Post – 2016-04-09

‘’पिकासो के बारे में एक बात जानते हो? ‘’ मैं उसकी ओर ध्यान से देखने लगा कि वह पिकासो की किस बात की जानकारी मुझसे बांटना चाहता है। पूछ बैठा, ‘पिकासो की याद कैसे हो आई?’

’’बताता हूं। चित्रकार वह जितना बड़ा था उससे बड़ा सौदेबाज था। चित्र की मुँहमांगी कीमत वसूलता था। बस एक आर्टडीलर था जो उस पर भारी पड़ता था। जानते हो कैसे ? नहीं जानते होगे, वह भी बताता हूँ। वह आकर उसकी जिस कृति को खरीदना होता उसे छोड़ कर किसी दूसरी की तारीफ करने लगता। फिर कला पर बात करके उसे इतना बोर कर देता कि उससे पिंड छुड़ाने के लिए पिकासो उसकी पसंदीदा कृति‍ को उसके लगाए मोल पर बेचने को तैयार हो जाता।‘’

मैं कुछ बोला नहीं, प्रतीक्षा करता रहा कि यह कलाप्रसंग कहां से आ गया।

‘यार तुमने मुझे इस हिन्दी और भारतीय भाषाओं वाले सवाल पर इतना बोर किया कि मुझे भी सब्जा बाग दीखने लगा है। जो लोग तुम्हें फेसबुक पर पढ़ते हैं उनमें से भी कुछ को सब्ज बाग बहुत पहले से दीख रहा है। तुम जिस तरह अपना तर्क रखते हो, जिस तरह पैंतरे बदलते हो, उसमें लगता है है यह सपना नहीं, कल का सच है, और वे सपने में भी सत्यमेव जयते अभुआने लगते हैं। परन्तु उनसे पूछो, सीने पर हाथ रख कर कहो, ‘क्या, तुम्हेंं यह संभव लगता है’ तो वे बगलें झॉंकने लगेंगे। कहेंगे, हम एक नामुराद के बहकावे में आ गए थे।‘’

बात बहुत गलत भी नहीं थी। जिसे वह सपना और सब्जबाग कह रहा था, वह कल का सच था पर एक ऐसा सच जिसे संभव मानने और उसके लिए प्रयत्न की अपेक्षा थी। जो भविष्य का सपना देखता है उसे क्रान्तदर्शी कहा जा सकता है, जो आज है नहीं, संभव है, पर अनिवार्य नहीं, प्रयत्नसाध्य है और इसलिए उस दिशा में प्रयत्न होना चाहिए, इसे जानने और समझने वाला, अवरोधों के पार देखने वाला, क्रान्त दर्शी। पर इस पर आप हंस सकते हैं।

” स्वतंत्रता हमारा जन्मय सिद्ध अधिकार है कहने वाला, क्रान्तदर्शी था। भारतीय भाषाओं की प्रतिष्‍ठा के बिना भारत का भविष्‍य नहीं, यह सोचने और मानने वाला भी क्रान्‍तदर्शी हो सकता है। पर मैं स्वयं तो उस कोटि में आता नहीं। मुझे तो बस यह समझाना था कि जो कुछ मैने कहा वह सावन के अंधे का देखा हुआ अन्तिम नजारा नहीं है, भविष्य में झिलमिलाती वास्तकविकता का पूर्वाभास है।

मैंने कहा, ‘देखो, मैं भी जानता हूँ कि मेरे श्रोता या पाठक मेरे विचारों को अपनी आकांक्षा के अनुरूप पाते हैं इसलिए वे इन पर अपनी प्रसन्नता सहमति और प्रशंसा के रूप में उड़ेलते हैं। यह हो कर रहेगा, या हो भी सकता है, इसका उन्हें भी पूरा विश्वास नहीं। वे सोचते हैं, काश, ऐसा हो जाता। उचित तो है पर संभव कैसे होगा।‘

इसलिए मैं आज इस अंतिम बहस में तुम्हें कुछ बुनियादी बातें समझा दूँ जिनमें तुम्हारा और मेरे पाठकों और श्रोताओं का चित्तं विचलित हो सकता है। भई, सभी का भला और सताए हुओं का उत्थान तो हम भी चाहते हैं, तुम भी चाहते हो। इस तर्क से तुम भी मेरी ही टीम में हो।

‘पर सच मानो तो न तो अन्ततर्मन से उनमें से अधिकांश इसे चाहते हैं, न तुम इसे चाहते हो।‘’ वह मेरी ओर प्रश्नो भरी ऑंखों से देखने लगा।

