस्थित हुआ, ‘’मैंने अपनी ओर से कुछ लादा नहीं था। तुम्हारे कथन में ही तुम्हारे वर्गीय, जातीय आग्रह थे और उनकी ओर ध्यान दिलाते हुए तुमसे इनसे मुक्ते होने को कहा था।‘’

’’मैंने तो इतिहास और समाज की तस्वीर पेश की थी, अपनी ओर से तो कुछ कहा ही नहीं था। तुम देख नहीं पाते या जो दीख रहा है उसे अपनी इच्छा के अनुसार तोड़ मरोड़ कर देखना चाहते हो तो दोष तुम्हारे पूर्वाग्रहों या सदिच्छाओं का है। समझते समय सचाई को सद्भावना से भी नहीं बदलना चाहिए नहीं तो तुम उसके चरित्र को समझ ही न सकोगे। समझने के बाद वर्तमान को बदलते समय सद्भावना से काम लिया जाना चाहिए जब कि तुम मेरे ही प्रति दुर्भावना प्रकट कर रहे थे।

”सामाजिक न्याय की बात करते समय कुछ बुनियादी सचाइयों से मुंह मोड़ोगे तो यह बयानबाजी से आगे नहीं बढ़ पाएगा। पहली बात यह कि समाज सबके साथ समान स्तर पर आने पर अपने अधिकतम उल्लास और आनन्द की अवस्थान में होता है, यह सामूहिक भोजों और भागीदारी के अन्‍य क्षणों में आज भी दिखाई देता है। यह सहभागिता क्षणिक होती है जब कि आदिम अवस्थार में यह अपनी पूर्णता पर था इसलिए आहार संग्रह के उस चरण को सतयुग की संज्ञा दी गई। परन्तु उस अवस्था में मनुष्य विविध जानवरों के बीच डरा सहमा हुआ एक जानवर ही था जिसके अभाव के दिन बहुत कष्टदायी थे। आज के आदिम जनों की दशा से उस काल के मनुष्‍य की तुलना नहीं की जा सकती। आज का आदिम जन भी या तो किसी पैमाने पर खेती करता है या कृषि उत्पााद उसे बदले में मिल जाते हैं। खेती से पहले, उन दिनों, जब कन्द मूल फल शाक का अभाव हो जाता था, दुर्भिक्ष की सी स्थिति होती थी। इसी ने किसी मनस्वी के मन में यह स्वप्न जगाया था कि यदि उन अनाजों का जिन्हें वन्य ओषधियों से जुटा कर खाया जाता है, अधिक मात्रा में उत्पादन एकत्र किया जा सके और उसे दूसरे जानवरों से बचाया जा सके तो दुर्दिन न देखने पड़ें और उसने अपने जत्थे के लोगों को अपने विचार का कायल कर दिया था और इसके लिए उन्होंने इस प्रयोग को किसी भी कीमत पर सफल करने का संकल्प ले लिया था। उस व्यक्ति को हम नहीं जान सकते। उसे मनु कह लो।”

”तुम पुराणों से बाहर नहीं निकल सकते, यह मुझे पता है।”

”मनु का अर्थ ही है मनस्‍वी व्यक्ति, जिसके लिए होमो सापिएन सापिएन का प्रयोग किया जाता है। यदि वाचिक संकेत प्रणाली का, जिसे हम भाषा कहते हैं, आविष्कार करने वाला होमो सापिएन अफ्रीका में पैदा हुआ तो कृषिकर्म की सूझ वाला यह होमो सापिएन सापिएन भारतीय परिवेश में पैदा हुआ।

”जिन लोगों ने यह महान प्रयोग किया, वे वलिदान दिए जिसको प्रतीक रूप में ब्राह्मणों के खून से भरे घडे से सीता या हराई का या कृषिभूमि का जन्म बताया जाता रहा है, वे अपने को ब्राह्मण कहते थे और इस भूमि को समतल, सुषिर, उर्वर, सिंचित बनाने और अपने श्रम और तप से, प्रकृति की समस्त क्रूरताओं को झेलते हुए कृषि भूमि बनाने वाले समूची धरती को कभी अपनी संपत्ति होने की कल्पना करते रहे तो इसके लिए वे उपहास, उपेक्षा या अपमान के पात्र तो नहीं हैं, न ही जिन लोगों ने इस पहल में लगातार बाधा पहुंचाई और पिछड़े रह गए और उनमें से अधिकांश को हार कर भूसंपदा पर अधिकार करने वाले इन लोगों की सेवा में विविध योग्यताओं के साथ जुटना पड़ा उनकी इस विवशता को उनका त्या,ग कह कर महिमामंडित करने की आवश्यकता है।

”मैं यह समझा रहा था कि यहीं से वह आधार तैयार होता है जहां संपत्ति पर अधिकार करके, बाद में श्रमकार्य से विरत रह कर भी, दूसरों से श्रम करा कर, उनके श्रम पर पलने वालो का अन्तर पैदा होता है और आगे बढ़ता जाता है। श्रम के अभाव में भी लाभ पर अधिकार के लिए संस्थाओं का संगठनों का, उसे उचित ठहराने के लिए विचित्र अवधारणाओं का सहारा तो लिया ही जाता है साथ ही संगठित सैन्य बल की नींव पड़ती है और इस बात को सुनिश्चित किया जाता है कि श्रम करने वाले संगठित न होने पाएं और उनके पास औजार तो हों परन्तु हथियार नहीं, औजार भी इतने विकसित न होने पाएं कि वे हथियारों से अधिक प्रभावशाली हो जाएं। विषमता को जारी रखने के लिए जिस तन्त्र का या तामझाम का विकास होता है उसी का दूसरा नाम सभ्यता है जिसे मानवीय दृष्टि से बर्बरता भी कहा जा सकता है।

