Post – 2016-04-12

12/4/16
दलित भारत और भारत की दलित चेतना

‘’तुम्हें रबि बाबू की वह पंक्ति याद है… ‘

मैं हँसने लगा, ‘रबि बाबू की ही नहीं, किसी की भी वह पंक्ति मुझे याद नहीं जिसके सिर पैर से ले कर पूँछ तब का पता न हो।‘

‘अरे वह यार, हे मोर दुर्भागा देश जादेर करेछो अपनाम, अबसाने होते होबे ताइदेर लोकेर समान। एक तो मेरी याददाश्त और दूसरी ओर अधूरा बांग्ला ज्ञान । समझ में नहीं आता, ताईदेर है या ताहॉदेर है। खैर हो जो भी, कई बार सोचता हूँ, क्या उनको भविष्य का पूर्वाभास था। सुनते हैं किसी दौर में प्लांचेट वगैरह करते थे। मैं गलत कह रहा हूँ तो मेरा मजाक न उड़ाना, यह तुम लोगों का क्षेत्र है, मेरा मतलब उस विद्या से है जिसमें मृत व्यक्तियों की आत्माओं को बुलाया जाता है और वे सीधे प्रश्नों का उत्तर देती है।‘

‘दोनों में कोई संबंध है? कहां वह पंक्ति और कहां प्रेतविद्या। कहां भविष्य। का साक्षात्कार और कहां अतीत जड़ता!‘

‘’है न तभी तो यह सवाल उठाया। रबीन्द्र की जिज्ञासा अछोर थी और यदि किसी चरण पर इस तरह की साधना करके उसके सत्यासत्य को जानने का उन्होंने प्रयत्न किया हो तो इसे उनकी वैज्ञानिक सोच का ही हिस्सा मानता हूं, वैसे यह मैंने स्वयं पढ़ा नहीं था, अब हमारे बीच से अनुपस्थित पंकज सिंह से सुना था जो स्‍वयं अपने को मार्क्सवादी मानते थे, कुछ कुछ नक्सल तेवर रखते थे, और रवीन्द्र के विषय में यह जान कर स्वयं भी इसकी परीक्षा करते रहे थे। और जानते हो, एक समय में मैं उसी संघ से जुड़ा था जिसको गाली देने के लिए आज डिक्शनरी ले कर बैठ जाता हूं कि कुछ ऐसा मिले जो नया हो, चकित करने वाला हो और छपने को दिया जाय तो फांट का सीसा पिघल कर खेल न बिगाड़ दे। और लो, उस दौर में मैंने एक बार दुर्गासप्तशती का नियमित पाठ करते हुए देवी में ध्यान लगाने की साधना भी की। जानते हो क्या होता था ध्यान लगाने के क्रम में?

मैं चुप रहा।

‘दुनिया की सारी बुराइयॉं जिनसे मैं अपने को विरत करना चाहता था और सामान्य जीवन में जिनसे विरत रहता था, ध्यान और साधना के उन क्षणों में मेरी चेतना के केन्द्र में आ जाते थे। मैं इन अनुभवों की व्यर्थता को समझने के बाद ही मार्क्सवादी बना था। और फिर यह समझने में अधिक समय नहीं लगा था कि मार्क्सवाद विचारों की जुगाली नहीं है, परिवर्तन की आकांक्षा है और उस आकांक्षा को पूरा करने की दिशा में सक्रियता है और तब मैं कम्युंनिस्ट् पार्टी में भर्ती हुआ था जिसका तुम मजाक उड़ाते रहते हो जब कि तुम स्वयं एक सड़ी गली विचारधारा की लादी आेढ़े न घर के न घाट के प्राणी की तरह दिखाई देते हो।‘

