Post – 2016-04-25

भाषा और परिभाषा

जानते हो, जो मुंह में आए उसे बोल जाने वाले को क्या कहते हैं? बकवास करने वाला!

‘तुम नहीं जानते कि मामूली से अर्थभेद से बात कहां से कहां पहुंच जाती है। जो मुंह में आया बोल जाने वाले को बकवास करने वाला नहीं कहते, मुंहफट कहते हैं। बकवास करने वाता उसे कहते हैं जो निराधार या तर्कहीन बातें करता है। अभी हमारी एक मित्र मणिका मोहिनी ने ज्‍वालामुखी का प्रयोग किया था। इसका मै दो ही अर्थ जानता हूं, एक में मुंहजला कहा जाता है और दूसरे में बीड़ी-सिगरेट पीने वाला। सोच समझ कर बोला करो। अभी हमारे एक मित्र शब्दकोश पढ़ने की आदत के बारे में बात कर रहे थे। अच्छी आदत है, मैं इस माने में डी एच लारेंस को अपना गुरु मानता हूं । आल्डस हक्सले ने उसके पत्रों का एक संकलन प्रकाशित किया था जिसमें अपने एक पत्र में उसने अपने प्रकाशन एजेंट से पूछा था कि मैंने अमुक स्‍थल पर अमुक शब्द‍ का अमुक आशय से प्रयोग किया है बताना ठीक तो है।

‘शायद अपने उसी पत्र में उसने लिखा था कि यदि मुझे इस बात का पूरा ज्ञान होता कि कौन सा अक्षर किसके बाद आता है तो डिक्शनरी देखने में जितना समय लगाया है उसमें कुछ सालों की बचत हो गई होती।‘इसका मतलब जानते हो तुम?’

’इसमें मतलब जानने की कौन सी बात आ गई? हर चीज का तमाशा बनाते हो तुम?’

’तुम जिन पहलुओं को तमाशा मान कर छोड़ देते हो उनकी गहराई में जाओ तो लोक परलोक दोनों सुधर जाएंगे। इसका मतलब यह है कि लारेंस बहुत संवेदनशील और सतर्क लेखक था। स्कूल टीचर था, यह जानते ही होगे। इसका मतलब है वह अपनी रौ में अपनी रचना लिख जाता था और फिर उसकी बहुत बारीकी से जॉंच करता था कि जिन शब्दों का प्रयोग उसने किया है वे ठीक वही आशय देते हैं या नहीं । उस काल में अंग्रेजी में थिसेरस, जिसके लिए अरविन्द कुमार ने समान्तर कोश का प्रयोग किया, या तो नहीं था, या भरोसे का नहीं था। उसे एक ही शब्द के पर्यायों को कोश से देखना होता, उनकी जो परिभाषा या व्या ख्या उसमें दी गई है उसे समझना होता, और फिर उन पर्यायों में से एक एक को जांच कर देखना होता कि कोई शब्द उसके इच्छित आशय के अनुरूप है या नहीं।

‘अब समझ में आया, उसने अतिरंजित रूप में ही सही, कोश से सहायता लेने के लिए इतने लंबे समय का उल्लेख क्यों किया था और इतनी सावधानी स्वयं बरतने के बाद भी उसने अपने एजेंट से किसी विशेष प्रयोग के बारे में क्यों आस्‍वस्‍त होना चाहा था कि वह सर्वथा उपयुक्त है या नहीं।

‘इसे कहते हैं अपनी भाषा का सम्मान। इसे कहते हैं अपनी जनभावना का सम्माान। इसे कहते हैं अपने विचार का सम्मान और इसे कहते हैं अपने विचारदर्शन का सम्मान ।

‘तुम लोगों ने अपने अजदाद तक का सम्मान करना छोड़ दिया। क्योंकि वे हिन्दू थे और तुम्हा‍री तरह उससे आगे नहीं बढ़ सके थे जहां हिन्दुत्‍व को हिकारत में बदल दिया जाता है, इसलिए तुम न अपनी भाषा का सम्मान कर सकते थे न अपनी भावनाओं का जिनका तुम इजहार करके अपनी दूकानदारी चलाते हो। तुम उस दर्शन को भी न तो समझ पाए न ही उसका सम्मान कर सके, क्योंकि भारतीय कम्युनिज्म एक रोमानी अभियान था जिसमें नवाबों की जिन्दगी जीने वाले, अपनी कविता और वक्तंव्य में सर्वहारा की पीड़ा और गुस्से को छौंक के रूप में इस्तेमाल करते थे और महफिल लूट कर घर चले जाते थे और खुशी में एक और पेग चढ़ा कर क्रान्ति के सपनों में खो जाते थे। परन्तु यह एक ऐसी सुहानी क्रान्ति थी जिसके न आने का उन्हें पूरा विश्वास था।

