Post – 2016-04-26

भाषा का संकट: विचार का संकट

‘ऐसा विचित्र दौर आ गया है कि लोग अपने संगठन के नाम में भारत, राष्ट्र जोड़ लेते हैं और दुनिया को बताते फिरते हैं कि देश और समाज की चिन्ता उन्हें ही है और जो उनसे असहमत हैं वे सभी राष्ट्राद्रोही हैं।‘

कल की लताड़ का जवाब तैयार करके आया था, ‘अधिनायकवाद यहीं से आरंभ होता है। खतरे यहीं से पैदा होते हैं जब एक छोटी सी जमात, मेरा मतलब पूरे देश को देखते एक छोटी सी जमात, सत्ता में आ कर ऐसे काम करने लगती है, जिसमें उससे असहमत होना तक कठिन हो जाता है। तुमने कभी यह भी सोचा है।‘ वह सचमुच गंभीर था।

‘यदि में कहूं कि यह तुम्हारा भ्रम है, इसका कोई आधार नहीं, तो तुम ऐसे टु‍कड़े जोड़ कर एक कोलाज तैयार करोगे जिसमें वह देश, समाज और पूरी मानवता के लिए खतरा दिखाई देने लगेगा। ठीक इसके विपरीत ऐसे ही टुकड़े जोड़ कर एक दूसरा कोलाज कोई दूसरा तैयार करे जिसमें वह अनन्य और अप्रतिम लगे तो वह भी कम विश्वासनीय न होगा। इन व्‍यक्तियों और संगठनों से सहानुभूति रखने वालों की संख्या करोड़ों में है और इसलिए दोनों कोलाजों के प्रशंसक और कुछ कतरनें अपनी ओर से जोड़ने वाले लाखों आसानी से मिल जाएंगे। ऐसी स्थिति में निर्णय दो चतुर कलाकारों की कारसाजी की तो की जा सकती है परन्तु दोनों के कोलाज देखने वाले निष्पक्ष लोग भी भ्रमित हो जाएंगे, पर भरोसा किसी पर नहीं कर सकेंगे। विश्‍वास का संकट अवश्‍य पेदा हो जाएगा। इससे विचारेतर तरकीबों और तिकड़मों के लिए गुंजाइश पैदा होगी। पक्षधरता के ये दोनों रूप नासमझी का ही विस्तार करेंगे। गुण-दोष का सही मूल्यांकन करने के लिए हमें ठोस, तटस्थ और वैज्ञानिक मूल्यांकन चाहिए। इसका कोई उपाय हो, और उसका कभी सहारा लिया हो तो वह बताओ।‘

वह कुछ सोच में पड़ गया, फिर बोला, ‘समस्याओं का सर्वमान्‍य हल नहीं हुआ करता। तुम लाख कोशिश करो दोनों को अच्छा और बुरा कहने वाले तो मिल ही जाएंगे। सर्वस्वीकार्य सच और फैसले तो तानाशाहों के ही होते हैं।‘

’ठीक ऐसी ही बहस तानाशाही पर हो, असंख्य लोग उसी व्यक्ति को आदर्श लोकवादी मानें और दूसरे उसे ही तानाशाह तो यहां भी वही स्थिति पैदा हो जाएगी।‘

’होगी, लेकिन…’ वह कुछ कहना चाह रहा था पर अपने को उसने रोक लिया।

’ऐसी स्थिति में हमें किसी की आलोचना करने का अधिकार नहीं रह जाता। कोई चीज न तो सही रह जाती है, न गलत। तुम्हारा अपना विश्वास ही निर्णायक बना रहता है और विश्वास विचार में बाधक होता है, कई बार विचारद्रोही होता है, यह तुम जानते हो। इसलिए हमें किसी विषय पर राय देने से बचते हुए जो कार्यक्षेत्र अपने लिए चुना है उसी की सीमाओं में रह कर निष्ठा और समर्पण भाव से काम करना चाहिए और दूसरों को बुलावा नहीं भेजना चाहिए कि अपना काम छोड़ कर आओ और हमारे काम में हाथ बटाओ, अपितु यदि वे ऐसा करने को विचलित अनुभव करें तो उन्हें समझाना चाहिए कि अपने क्षेत्र का काम पूरे समर्पणभाव से करो जिससे उसकी संभव उूंचाइयों को छू सको। इससे कम से कम उस क्षेत्र का तो भला होगा और सभी ऐसा करने लगें तो सभी क्षेत्रों का उत्थान होगा और इस‍ तरह पूरे देश और समाज का उत्थान होगा।