उसने सोचा था उसके व्याख्यान का मुझ पर हृदयविदारक प्रभाव पड़ेगा, परंतु जब मैंने कहा, ‘तुम कभी गलत न हुए हो न गलत हो सकते हो, फिर भी यह तो बताओ, रवीन्द्र नाथ की उस पंक्ति की याद तुम्हें कैसे हो आई और कैसे तुमने इस सवाल को अपनी ही नासमझी से इतना उलझा दिया कि इसका आदि अंत पकड़ में ही नहीं आ रहा है।‘

वह नरम पड़ गया, बोला, ‘कई बार इस पंक्ति को पढ़ते हुए यह भ्रम हुआ कि कहीं रवीन्द्र को इसका पूर्वाभास तो नहीं हो गया था कि आगे चल कर संरक्षण आदि के कारण दलितों की दशा इतनी सुधर जाएगी कि उनकी सामाजिक हैसियत आज के उन ब्राह्मणों जैसी हो जाएगी जो आज के शूद्रों का अपमान करते हैं और इसी तरह इसके विपरीत शूद्रों को इतनी अग्रता मिल जाएगी कि वे नवब्राह्मणों में बदल जाएंगे और सामाजिक भेदभाव उलटे सिरे से कायम रहेगा। अवसाने होते होबे तॉहादेर या ताईदेर जो भी हो, लोकेर समान। अन्तितोगत्वा तुम्हें उन्हीं जैसी स्थिति में पहुंचना होगा। इसका और कोई दूसरा अर्थ तो हो ही नहीं सकता।‘

‘दोष तुम्हारा नहीं है। तुम्हारे नाम की पूंछ का है जिसे हिलाओ तो शर्मा सुनाई देता है। मेरे साथ भी एक सींग जुड़ा है अौर कई बार जांचना पड़ता है कि मैं बोल रहा हूँ या मेरा सींग बोल रहा है। तुम कम्युनिस्ट तो बने पर शर्मा भी बने रहे, नकार का नकार धन में बदल जाता है, पर नकार के कारोबार का फल शून्य होता है। शून्य धन शून्य भी शून्य , शून्य ऋण शून्य भी शून्य और शून्य गुणा शून्य, भी शून्य।‘

उसे आश्च‍र्य हो रहा था कि पहली बार तो वह अपने ढंग से सोचे गए, मेरे विचारों के करीब आ कर दोस्ती पक्की करने चला था और मैं ही, उसकी भाषा में, उसे दुलत्ती लगा रहा था।

‘देखो, असंभव नहीं है कि रवीन्द्र ने अध्यात्म और कर्मकांड के कुछ प्रयोगों से स्वयं को गुजारते हुए उनके सत्य‍ को जानने का प्रयत्न किया हो, पर उनकी रचनाओं और विचारों में कहीं इस तरह की बदहवासी नहीं है। जहां तक मैं समझता हूँ, इसका अर्थ है, ऐ भारतवासियो, यह मत भूलो कि तुम विश्वसमाज का अंग हो। यदि तुम्हारे अपने समाज में कुछ लोगों का सामाजिक अपमान किया जा रहा है तो अंततोगत्‍वा विश्व समाज इस व्यवस्था को कायम रखने के कारण तुम्हें उसी तिरस्का्र से देखेगा जैसे तुम अपने ही समाज के एक हिस्से को या कुछ हिस्सों को देखते हो।‘

‘मतलब ?’

मतलब यह कि वर्ण व्यवस्था को निर्मूल करना केवल परिगणित समाज की समस्या नहीं है। यह पूरे भारतीय समाज की समस्या है। यह राष्ट्रीय सम्मान से जुड़ी समस्या है, भारत के वर्तमान से अधिक इसके भविष्य से जुड़ी समस्या है और सच मानो तो आत्माेत्थान से जुड़ी समस्या है। परन्तु यह एक जटिल समस्या है अन्यथा कविगुरु केवल एक कविता से संतोष नहीं कर लेते। इसके निवारण की रणनीति उनकी भी समझ में नहीं आई इसलिए केवल भर्त्सना किया पर जिस समय किया उसमें यह संभव था, आज यह असंभव होता जा रहा है।