जबॉं कटती है कटने दो अँगूठे पर नजर रखो
आप अब तक यह तो समझ चुके होंगे कि हम दोनो, दोस्तों की तरह नहीं, वकीलों की तरह बात करते हैं। पक्ष हमने चुन लिए हैं। कोई मौका हाथ से जाने नहीं देते। बहस का अपना ही मजा है, उसके बाद फिर नए सींग उगाने, भिड़ने और अदालत के बाहर एक दूसरे का हाल पूछने में उम्र गुजरी है। उसने कहा तुम्हारी जड़ें उजागर कर दीं तो मै भला पीछे क्यों रहता।
“जड़ लोग भी जड़ों तक पहुंचने की कोशिश करते हैं यह जानकर पुलकित हूं, पर पहुंच नहीं पाते यह सोच कर व्यथित भी हूं। कभी यह तो समझने की कोशिश की होती कि मेरे कथन में और इतिहास की परिघटनाओं में कोई साम्य और अन्तर है भी या नहीं और फिर यह भी सोचा होता किैं मैं कई बार, कई रूपों में, यह कह आया हूं कि मौलिकता अपरिपक्व परन्तु अपने उत्कर्ष के लिए व्यग्र जनों की समस्या है । इससे ललित साहित्य और कलाओं का काम चल जाता है जिनमें भावुकता का अनुपात बौद्धिकता की तुलना में बहुत अधिक होता है, परन्तु, बौद्धिक को मौलिक नहीं प्रामाणिक होना चाहिए।
”जब तुम मौलिक होते हो तो, अकेले होते हो, अनन्य होते हो, दूसरों को चकित करते हो, जब प्रामाणिक होते हो तो बहुत के साथ, कई रूपों में परखे हुए व्यक्तियों और तथ्यों के साथ होते हो, इसलिए विश्वसनीय होते हो, सामाजिक होते हो और तुम्हारा लक्ष्य किसी को चकित करना या अपने को अनन्य सिद्ध करना नहीं, अपितु अपने पाठकों और श्रोताओं को बदलना होता है। परिवर्तन लाने के लिए, किसी आन्दोेलन को फलोदय तक पहुँचाने के लिए, एक ही बात को, एक ही विचार को, बार बार दुहराना होता है, कई बार तो उूब पैदा होने की हद तक जा कर।
”परन्तु प्रामाणिकता के साथ नवीनता उन्हीं तथ्यों और विचारों और क्रियाओं और अनुभवों के नए रूप में संयोजन से स्वत: पैदा होती है। उनकी व्याख्या से सचाई का एक नया आकार सामने आता है जो जब सपना बना रहता है तब भी विश्वसनीय बना रहता है। दुनिया के सारे आविष्कार, सभी क्रान्तिकारी विचार, सभी दर्शन और कुछ दूर तक धर्म भी इसी प्रक्रिया से पैदा होते हैं। पूर्वलब्ध तथ्यों के नये संपुंजन और उनके अन्तर्घात से फूटे नए आलोक से।‘’
’’अब मैं क्या करूँ। बैठा रहूँ या उठ कर चला जाउूँ और जब तक तुम्हारा आत्मालाप पूरा नहीं हो जाता तब तक टहलता रहूँ?’’
’’तुम कहीं मत जाओ, जहॉं भी जाओगे तुम्हारी बेवकूफी तुम्हारे साथ जाएगी। उससे छुटकारा नहीं। तुम यहॉं बैठे बैठे जो मैं कहता हूँ उसे सुनो और यह समझो कि केलेकर जी विद्वान आदमी हैं। उन्होंने भी तुम्हारी तरह ही बहुत कुछ पढ़ा है इसलिए समझते हैं व्यक्ति या कोई संगठन अगर कुछ करने पर आ जाए तो वह कोई भी अच्छा काम कर सकता है या युगान्तर ला सकता है। उनके जीवट को मैं भी नमन करता हूँ। यह भी दुहरा आया हूँ कि उसके बिना कुछ भी संभव नहीं है। परन्तु यदि परिस्थितियॉं अनुकूल नहीं हैं, यदि प्रतिरोधी शक्तियॉं अधिक सशक्त और सक्रिय और अनुकूलन में समर्थ हैं तो इच्छित दिशा में हम कुछ कदम चल कर हार जाते हैं।
लोहिया जी नरशार्दूल न रहे हों, मात्र एक चिन्तक ही रहे हों, उन्होंने हिन्दी को राष्ट्रभाषा बनाने के लिए जो प्रयत्न किए उनका इच्छित परिणाम नहीं आया। वह बेकार गया, यह भी नहीं कह सकते। यह लोहिया जी के आन्दोकलन का परिणाम था कि राज्यों के काम काज की भाषा वे भाषाऍं बनी जिनके आधार पर राज्यों का सीमांकन हुआ था। हिन्दीं प्रदेश इसका एक मात्र अपवाद था जिसमें एक ही भाषाक्षेत्र की अपनी विशालता के कारण इसे पहले से बँटे राज्यों में बँटा रहने दिया गया परन्तु इन राज्यों में भी हिन्दी् काे राज्यभाषा उस आन्दोलन के बाद ही बनाया गया।