इसलिए पूरे इतिहास में आदिम अवस्था के बाद कभी समता स्थापित न हुई। समता की अवधारणा और ऐसी दूसरी मोहक आकांक्षाएं जो सबका मन मोह लें, दबे और पिछड़े या अभावग्रस्त लोगों की आवाज रही है और इसकी शक्ति नैतिकता और औचित्य के कारण रही है और कुछ सतयुग की बची हुई याद के कारण। मेरी जानकारी में सबके अभाव मुक्‍त होने की बात करने वाला पहला कवि ऋग्वेद का भिक्षु आंगिरस है।

” इस नैतिक आग्रह के कारण दान, सदावर्त और लंगर और दूसरी ऐसी संस्था ओं का भी जन्म हुआ जो आज के सौ‍ दिन के काम या मिड डे मील, आरक्षण आदि के पुराने रूप रहे हैं। ये भी दूसरे घटाटोपों की तरह ढकोसले हैं और इनसे आर्थिक बराबरी नही आ सकती थी, उसमें रुकावट अवश्य पड़ सकती थी। इनसे परजीवी और दबे कुचले, आरामतब और कामचोर जमात पैदा होती है । समता, स्वतन्त्रता और भाईचारा की पुरानी आकांक्षाओं का प्रयोग उस बोर्जुआ वर्ग ने एक झांसे के रूप में फ्यूडलिज्‍म के बंधन से मजदूरों को मुक्‍त करा कर अपने उपयोग में लाने के लिए किया जिसके साथ अन्या‍य और शोषण और उग्र हुआ परन्तु उसी नारे से और उस असफल क्रान्ति की राख से पैदा हुई वह विचारधारा जिसके जनक के नाम पर हम इसे मार्क्सवाद कहते हैं।

”इस विचारधारा ने कुछ देशों में क्रान्ति की यह इसकी सफलता नहीं है, जहां कुछ नहीं हुआ, इसके प्रवेश के रास्तेे रोकने के लिए भी रियायते देते हुए एक नयी सभ्य ता की नींव पड़ी जिसमें समानता एक अधिकार बन जाता है और इसे लोकतन्‍त्र ने एक संभावना में बदला, भले इसे सचाई में बदलने के रास्ते में असंख्य बाधाएं खड़ी की जायें।

”जब तक वे संस्थाएं अस्तित्व में हैं जो विषमता और अन्या य को जारी रखने के लिए बनाई गई हैं तब तक समानता एक रिरियाहट ही बनी रहेगी।

”अब तुम मेरी बात को समझो, विषमता को कायम रखने के लिए शस्त्र बल, समाज और व्यहवस्था को नियन्त्रित करने वाली शिक्षा पर उस वर्ग का अधिकार रहा है जिसका संपदा पर अधिकार है। लोकतन्त्र ने और वयस्क मताधिकार ने पहली बार विपन्न वर्ग के पास भी सत्ता के चरित्र को बदलने का एक हथियार दिया है। वह इसका सही इस्तेमाल करे तो समतामूलक समाज की स्थापना संभव है, परन्तु उसे बांटने और बहकाने के प्रयत्न भी जारी हैं। ज्ञान और शिक्षा की भाषा को शासक वर्ग आम लोगों के लिए सदा से दुर्बोध बनाता रहा है। आज भी ऐसा ही है। अवसर की समानता का आश्‍वासन और शिक्षा तक सबकी समान पहुंच का अभाव, यह सुनिश्चित करने के लिए कि विषमता का ढांचा जस का तस बना रहे। यह एकाधिकार शिक्षा को सर्वसुलभ बनाने से ही टूटेगा है और वह सर्वसुलभ भाषा को सर्वोच्च आसनों तक पहुंचाने वाली भाषा बनाने पर ही हो सकता है।

”इसलिए जो सचमुच सामाजिक आर्थिक भेद को दूर करने की लड़ाई लड़ना चाहते हैं, उन्हें एकलव्य के अंगूठे की लड़ाई नहीं, अपनी जबान को आवाज देने की लड़ाई के लिए समाज में चेतना फैलानी चाहिए। यह पहले मोर्चे पर विजय होगी। इसके पूरा होने पर अगली मंजिलों का रास्ता खुलेगा। संस्कृत और ब्राह्मणवाद अब खिलौने के हाथी और शेर जैसे हैं, आज के आर्थिक जंगल के खतरनाक जानवर अंग्रेजी भाषा, अंग्रेजियत और आन्तरिक उपनिवेशवाद है।‘’

उसने लंबी हुंकारी भरी । पता नहीं सहमति में या असंतोष में।

मैंने अपनी बात समाप्त करते हुए कहा, ‘जब यह बात समझ में आ जाएगी तो कुंठाएं भी दूर होंगी और पूर्वाग्रहों में भी कमी आनी आरंभ होगी।‘’