अधूरापन अधूरा ही नहीं है
‘यह बताओ, तुम भाषा के पीछे हाथ धो कर क्यों पड़ गए हो?’
‘भाषा के पीछे तो मूर्ख पड़ते हैं और उसका सत्यानाश करके रख देते हैं, मैं तो उसके सम्मुख नतमस्तक होने वालों में हूं वह भी इस स्तुति के साथ कि तेरा ध्यान करने के बाद पता चलता है तू कितनी गहन और अपरिसीम है। ज्ञात होने का भ्रम पैदा करते हुए अपने उस सत्य को छिपाए रखती है कि तू अज्ञेय है। यदि पीछे पड़ने का मुहावरा तुम्हें बहुत पसन्द है तो मैं कहूंगा मैं उन अनाड़िुयों के पीछे हाथ धो कर नहीं, चाबुक ले कर पड़ना चाहता हूं जो अपने अहंकार में समझते हैं वे शब्दों को जब चाहेंगे, जैसे चाहेंगे, मोड़ देंगे और जो अर्थ निकालना चाहेंगे, निकाल लेंगे।‘
’मान गए भाई, तुम देववादी परंपरा के शिलीभूत नमूने हो जिसमें किसी भी चीज को देवता बनाए बिना अपने उपयोग का समझा ही नहीं जाता इसलिए … ‘ वह कुछ सोच में पड गया। वाक्य का अन्त कैसे करे यह उसकी समझ में नहीं आ रहा था।
मैंने उसे दबिश में ले लिया, ‘जानते हो तुम्हारा वाक्य क्यों पूरा नहीं हो रहा है। इसलिए कि तुम्हारी मति मारी गई है। मार्क्सवादी बनते हो और आस्था और भक्ति का अर्थशास्त्र तक का पता नहीं, जब कि मार्क्स के पैदा होने से पांच हजार साल पहले से भारत को यह पता था। वह अपने उपयोग की चीजों का इतना ध्यान रखता था, उनका इतना जतन करता था, इस तरह संभाल कर रखता था, इतना सम्मांन करता था कि देखने वाले को उनमें देवत्व का भ्रम हो। तुम्हें पता है ऋग्वेद में धनुष, बाण, दुन्दुभी जैसी चीजों को भी देवता बताया गया है। उस परंपरा का विस्तार उस आचरण में होता रहा है जिसमें आज भी बनिया अपनी खाता बही की, बटखरों की, क्षत्रिय अपने हथियार की, लेखनजीवी अपने कलम और दावात की पूजा करता रहा है। और मा, धरती, नदी, पर्वत, वृक्ष सभी की पूजा करते हुए उनसे मिले अपने लाभ और सुरक्षा को गीत बना कर दुहराता है जिसे स्तुतिगान कहते है। और यदि तुम जानना चाहो कि अपने दूध से हमारा भरण पोषण करने वाले जानवरों में अकेले गाय की पूजा क्यों की जाती रही है तो तुम्हे शतपथ ब्राह्मण की वह इबारत दुबारा ध्यान से पढ़नी पडेगी जिसमें कहा गया है कि इसके ही बच्चों को बैल बना कर जोता जाता है जिससे अनाज उत्पन्न होता है और जिससे हमारा भरण पोषण होता है, इसलिए जो इनके मांस भक्षण की बात करता है वह अपनी भावी पीढि़यों के लिए अन्न संकट पैदा करते हुए ऐसा जघन्य काम करता है मानो वह अपनी ही अजन्मी पीढ़ियों को खा रहा हो।
‘कितने हजार साल पीछे चले गए हो, इसका पता है।‘
’जिन्हे जगत गति व्यापती ही नहीं वे न अतीत को समझ सकते हैं न वर्तमान को न आगत को, वर्ना तुम अपने झंडे, अपने राष्ट्र गान, अपने संविधान के प्रति सम्मान की भावना के पीछे काम करने वाले तर्क को समझ पाते। तुम्हें केवल यह पता चला कि मैं बीते हुए युगों के साथ हूं पर यह पता नहीं चला कि उसी के कारण मैं वर्तमान के साथ भी हूं। तुम न अतीत का सम्मान कर सके, न उसे समझ सके, न यह देख सके कि वर्तमान की वर्तमानता में भी अतीत विद्यमान है और जिस दिन वह न रहा पूरा मानव समाज उस इमारत की तरह बैठ जाएगा जिसकी नींव धंस गई हो या अपनी सही जगह से हट गई हो।‘
’तुम नहीं मानते कि बातें कुछ वायवीय हो रही हैं। क्या इस पर हम कल बात न करें।‘
मैंने तो पहले दिन से ही यह मान लिया था कि तुमको जमीनी सचाई वायवीय लगती है और वायवीय या कल्पनाप्रसूत तुम्हारे लिए यथार्थ बन जाता है। फिर भी कल तक का समय चाहिए तो उसे कौन रोक सकता है। रोकूं तो भी उठ कर चल दोगे।‘