Post – 2016-04-08

आज की पोस्ट लंबी हो गई । इसे दो किश्तों में दे रहा हूँ । दो शीर्षकों से । पहला अभी, दूसरा दो ढाई घंटे बाद।

विरोध का मनोविज्ञान

‘‘तुम जब कुछ भी कहते हो तो विश्वास नहीं होता! जानते हो इसका क्या कारण है? तुम जिस सोच का समर्थन करते हो उसकी मलिनता के कारण! कोई कहे, ‘सूखे के इस दौर में सूखा प्रभावित क्षेत्रों में , गटर का पानी किस अनुपात में वितरित किया जाय कि पेय जल की समस्या हल हो सके तो क्या इस पर बहस हो सकती है? तुम इसी तरह की बातें करते हो। मैं चुप लगा जाता हूं तो तुम समझते हो मंजिल मार ली। तुम्हारे सीधे सादे विचार जो पहली नज़र में ठीक लगते हैं उन पर भी सन्देह होता है! तुम्हारी अक्ल पर पड़े उनके पत्थर के कारण। ये खुशबू की बात करें तो उससे भी बदबू आती है! इसलिए भी तुम्हारी यह बात मुझे सही नहीं लगती थी कि अंग्रेजी हमारे बौद्धिक उत्कर्ष में बाधक है! सीधी सी बात कि हमारे पास आधुनिक ज्ञान का कोई दूसरा विश्वसनीय स्रोत नहीं है इसलिए लगता रहा है कि जिन भी परिस्थितियों में अंग्रेजी का माध्यम हमें सुलभ हुआ उसे आज त्यागना बौद्धिक आत्महत्या है और इसीलिए हम ऐसा विचार रखने वालों को संकीर्ण सोच का, राष्ट्रवादी व्याधियों से ग्रस्त मानते आए थे और अंग्रेजी के प्रति उदार स्वीकार भाव रखते आए हैं। पर उस दिन की तुम्हारी बात मुझे ठीक लगी!”

“पत्थ र पर दूब कैसे उग आई। मैं तो यह मान कर चलता हूँ कि यदि कोई बात तुम्हारी समझ में न आई तो वह सही है, समझ में आ गई तो जरूर कुछ गड़बड़ है। जिस आदमी को खुशबू की चर्चा से बदबू आती हो, उसे सोचना चाहिए कि लगातार दुष्प्रचार के कारण बदबू उसके भीतर तो नहीं भर गई है और वह भी इतनी गहरी कि जिसे खुशबू तक न मिटा सके।

”जानते हो अमेरिका के जंगलों में बेचारा सा एक जानवर होता है । उसे स्कंक कहते हैं! वह काटता नहीं है, अपने बचाव के लिए दुर्धन्ध भरी एक फुहार छोड़ता है । कितना भी नहाओ, शैंपू करो, बदबू जाती ही नही। उसका एक ही उपचार है, टमाटर के रस से शरीर को अच्छी तरह रगड़ कर नहाना। विचारधाराओं में कुछ ऐसी होती हैं जो नफरत के बल पर ही जीवित रहती हैं और इनके प्रभाव में आने वाले व्यक्ति उसी दशा में पहुँच जाते हैं जिसमें तुम पहुँच चुके हो। बौद्धिक स्कंक ।

”फिर भी यह चमत्कार हुआ कैसे कि मेरी कही कोई बात तुम्हें सही लगने लगी। और यदि तुम्हे सही लगने लगी तो अब अपने ही कहे वाक्यों पर मेरा विश्वास डगमगा रहा है! ‘’

’’भई, मैंने सोचा, अगर दस बार तोता भी भाग्य!फल निकाले तो दो चार बार सही तो वह भी होता है फिर तुम्हातरी भी कुछ बातें तो सही होंगी ही कि तभी कोंकड़ी के प्रख्या्त लेखक रवीन्द्र केलेकर का एक व्या्ख्यान जो उन्होंने कभी ज्ञानपीठ पुरस्कारर लेने के अवसर पर दिया था वह ‘अन्तिम जन’ के जुलाई 2015 अंक में सामने पड़ गया, जिसमें उन्होंने बड़े मार्मिक ढंग से इस पीड़ा को व्यक्त किया है कि अंग्रेजी ने हमारे बौद्धिक विकास को कुंठित किया है। अंक यह रहा। पढ़ कर समझ में आ जाएगा कि जो बात तुम आज कह रहे हो वह दूसरे समझदार लोग बहुत पहले से कहते आ रहे हैं।‘’ उसने पत्रिका को खोल कर मुझे थमा दिया। कुछ पंक्तियों को उसने रंग रखा था।

मैंने पत्रिका हाथ में लेते हुए जुमला कसा, ‘’समझदार लोग इतने पहले से यह कहते आ रहे हैं और मूर्खों को फिर भी समझदारी से इतनी चिढ़ है कि वे दाद तो दे लेते हैं, पर सुझाव मानते नहीं।‘’

केलेकर के इस व्याख्यान का शीर्षक था, ‘बोन्सााई संस्कृति’ और उसके द्वारा रंगीन पंक्तियॉं निम्न प्रकार थीं:

’जड़ें काट कर बड़े बड़े वृक्षों को बौना बनाने की एक कला जापानियों ने विकसित की है। नारियल का पेड़ जो गगन को छूने के लिए उूपर तक जाता है उसे सिर्फ पॉंच फुट उूँचा इस कला के द्वारा बनाया गया मैंने देखा है। बड़ा ही सुन्दर दिखाई देता है, मगर वह नारियल नहीं दे पाता। दीवानखाने की शोभा बढ़ाने के ही काम आता है। इस कला को बोन्साई कला कहते हैं। अंग्रेजी ने हमारे देश में कई बोन्साई विद्वान, बोन्साई बुद्धिजीवी, बोन्साई लेखक और अब तो बोन्साई पाठक भी निर्मित किये हैं जो परिसंवादों की शोभा बढ़ाने के काम आते हैं। ठोस कुछ भी नहीं दे सकते। क्या हम देश को बोन्साय लोगों का होने देंगे? नहीं न? तो फिर अंग्रेजी की जो प्रबलता है उसके खिलाफ विद्रोह करना निहायत जरूरी हो गया है। कौन करेगा यह विद्रोह? एक नरशार्दूल था जिसने यह विद्रोह शुरू किया था – डा. लोहिया। अचानक ही चल बसे । अब? मेरी दृष्टि देशी साहित्यकारों की ओर जाती है। विक्टयर ह्यूगो बड़े गर्व के साथ कहा करता था – इटली ने रिनेसां का आन्दोलन चलाया। जर्मनी ने रिफार्मेशन के साथ साथ आधा रिवोल्यूेशन चलाया और न सिर्फ फ्रांस की बल्कि पूरे यूरोप की शक्ल सूरत ही बदल डाली। ऐसा कोई एक वाल्तेयर देश की किसी एक भाषा में पैदा होगा, तभी आज की हालत जड़मूल से बदल पाएगी।‘

मैंने उन पंक्तियों को पढ़ कर एक लम्बी सांस ली तो लगा वह खुशी से बैठे बैठे ही बेंच से दो इंच उूपर उछल जाएगा, बोला , जो बात दूसरों ने दशकों पहले कही है उसी को दुहरा कर तुम मौलिक चिन्तक बनना चाहते हो और अनपढ़ो की जमात मिल गई है तो फूले भी नहीं समाते होगे, पर मैंने तुम्हारी जड़े, उखाड़ कर दुनिया के सामने उजागर कर दीं!”