Post – 2016-06-17

अल्पज्ञता आत्‍मविश्वास की जननी है

“ देखो, तुम तर्क अच्छे दे लेते हो, विरोधी को चुप भी करा देते हो, पर खुद अपनी जाँच करके यह नहीं देखते कि तुम्हारी पूरी सोच में एक दकियानूसीपन है। तुम्हारी उदारता में अपनी संकीर्णता को छिपाने की एक कोशिश रहती है । उदार बन नहीं सकते, उदारता का पाखंड रच सकते हो।‘’

मेरा खीझना स्वाभाविक था, ‘’मैंने तुमसे बहस क्यों शुरू की थी याद है।‘’

इतनी पुरानी बात उसे याद कैसे रहती ।

‘’मैं तुम्हे अच्छा कम्युनिस्ट बनाना चाहता था, पर तुम ठान बैठे हो की हम अपनी चाल ढाल बदलेंगे नही. नया कुछ सीखेंगे नहीं । मैं लगातार याद दिलाता आया हूँ की तुम फासिस्टों की भाषा बोलते हो और कम्युनिस्ट होने का दावा करते हो और इस भाषा के कारण फासिज्म और कम्युनिज्म में जो फर्क हो सकता था, उसे भी मिटा दिया है।‘’

बोला, ’’मैं तुम्हारे ढोंग को उजागर कर रहा था ! इसमें फासिस्टों की भाषा कहां से आ गई।‘’

’’ तुम लोग क्या फासिस्टों की तरह अभियोग, लांछन और भर्त्सना की भाषा में घृणा फैलाने का कारोबार नही करते हो? एक मार्क्संवादी को जो गलत लगे उसका खंडन करना चाहिए। कारण और प्रमाण पेश करते हुए अपनी बात सिद्ध करनी चाहिए। यह बात तुम्हारे पाठकों और श्रोताओं को तुम्हारे पक्ष को समझने में और अपनी मान्यताएं बदलने में सहायक होती। पर तुम ऐसा समझाने के बाद भी नही कर पाते। जिनसे असहमत हो उनके प्रति घृणा पैदा करने की कोशिश करते हो और तुम्हारी इस कोशिश के समानान्तर ही लोगों को तुमसे विरक्ति होने लगती है। मार्क्सवाद का आधार लगातार क्षीण होने का इन्तजाम खुद करते हो और रोते हो कि जिसे तुम घृणित सिद्ध करने के लिए लगातार चीख रखे थे उसने तुम्‍हारी चेतावनी के बाद भी लोगों को भ्रमित कर दिया। तुम उसे मूर्ख सिद्ध करना चाहते हो जब कि वह अपनी बात लोगों को समझा लेता है और तुम अपनी बात समझा नहीं पाते। मूर्ख कौन सिद्ध होता है। मैंने बार बार यह दुहराया है कि नफरत करने वाला जिससे नफरत करता है उससे दूर भागता है इसलिए उसे समझ नहीं पाता। जिसे तुम समझ नहीं पाते उसे परास्त कैसे कर सकते हो। तुम नफरत पैदा करते हो और सोचते हो इससे तुम्हारी पवित्रता स्वत: सिद्ध हो जाएगी परन्तु लोग तुम्हें बदजबान मान कर तुमसे ही नफरत करने लगते हैं । समझ के इतने धनी कि इतनी मोटी सी बात समझ में नहीं आती।”

उसके चेहरे पर पसीने की बूंदें दिखाई दी, फिर वह संभल गया, ‘’भाई मैं तुम्हारे दुहरे चरित्र को उजागर करते हुए तुम्हें सुधारना चाहता था। तुम अपनी घबराहट में इसे अभियोग समझ लो तो मैं क्या कर सकता हूं ।‘’