‘ तमिल की एक सूक्ति है, यदि पूरा देश समृद्ध हो तो किसी को कोई कमी न रह जाय – नाडेंगम् वाझ़गा केडोन्रुममिल्लै। हम अन्यान्य क्षेत्रों में अपनी उूर्जा बर्वाद करके समूचे देश की उूर्जा की तबाही करते हैं और तब पूरा देश तबाह होता है।

‘उसी सूक्ति का उल्टा पाठ बनता है कि यदि पूरा देश ही बर्वाद हो रहा हो तो कोई सुख और शान्ति से नहीं रह पाता। तब बहुसंख्यक जन अपनी रोटी तक कमा नहीं पाते, उनकी ओर रोटी हिकारत से फेंकी जाती है और गर्व से बताया जाता है कि देखो हमने तुम्हारी ओर इतनी रोटियां फेंकी। मुझ जैसा पहले कोई हुआ था। मजा तब कि वह रोटी भी उसके बिचौलिये छीन कर उन्हेंं दूसरों को बेचने लगें। ऐसे मे यदि कोई आए और कहे रोटी कमाने की संभावनाएं पैदा करो ताकि फेंकी हुई रोटी खानी न पड़े, परन्तु जब तक ऐसी नौबत नहीं आ जाती मैं ऐसी व्यवस्थाक करता हूं कि रोटी तुम तक पहुंचे अवश्य , बिचौलियों की झोली में न चली जाय, तो भी दोनों के साथ बहुत सारे लोग खड़े हो सकते हैं पर क्या सही और गलत का निर्णय भी आधा आधा रह जाएगा। ऐसी स्थितियां होती हैं जिसमें सही और गलत का निर्णय बहुत साफ होता है और यह तय करना भी आसान होता है कि जो गलत के साथ है, बीच की रोटी अपने झोले में डालने वालों की जमात में हैं वे सही हैं या वे जो सही के साथ खड़े होने की कोशिश में गलत लोगों के धक्के झेलते हुए अपने पांवों को टिकाने के लिए संघर्ष कर रहे हैं।‘

’तुमने भाषा और विचार के सवाल को रोटी पर पहुंचा दिया।‘

‘तुम भी नहीं मानोगे कि विचार और रोटी में बहुत गहरा संबंध है। तुम तो मार्क्सुवादी हो यार, हमारे यहां के तो भाववादी तक मानते रहे हैं कि जैसा अन्न वैसा मन और यह भी कि भूखे भजन न होंहि गोपाला।‘

’तुम पक्के घालमेलाचार्य हो। अपने क्षेत्र के काम वाले प्रस्ताव पर आओ। पहले तो क्षेत्रों का इतना तराशा हुआ बटवारा नहीं होता जितना तुम छुरे की धार से कर लेते हो । एक प्रमुख क्षेत्र से जुडे़ अनेक अनुसंगी क्षेत्र होते हैं। फिर सोचने विचारने का काम भी तो सभी को करना पड़ता है और जिनका क्षेत्र ही सूचना, ज्ञान और विचार है वे अपना काम कैसे छोड़ देंगे। और उन्हें जो चीज गलत लगती है उसे गलत तो कहेंगे ही।‘

’यही तो कह रहा हूँ कि वे जो अनेक काम दूसरे कारणों से करते हैं उनको अपने प्रधान काम की कीमत पर नहीं करना चाहिए। उसी से उनका अपना कार्यक्षेत्र निर्धारित होता है। इस क्षेत्र को उन्होंने स्वयं चुना है और इसलिए ही इसे समर्पित भाव से, निष्ठापूर्वक करना चाहिए, जो वे नहीं कर रहे हैं। वे सोचने की जगह नारेबाजी कर रहे है, दंगे को विचार की स्वतन्त्रता बता रहे हैं। वे जिसे तानाशाह बता रहे हैं या जिससे तानाशाही का खतरा दिखा रहे हैं उसको निहत्थे हो कर भी ललकार रहे हैं, और वह कुछ नहीं करता और उन्हें और अपने को कानून के हवाले कर देता है। वे उस कानून को भी नहीं मानते। तानाशाह तानाशाह भले न हो तानाशाही का हौवा पैदा करके गुंडागर्दी करने वाले और गुंडागर्दी को क्रान्तिकारी पहल बताने वाले तो है।‘

’बहस तो फिर इस पर भी होगी कि जिसे तुम गुंडागर्दी कह रहे हो वह गुंडागर्दी है या नहीं।‘