‘’देखो, वाल्तेऑयर के प्रशंसकों में यदि जर्मनी का फ्रेड्रिक द ग्रेट था तो दूसरी ओर रूस की ज़ारा कैथरीन भी थी। उसने वाल्तेयर के प्रभाव में शिक्षा विभाग खोला। उसके शिक्षा निदेशक ने उससे निवेदन किया कि महिमामयी, हमने स्कूल तो खोल दिए, उसमें पढ़ने कोई आता नहीं हैं।‘

‘जानते हो कैथरीन ने क्या जवाब दिया था, ‘’मिस्टर डाइरेक्टर, हमने दुनिया को यह बताने के लिए स्कूल खोले हैं कि हम भी एक सभ्य राष्ट्र हैं, अपने समाज को शिक्षित करना चाहते है, परन्तुु जिस दिन उन स्कू लों में पढ़ने वाले मिलने लगेंगे उस दिन न मैं वहॉ रहूँगी जहॉं हूँ, न आप वहॉं रहेंगे जहॉं आप हैं।‘’

‘’जानते हो, यही स्थिति हमारे उन हिन्दी प्रेमियों की है, स्वभाषा प्रेमियों की है जो अपनी भाषाओं को प्रतिष्ठा देने के नाम पर गर्दन उूंची कर लेते है और जब पता चलता है कि इसके चलते प्रतिभा के उस अनखोजे परन्तु् विपुल भंडार के साथ प्रतिस्‍पर्धा करनी होगी और इस प्रतिस्‍पर्धा में वे पीछे जा सकते हैं तो उनका उत्‍साह ठंडा पड़ जाता है। तुम्हारा दल जिसका नेतृ वर्ग उसी सुविधाभोगी तबके में आता है, सोचता है, उसके हित उस तबके के साथ खड़े होने से सधते हैं जिसे वह दक्षिणपंथी कहता रहा है या मध्‍यमार्गी मानता रहा है। गरीबी, पिछड़ेपन और भेदभाव के विरुद्ध तुम खड़े भी दीखते हो और पड़े भी दीखते हो, और यार, तुक का दबाव ऐसा प्रबल है कि जी में आता है, कह दूँ सड़े भी दिखाई देते हो, पर तभी याद आया, यदि तुक तर्क पर हावी हो गई तो कहना होगा, बड़े भी दिखाई देते हो, जो मैं कहने चलूँ तो गला रुँध जायगा। पर कुछ बातें मैं समझा नहीं पाया उन्हें उनके खुरदरेपन के साथ समझो:

1. तुम्हारी आशंका का एक कारण यह है कि जो स्वतंत्रता प्राप्ति के ठीक बाद के निर्णायक क्षण में जब हिंदी को राजकीय कामकाज की भाषा बनाने का आवेश था नहीं हो सका वह क्या अब संभव है । तुम उसी क्षण में हमारे हिस्से में क्या आया है की कामना और उससे उत्पन्‍न गिरावट की कल्प ना भी नहीं कर पाते जो इसमें रुकावट बनी थीं।

2. जिस निर्णायक तिथि पर हिन्दी को राजभाषा बनना था उसी पर तमिल आवेश और उसके दबाव में यह समर्पण कि जब तक तमिलभाषी हिन्दी को स्वीककार नहीं करेंगे तब तक इसे राजभाषा नहीं बनाया जाएगा।

3. इसके बाद पहले का सारा जोश और तैयारियॉं ठंडे बस्तें में डाल दी गईं और वह मुहावरा हावी हो गया कि न नौ मन तेल होगा न राधा नाचेगी। हम सर्वथा परास्‍त और निष्क्रिय हो गए।

4. पर इस पचास साल के दौर में दक्षिण के वे राज्य जो हाशिये पर थे पर हिन्‍दी के प्रति जिन्‍होंने व्‍यावहारिक दृष्टिकोण अपनाया उनका अभ्युदय हुआ और जो विरोध में थे, उनका ह्रास हुआ। केरल पहले तमिलनाडु की तुलना में इतना पिछड़ा था कि तमिल उसे अपना उपनिवेश समझते थे। हिन्दी के राजभाषा न हो पाने के निर्णय के बाद भी हिन्दी के प्रति अपने वस्तुपरक दृष्टिकोण के कारण वह तमिलनाडु को इतना पीछे छोड़ गया है कि दिल्ली में यदि घरेलू सहायकों की संख्या देखो तो वे अपने अनुपात से बहुत अधिक तमिलनाडु की मिलेंगी जब कि केरल की नर्सें मिलेंगी, दूसरे सम्मानित पेशों में काम करने वाले, यहॉं तक कि व्यवसाय करने वाले मिलेंगे, और अपनी संख्या को देखते वे तमिलनाडु से कई गुना आगे मिलेंगे। इसी तरह की गिरावट बंगाल में भी देखने को मिलेगी। रिक्शा चलाने वालों में बंगलाभाषियों की संख्या अपनी जनसंख्या के अनुपात में बहुत आगे है, और यह तय करने में कठिनाई होती है कि उनमें कितने बंगाली है, कितने बांग्लागदेशी। जिन्हें अपने साहित्य पर इतना नाज था कि वे अपनी भाषा का सम्मान तक नहीं कर सके, उसे अपने राज्य की भाषा बनाने से कतराते रहे वे आज गिरावट के दौर से अपनी उसी अभिजनवादी अकड़ के कारण गुजर रहे हैं और भीतर यह समझ चुके हैं कि हिन्दीे के बिना उनका हित भी बाधित होता है।