‘’तुम मुझे दुहरे चरित्रवाला या दकियानूस कहने की जगह उन तथ्यों और तर्कों को तो रख सकते थे जिनके आधार पर यह धारणा बना ली । अपने विरोधी की लकीर को काट कर बड़ा बनने की जगह एक उससे बड़ी लकीर तो खींच सकते थे। यह तो सोच सकते थे कि पाजिटिव सजेशन हो या निगेटिव दोनों जिस पर केन्द्रित होते हैं वह लोगों की चेतना के केन्द्र में बना रहता है और दूसरे धूमिल पड़ते जाते हैं। समाचार माध्यमों से लेकर समाचारपत्रों और अपने को प्रगतिशील सिद्ध करने को आतुर बुद्धिजीवियों और अन्य पार्टियों के लोगों के पास सारे दिन यहां तक की सपने में भी लगातार एक ही बात करते पाता हूँ । तुम कहोगे निन्दा करके उसे मिटाने के लिए सभी एकजुट हो रहे हैं, पर सचाई यह है इस प्रयत्न में वे स्वयं टूट और बिखर रहे हैं, उनका गला बैठ रहा है, वे चीखते हैं और आवाज़ फट जाती है! वे उखड़ भी रहे हैं और बिखर भी रहे हैं। तुम सभी मिल कर मोदी का काम कर रहे हो और मोदी अपना काम कर रहा है. ऐसे दौर इतिहास में बहुत कम आते हैं जब पूरा देश एक ही आदमी का काम कर रहा हो. एक ही चादर बुनी जा रही है आधे इस ओर सं बुन रहे हैं आधे उस ओर से और यह झोल उस हाथी का बनेगा जिस पर मोदी सवार है।

“मैं बार बार यह दुहराता हूं कि मुझसे ऐसी गलतियां हो सकती हैं जिनकी ओर मेरी नजर न जाए और यदि कोई दूसरा उनकी ओर संकेत करे तो मैं उसे सुधारते हुए अपना निर्णय भी बदल सकता हूं। इसे कहते हैं एक मार्क्सतवादी का तरीका, वह दुनिया या समाज या उसके किसी हिस्सेि को मिटाता नहीं है, बल्कि बदलता है और इस क्रम में अपने अनुभव से अपने को भी बदलता है । यदि उसने आज या पहले, यहां या कहीं, किसी को मिटाने का काम किया तो वह उसी अनुपात में निहिलिस्ट या सर्वनाशवादी है। तुम लोग इन दोनों भूमिकाओं में फर्क करना भूल चुके हो। तुम्हारी रक्त पि‍पाशा दुनिया को बदलने आकांक्षा की तुलना में अधिक उग्र है।‘’

वह हंसने लगा, यार मैं जानता हूं तुम बात को कहीं से कहीं घुमा सकते हो, और सच को गलत और गलत को सच साबित कर सकते हो, पर गलत सिद्ध होने के बाद भी सच सच ही रहता है, उसके बारे में लोगों की समझ गलत अवश्य बन जाती है। मैं तुम्हारी शर्त मानते हुए अपनी आपत्ति रखता हूं। कल जब तुम बोल रहे थे तो देखा होगा बीच बीच में मैं अपने सेलफोन में कुछ नोट भी कर रहा था, इसलिए मैं तुम्हारी ही बातों से तुम्हारी उस पिछड़ी सोच को उजागर करता हूं जिसे तुम तर्क जाल में छिपा लेते हो।

“पहली बात तो तुमने आर्थिक और सामाजिक विषमता को सर्जनात्मकता से जुड़ा बता कर विषमता का समर्थन किया और यह कहा था कि समता केवल आदिम अवस्था में ही संभव है। अर्थात तुम आगे भी समानता की सम्भावना को असम्भव बताते हो.

“दूसरी, तुमने कहा मनुष्य की चेतना में सत्ता के प्रयोग से विकृति ही आ सकती है इसलिए समाज की सोच में परिवर्तन लाने के लिए राजनीति से विमुख रहना जरूरी है। अन्त में यह भी मान लिया कि वजीफे वगैरह से समाज को नहीं बदला जा सकता और इस तरह तुम समाज के पिछड़े वर्गों को मिलने वाली सहायता और आरंक्षण के एक मात्र सहारे को भी उनसे छीनने की परोक्ष वकालत कर रहे थे।

”अब मैं बताउं ऐसा तुम्हारी प्रकट सदाशयता के बाद भी क्यों होता है। क्योंकि तुम भी तुलसी की तरह सवर्ण हो और जिन्हें आज तक दबा कर रखा गया है उनको अपनी बराबरी पर नहीं आने देना चाहते। तुम अपने को उदार दिखाने के लिए सोच के स्तर पर मानवतावादी बनते हो, पर अवचेतन स्तर पर, जिसको तुम स्वयं भी समझ नहीं पाते, पुराने भेदभाव को बनाए रखना चाहते हो। सत्ता से बहुत कुछ होता है, पर कुछ ऐसा भी है जो केवल सत्ता से नहीं हो सकता, यह मानता हूं, परन्तु जो कुछ हो सकता है या हुआ है, तुम उसको नहीं देख पाते, जैसे जाति का नाम लेकर संबोधन को अपराध मानना, अश्पृश्यता को अपराध मानना, स्त्री को समान अधिकार प्रदान करना, यह सब क्या कोई समाज-सुधारक कर सकता है या दर्शन बघारने से हो सकता है। और जो इन अवसरों का लाभ उठा कर उन्हींं पिछड़े जनों में से आगे आते हैं और अपना पक्ष जोरदार ढंग से रखते हैं, वह क्या अन्यथा हो सकता था। तुम इन सबकी अनदेखी करके एक तो सत्ता और समाज में न पटने वाली दूरी पैदा करते हो, और फिर ऐसे सुझाव देते हो जिन पर चला जाय तो समाज का भेदभाव कभी समाप्त हो ही नहीं। समझे।‘’