‘जानते हो मुझे यह खयाल इतने ठोस रूप में क्यों आया? फैज की कुत्तेे कविता याद आ गई थी। पूरी कविता तो मुझे याद नहीं, पर उसमें आए कुछ शब्दबन्ध जहन में हांट करते हैं, ये छोटी सी घुड़की ये डर जाने वाले, ये फाकों से मर जाने वाले, कोई इनको अहसासे जिल्लत दिला दे। कोई इनकी सोई हुई दुम हिला दे । ये आकाओं की हड्डियां तक चबा लें। आदि।

तुम गौर करो, जिनकी हड्डियां उन्हें चबानी थी, उनमें तो अपनी नवाबी जीवन शैली वाले फैज भी थे, बन्ने भाई भी थे और दूसरे हजरात भी थे। फिर यदि वे क्रान्ति को एक संभावना मानते थे तो उन्हें अपनी जीवनशैली बदलने का खयाल क्यों न आया? वे जानते थे, क्रान्ति एक लफ्ज है संभावना नहीं, यह लफ्फाजी के लिए बना है और आकाओं की हड्डियां चबाने वालों की जुर्रत नहीं कि वे किसी के दुम हिलाने से भी हमारी हड्डियां चबा सकें।‘

वह कुछ कहने के लिए तिलमिलाया तो पर सही वाक्य की तलाश न कर सका इसलिए चुप रह गया।

मेरा इरादा उसे दुख पहुंचाने का न था। मैंने बात आगे बढ़ाई, ‘अच्छे लेखक के पास और कुछ हो या न हो, शब्दकोश जरूर होना चाहिए जिससे तनिक भी शक होने पर वह अपना संदेह दूर कर सके। और इतना सब जानने मानने के बाद भी कई बार आदतन कुछ गलत प्रयोग सभी से हो ही जाते है। कोशाधिकारी शलाका पुरुष मेरी जानकारी में एक ही हुए हैं: पंडित रामावतार शर्मा, जो कहते थे कोई भाषा सीखनी क्या मुश्किल है, उसका व्याकरण और कोश रट जाओ, भाषा पर अधिकार हो गया। वह नलिन विलोचन शर्मा के पिता थे।

‘पर भाषा पर भी इतना जोर मत दो कि भाषाज्ञान साधन से साध्य में बदल जाए। न जानें कितनी भाषाओं के अधिकारी होते हुए भी वह एक चमत्कार बन कर ही रह गए। उनका उतना भी योगदान नजर नहीं आता जितना नलिन जी का, जो इस माने में अपने पिता के चरण रज से बड़े नहीं हो सकते थे।

‘पर भाषा, वह कोई भी हो, खास कर जनभाषा, वह संगीत की अनन्य उूंचाई पर पहुंची होती है। कविता में वह संगीत नहीं होता जो गद्य में होता है इसलिए जो कलाकार दर्जनों भाषाओं में गाना गा लेते है, उनमें से किसी के गद्य का एक वाक्य भी सही नहीं बोल पाते।‘

’तुम कह रहे थे कि जो शब्दों का सूक्ष्म अर्थभेद नहीं जानते वे बात को कहां से कहां पहुंचा देते हैं और मैंने पाया लोग सूक्ष्म अर्थभेद जानने के कारण किसी बात को कहां से कहां पहुंचा कर ही संतुष्ट नहीं होते, इस ताक में भी रहते है कि उसे वहां से और कहां कहां पहुंचाया जा सकता है।‘

इतनी देर के बाद उसका वह वाक्य पूरा हो सका जिसके लिए वह तिलतिलाया तो था पर चुप रह गया था। हम दोनों का अट्टहास एक साथ फूटा । अट्टहास थमा तो मैंने हंसते हुए ही कहा, ‘मैं जानता था तुम मुझ पर हमला करने के लिए पैंतरा बदल रहे हो, इसलिए तुम्हारा वाक्य पूरा होते ही उल्टे तुम्हारे उूपर दबिश बना ली। अब बताओ तुम बकवास कह कर भूमिका किस बात की बना रहे थे।‘

‘तुमने अपनी रौ में यह घोषित कर दिया कि भाजपा छोड़ दूसरे सभी दल और नेता राष्ट्राद्रोही हैं और यह भी नहीं सोचा कि स्वयं अदालत ने यह मान लिया है कि अन्य जो भी अपराध हो अलगाववादी बातें करना या नारे लगाना, जुलूस निकालना राष्ट्रहद्रोह में नहीं आता। इसके बाद भी तुम वही बातें दुहरा कर अदालत की अवमानना नहीं कर रहे थे। मैं तुम्हारे भले के लिए समझा रहा था कि जो जी में आया वही बोल जाने के खतरे भी हैं।‘