5. परन्तु मैं उस चरण की बात कर ही नहीं रहा हूँ। मेरे लिए राजभाषा समस्या केन्‍द्रीय नहीं है, शिक्षा की समानता जो अवसर की समानता से जुड़ी हुई है और जिसके लिए उन्हें अपनी भाषाओं के माध्यम से अपने समूचे समाज की सर्जजनात्मक उूर्जा का उपयोग करना है, अपनी खनिज, पर अब तक अनुपयोगी पड़ी संपदा के सार्थक उपयोग की तरह, जिससे उनका और विश्व समाज में पूरे देश का अभ्‍युदय जुड़ा है, उसकी बात कर रहा हूँ। इसे टाला जा सकता है रोका नहीं जा सकता। क्यों कि इस बीच यह अहसास तेज हुआ है कि समाज के पिछड़ेपन या किसी भी गिरावट, उपेक्षा या बेरोजगारी की जिम्मे दारी न अकेली उनकी है न उनके पिछले जन्म के कर्म की। इससे मुक्ति दिलाने में सरकार की भूमिका है और उसे इसकी व्यवस्था करनी ही होगी। आज यह विद्रोह कुछ दिनों का काम, कुछ रियायते दे कर पूरा कर लिया जाता है, कल जो हक है हमारा हम लेंगे, उससे न जरा भी कम लेंगे का नारा दबे, पिछड़े और आज दुत्कारे जाने वाले जनों का प्रधान नारा बनने जा रहा है।

6. जब मैंने कहा, उस स्तर पर जाति, धर्म और संप्रदाय की सीमाऍं ढह जाती हैं, तो यह इतनी सीधी बात है कि तुम जैसे मन्दबबुद्धि के दिमाग में भी आ सकती है, परन्तु् जो मैंने कहा, उन्हीं समुदायों के अधिक प्रातिभ सिद्ध होने वालों का उपयोग उनके सामाजिक स्तर के खिलाफ काम करने वाली ताकतें कर ले जाऍंगी और वे इतिहास की का‍ल्पनिक कथाओं में उलझा कर उनकों दूसरे प्रलोभन दे कर इस्तेरमाल करेंगी तो इसे समझने में तुम्हें और दूसरों को भी कठिनाई होगी जब कि इसके नमूने ऑंखों के सामने हैं। यह बात तो समझ में आएगी ही नहीं कि जो इतनी जघन्य अवस्था‍ में जी रहे हैं कि निर्वाचन का अर्थ उनके लिए पॉच साल में एक बार के लिए एक थैली शराब, या कुछ पैसे या कुछ कपड़े लत्ते होता है, उनकी सामूहिक चेतना के बीच से कोई नेतृत्व उभरेगा।

7. इसलिए उस दलित वर्ग का मीडियाकर वह आन्दोलन छेड़ने को बाध्य है। वही इसे फलोदय तक ले जा सकता है। वह न बिकाउू होता है न उसके गाहक होते हैं। उसे ही दो विकल्पों के बीच से एक का चुनाव करना है, आत्मघात या समानता का संघर्ष जिसका नैतिक आधार इतना प्रबल है कि जिनके हित इससे टकराते हैं वे भी खुल कर इसका विरोध नहीं कर सकते।

8. परन्तुि यहीं पर उस तबके की क्रान्तिकारी भूमिका का पता चलता है जिसे मीडियाकर या मझोली समझ वाला कहा जाता है। समूचे समाज में सबसे महत्वपूर्ण तबका यह मीडियाकर तबका ही है। और जानते हो, मैं इसी का एक सदस्य हूँ परन्तु उन निर्योग्यताओं से लैस जो ऐसा आन्दोलन खड़ा कर सके जब कि तुम इसके प्रातिभ तबके से आते हो जो अपनी प्रतिभा का टेस्टीमोनियल छाती से चिपकाए सही गाहक की तलाश में फेरी लगाते रहते हैं।
इति भाषा प्रसंग:।