उसने विजेता के दंभ से मुझे देखा ही नहीं, उसका हाथ उस जगह पर भी चला गया जहां मूछ हुआ करती है, भले इस समय वह साफ थी। मैं चुप रहा, उसके विजयोल्लास का मजा लेता रहा, जब लगा कि वह मेरी बात भी सुन सकता है तो धीरे से कहा, ‘’तुम्हारा यह कहना बहुत सही है कि हमारे बहुत सारे संस्का र और पूर्वाग्रह हमारे अवचेतन में उतर चुके होते हैं और वे हमारे सोच और विचार को बहुत सूक्ष्म रूप में प्रभावित करते हैं जिसके प्रति हम सचेत हो ही नहीं सकते। हठ पूर्वक सचेत होने चलें तो सोचना संभव ही न होगा, उसकी गुत्थियां ही सुलझाते रह जाएंगे। परन्तु जिस पर हमारा वश नहीं उसके लिए हम दोषी तो नहीं हो सकते। कानून तो बेहोशी, बदहवासी, प्रमाद या उन्माीद में किए गए हमारे व्यवहार के लिए भी दण्ड का नहीं उपचार का समर्थन करता है। इसलिए विचार केवल हमारे सचेत व्यवहार और प्रयत्न‍ की परिधि में ही संभव है और उसी के आधार पर हमारा मूल्यांकन हो सकता है।

’तुम्हांरी एक दूसरी बात भी बहुत सही लगी कि सत्ता की परिवर्तनकारी भूमिका को मैंने समझने में कुछ शिथिलता बरती, समाज और सत्ता दोनों अन्योन्याश्रित हैं। बहुत कुछ उसी तरह जैसे हमारी भौतिक परिस्थितियों में परिवर्तन हमारी चेतना में भी गुणात्मोक परिवर्तन करता है और इसी तरह हमारे बौद्धिक प्रयास से हमारी भौतिक परिस्थितियों में भी परिवर्तन आता है।

“परन्तु, जो बात तुम्हा्री समझ में नहीं आई वह यह कि मैं चिंतक, रचनाकार, शिक्षक को सक्रिय राजनीति अलग रखने या रहने की बात कर रहा था, सत्ता से दूरी बना कर रहने की बात कर रहा था क्योंकि इससे इनकी वैचारिक आप्तता समाप्त होती है. दूसरे, मनुष्य को मनुष्य बनाने की दृष्टि से इनका अपना क्षेत्र अधिक प्रभावशाली है और राजनीतिक पक्षधरता उनकी अपने अधिकार क्षेत्र की सक्रियता को प्रभावित करती है. जिस तरह एक जज को, एक चिकित्सक को, एक विश्लेषक को राजनीति की समझ तो रखनी चाहिए राजनीतिज्ञों का औज़ार नहीं बनना चाहिए, सत्ता से प्रभावित नही होना चाहिए उसी तरह अध्यापकों और छात्रों को भी राजनीतिक दलों का औज़ार बनने की जगह अपनी ऊर्जा अपने विषय पर अधिकार प्राप्त करने पर लगाना चाहिए। जो काम वे राजनीतिक सक्रियता के नाम पर कर रहे हैं उसके लिए तो पढ़ाई से अधिक फेफड़े की ताकत की ज़रुरत है। जितना ही कम जानोगे उतनी ही ऊंची आवाज़ में और अधिक आत्मविश्वास से गर्जना कर सकोगे। अल्पज्ञता आत्मविश्वास की जननी है । सोचना यह है कि यदि हमारे मन में पूर्वाग्रह बने रहते हैं तो वे अकेले तथाकथित सवर्णों के मन में नहीं बने रहते, पिछड़ों की कुंठा तो अकूत है। इसका उपचार क्या हो सकता है इस पर हम कल बात करेंगे।