’बहस करने पर तो फिर वही विभाजन हो जाएगा कि इतने लोगों के लिए यह गुंडागर्दी है इतनों के लिए क्रान्तिकारी उन्मेष। इसलिए गुंडागर्दी को परिभाषित करना होगा। यदि तुम कहते हो जिनका काम सोचना है, विचार करना है, किसी निर्णय पर पहुंचना है वे जिस कृत्य का समर्थन कर रहे हैं उसको परिभाषित करने तक की योग्यता उनमें नहीं है तो मैं कहूंगा इसका कारण यह है कि वे अपने क्षेत्र का काम सच्चे मन से नहीं करते रहे। अपने को धोखे में रखते रहे है।

‘उसे परिभाषित करने के स्थान पर तुम जो काम बहुत सारे लोगों को गुंडागर्दी लगती है उसका समर्थन करते हुए बताते हो गुंडागर्दी आजादी से जुड़ी हुई समस्या है इसलिए उन्हें ऐसा करने से रोका नहीं जा सकता।

‘मैं कहता हूं सोचने, विचारने, शिक्षित करने वाले लोगों के बिना कोई समाज सनक जाएगा, वे ही हमें राह दिखाते है, पर तभी जब वे अपना काम करना जानते हों। जो इसे जानते हैं वे कितने भी बुद्धिमान हों, उनको जो सही या गलत लगा, उसे सही या गलत मान कर ऐक्शन में नहीं आ जाते हैं। विचार की एक प्रक्रिया होती है जिससे गुजर कर, उसके पक्ष-विपक्ष को जानने के बाद वे किन्हीं ऐसे औजारों का प्रयोग करते हैं जिससे सही निर्णय पर पहुंचा जा सके। जब तुम कह रहे थे कि किसी भी प्रश्न पर दो तरह के विचार तो होगे ही, केवल तानाशाह ही अपने विचार और आदेश को सही मानता है, तब तुम एक बदहवास की तरह बात कर रहे थे। तानाशाह न तो सही होता है न हो सकता है, क्योंकि वह विचार और विचारकों से डरता है। विचारों का हनन करता और अपनी आलोचना करने वालों को रास्ते से हटा देता है।‘

’ठीक कहते हो, जैसा अब होने लगा है। देखा नहीं, विश्वव हिन्दी सम्मेलन के बारे में इस सरकार के एक मंत्री ने क्या कहा था। आज विचारकों और साहित्यकारों की कितनी बेकद्री है।‘

’मैं चाहता था तुम समस्या पर बात करते, पर लगता है तुम उन चिन्दियों को जुटाने लगे जिनसे अपना कोलाज बनाते हो और झूम उठते हो, जब कि एक तटस्थ व्यक्ति को यह दिखाई देता है कि बोलने, अपशब्द बोलने तक की आजादी, सीधे बिना कोई कारण बताए अपने कल्पित तानाशाह को मिटाने के नारे लगाने वालों तक को बोलने की जितनी आजादी इस समय है वैसी इतिहास में कभी थी ही नहीं। आजादी सोचने की भी है, पर उस ओर तुम्हारा ध्यान नहीं जाता, इसलिए वह बदहवासी है जिसमें तुम्हारा सच तुम्हें सत्य् की पराकाष्ठा प्रतीत होता है और उससे असहमति जघन्य प्रतीत होती और ऐसों को तुम मिटा देना चाहते हो, जो तुमसे भिन्न विचार रखते हैं। इसे छिपाते भी नहीं, खुल कर कहते हो, इसका इन्तजाम भी करते हो। अब तानाशाह और लोकवादी का फैसला करो। तानाशाह तुम सिद्ध होते हो अपनी ही परिभाषा से,, अपने ही किए और कहे से और इस तानाशाही का चश्का तुम्हें पड़ गया है या नहीं। वह अकेला आदमी जो इस तानाशाही को खत्म करना चाहता है पर लोकवादी औजारों से ही, सबको साथ लेकर, सबके विकास का सपना देखता है, उसे तुमने तानाशाह बना रखा है। समझ और नीयत की ऐसी खोट कहीं मिलेगी।‘

कुछ न सूझा तो वह अपना सिर खुजलाने लगा। यह उसकी आदत है, यह मैं बता आया हूं।

मैंने कहा, ‘देखो भाषा का संकट विचार के संकट से पैदा होता है, और विचार का संकट तब पैदा होता है जब तुम अपने विश्वास को ही विचार मानने लगते हो और उसके लिए घास तिनके जोड़ने लगते हो। ऐसे लोग केवल वैचारिक और वाचिक संकट ही नहीं पैदा करते, स्वयं अपने देश और समाज के लिए संकट बन जाते हैं।‘

अब कहीं उसकी जान में जान आई, ‘संकट मान ही चुके हो, मिटा दो। छुट्टी मिल जाएगी।‘

’जो खुद अपने को मिटाने का पक्का इन्तजाम करता जा रहा हो उसे मिटाने का पाप कौन लेगा यार।‘