” सच कहो तो कांग्रेस की पराजयके बाद क्योंकि कांग्रेस की पूरी ताकत अंग्रेजी के पक्ष में रही है और नेहरू भाषावार राज्यों के प्रबल विरोधी थे क्योंकि वह जानते थे कि यदि राजयों की शासकीय भाषा उनकी अपनी भाषा बन गई तो केन्द्र से अंग्रेी को हटाना आसान हो जाएगा। वह यह भी सोचते थे कि ज्ञान की गंगोत्री अंग्रेजी ही है। जब हिन्दीभाषी राज्यों में राजकाज हिन्दी में आरंभ हो गया उसके बाद भी बंगाल और तमिलनाडु तक जो अपनी भाषाओं को अपने साहित्यं के आधार पर हिन्दी से अधिक समर्थ भाषा मानते थे, अपनी भाषाओं को राजकाज की भाषा नहीं बना सके थे। आज क्या स्थिति क्या है, इसका मुझेज्ञान नहीं। फिर केन्द्र के लिए किसी भारतीय भाषा के लिए उनका समर्थन जुटा पाने का प्रश्न ही न था।
” पर लोहिया जी जहॉं सफल न हो सके वह था सभी स्कूलों को एक स्तर पर लाना जिससे राष्ट्ररपति से ले कर चपरासी तक के बच्चाे एक ही तरह की शिक्षा पा सकें और अपनी योग्यंता के आधार पर आगे बढ़ सके।
मैं सरकारी कामकाज की भाषा की लड़ाई की बात नहीं कर रहा हूँ। शिक्षा की भाषा की बात कर रहा हूँ । और इसमें सबसे प्रबल भूमिका किसी दल की नहीं उस पिस रहे तबके की है जिन्हें अपनी भाषा में शिक्षा चाहिए और छोटे से बड़े सभी लोगों के बच्चों को उसी में शिक्षा दी जानी चाहिए। यदि वे कोई अन्य भाषा सीखें तो उसका स्थान गौण होना चाहिए। वह संस्कृत की क्यों न हो। उसको योग्यता की कसौटी नहीं बनाया जाना चाहिए। उचित भाषाई परिवेश में सभी लोग बिना आयास के कोई भी भाषा सीख लेते हैं, और इतने अधिकार से सीख लेते हैं कि कोई उन्नीस-बीस नहीं पड़ता । इसलिए योग्यता का भाषा से कोई संबंध नहीं। अयोग्य होते हुए भी, संख्या में अल्प होते हुए भी, जो समाज को अपने नियन्त्रंण में रखना चाहते हैं वे सामान्य जनों द्वारा व्यवहार्य भाषा की अवहेलना करते हैं, उनमें शिक्षा को लगभग असंभव बना देते हैं, और यदि ऐसा न भी हो सके तो उसे कहानी, कविता, बुझौवल तक की भाषा बनाए रखने का प्रबन्धं करते हैं और उस भाषा को अपने नियन्त्र ण में रखते हैं जिस पर अधिकार को योग्यता का प्रमाण बना दिया जाता है। इसी से कई तरह के आन्तरिक उपनिवेश पैदा होते हैं। संस्कृत पर अनन्य अधिकार जमा कर ब्राह्मणों ने यही किया, अंग्रेजी पर अनन्य अधिकार जमा कर नवब्राह्मण यही कर रहे हैं और इससे जातियों के भीतर जातियॉं पैदा हो रही और मजबूत हो रही हैं। जातिवाद के विरुद्ध खड़ा होने वालों को इतिहास में दो हजार साल पीछे जा कर एक काल्पनिक कथा में अँगूठा काटे जाने के अन्याय से ध्यान हटा कर आज के दिन जबान काटे जाने के अन्या य के विरुद्ध एकजुट होना चाहिए। क्योंकि जिनकी जबान काट दी जाती है, उनके अंगूठे ही नहीं हाथ तक उन्हीं के द्वारा काट दिए जाते हैं, उन्हेे को काम मिलता ही नहीं, जलील होने की यातनाऍं और फेंकी हुई रोटियॉं मिलती है और फिर या तो अकाल और भुखमरी से उनकी गर्दन काट दी जाती है, या गर्दन काटने पर, आत्महत्या करने पर विवश किया जाता है। इस मामले में इस भ्रम से बचा जाय कि वर्णवाद के विरुद्ध केवल दलित हैं, गो इसके कारण सबसे अधिक उत्पीड़न उनको ही सहना पड़ा है। परन्तु, सहना और विरोध में खड़ा होना दो अलग बातें है। दलित अपने आक्रोश का भी सौदा कर सकता है और अदलित इस दुहरी पीड़ा से अर्धविक्षिप्त़ तक हो सकता है। फिर भी जबान की वापसी का अभियान दलित नेतृत्व में हो तो उसमें अधिक तेजस्विता रहेगी, एक बार इसके खड़ा होने के बाद पिछड़े देशों, समाजों और सामाजिक स्तरों का मेधावी बालक अपनी महत्वाेकांक्षा के कारण दुश्मदनों के हाथ का खिलौना बन जाता है, फिर भी आग तो वहीं बची है, उस पीड़ा में, अपने नरक से बाहर आने की आकांक्षा में या इस बोध से अवसन्न ता में। जैसे लकड़ी में आग। उसके लिए प्रातिभ नहीं मछोले कद के तेजस्वी नेतृत्व को आगे आना होगा, शिक्षा की बराबरी की माँग के साथ जिसे कई तरीकों से दबाया, भटकाया और मिटाया जा रहा है।