’तुमने किसी फैसले को ध्यान से पढ़ा ही नहीं, इसे क्यों पढ़ते। अदालतों का फैसला पुलिस और राज्य के लिए मान्य होता है, लोक के लिए नहीं। अदालत के फैसले में यह ध्यान रखा जाता है कि अमुक धारा में जिसे अपराध माना गया है उसकी परिभाषा में अमुक कृत्य आता है या नहीं, आता भी है तो उसके लिए पुलिस को जो सबूत जुटाने थे वे जुटाए गए या नहीं, यदि वे जुटाए गए तो लचर है या निर्णायक, जो गवाह पेश होने थे उन्होंने अपना बयान बदल तो नहीं लिया, इसलिए हर फैसला बहुत सारे बन्धनों या विवशताओं में जकड़े हुए जज का होता है।

‘जो स्वतंन्त्र नहीं है, जिसके हाथ कानून की धारा और कानून की सहायता करने वाली पुलिस की साख से बंधे हैं जो इतनी गिरी हुई है कि बहुत सारे लोग खमियाजा भुगत लेते है, पर पुलिस के पास नहीं फटकते और उूपर से कानूनी फैसलों में व्यक्तिगत घटक भी काम करते हैं और उनकी मान्यता इस हद तक सन्दिग्ध हो सकती है कि कोई कानून जानने वाला ही यह कहे कि न्यायाधीशों में इतने प्रतिशत भ्रष्ट हैं, रिश्वत लेते हैं तो उसका खंडन करने वाले तक सामने नहीं आते। पुलिस कानून से बंधी है, जज कानून और पुलिस की साक्ष्य जुटाने की क्षमता और ईमानदारी से बंधा है, पर लोक वह है जिसके हित के लिए कानून बनाए और बदले जाते हैं। वह जहां गलत लगता है वहां भी सर्वोपरि है। कहें जज राज्य और पुलिस से उूपर होता है, लोक उनसे और न्यायपालिका से भी उूपर होता है। जहां वह जानता है अपराध किसने किया था, वहां उसके विश्वास में इस बात से अन्तंर नहीं पड़ता कि अदालत को संतुष्ट करने वाले पर्याप्त प्रमाण दिए गए या नहीं, और अपराधी को सिद्धदोष पाया गया या नहीं। हमारा विधानांग जनता को न्याय दिलाने के लिए नहीं, अन्‍यायियों को संरक्षण देने के लिए बनाया गया है। न्याय में विलंब के लिए बनाया गया है जिसमें न्‍याय आता भी है तो वह कार्यान्वित नहीं हो पाता।’

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‘इसलिए राष्‍ट्रद्रोह की मेरी कसौटी है कोई काम राष्‍ट्र के हित में है या अहित में। अहित में है तो वह सोच विचार कर किया गया है या किसी चूक से हाे गया है। यदि सोच विचार कर राष्‍ट्र के अनिष्‍ट का काम किया गया है तो वह राष्‍ट्रद्रोह है। यदि किसी जनकल्‍याणकारी याेजना को जिस पर भारी धनराशि खर्च की जा चुकी है कोई राजनीतिक कारणों से रोक देता है तो भले वह सत्‍ता में हो उसका यह कार्य राष्‍ट्रद्रोह है। यदि कोई ऐसी संस्‍था को चलने नहीं देता जो देशहित के काम करती है तो वह राष्‍ट्रद्रोह है। यदि कोई किसी भी तरह का उपद्रव करता या कराता है जिससे देश के धन, जन और संसाधनों की हानि होती है तो वह देश द्रोह है।’

वह हंसने लगा, ‘तब तो कोई ऐसा व्‍यक्ति ही न बचेगा जो राष्‍ट्रद्रोही न हो।’

‘तभी तो कहा था, जिधर देखता हूं उधर तू ही तू है। देश को आत्‍मद्रोही बनाने की योजना पर ही तो तुम इतने लंबे समय से अपनी यूनियनबाजी के माध्‍यम से काम करते रहे हो ओर आज भी अपने हित के लिए संगठित होने के अधिकार और संगठित हो कर उपद्रव करने की छूट में फर्क नहीं कर पाते। अदालत को कोई कानून न मिलेगा जो यह फर्क बता सके पर लोगों को यह फर्क पता होता है और वे तुम्‍हारे ऐसे कारनामों को भी देश और समाज के लिलए अनिष्‍टकर पाते हैं अत: राष्‍ट्रद्रोह मानते हैं।”