मातृभक्ति
‘’तुम ठीक कहते थे। यह हरामजादा तो निरा चुगद निकला।‘’ उसने बैठने के साथ कहा जिसमें तने होने से झुकने और बैठ जाने की सभी अवस्थाओं का सहयोग था।
उसकी भाषा हैरान करने वाली थी। उसने पहले इस तरह के शब्दों का प्रयोग किया हो, यह याद नहीं आ रहा था। मैंने तंज कसा, ‘संस्कृत बोलना कब से शुरू कर दिया। यह तो तुम्हारी मातृभाषा नहीं है।‘
सोचा था वह झेंप जाएगा, पर हुआ उल्टा ही, ‘मैं तो संस्कृत ही बोल रहा हूँ, पढ़ोगे तो तुम तो वैदिक बोलने लगोगे। सुनते हैं उसमें मा बहन की गालियॉं भी चुन चुन कर दी गई हैं। उसने आज के जनसत्ता के तीसरे पन्ने की एक रपट सामने खोलकर रख दी और गुस्से को सँभाले, कि इस बीच कहीं यह ठंडा न पड़ जाय, कुछ ऐंठ के साथ, उस रपट को ही देखता रहा, जिसे मैं उसे पढ़ रहा था।
मैंने एक नजर उस रपट पर डाल कर उसकी ओर रुख किया, ‘तुम्हें इस पर आक्रोश ही आता है, तरस नहीं आता?’ इस वाक्य ने सुलग रही आग में घी का काम किया, ‘तुम आदमी हो या चुकन्दर।‘
आप गौर करें तो वह मुझे भी चुगद कहना चाहता था, पर इसका साहस नहीं था इसलिए उस कन्द का नाम ले लिया था जिसमें आदिवर्णसाम्य था। मैं इसे समझता हुआ मुस्कराता रहा और यह आशा लगाए रहा कि वह अब झेंपा कि तब, पर अब उसका आक्रेाश अपने नेताओं की ओर मुड़ गया। सच कहो तो चुगद तो वे है जो ऐसे मुहफट के समर्थन में बयान देने लगे और उसकी सभी बदकारियों के भागी बन गए । भारतीय जनमानस में मातृभाव के प्रति कितना आदर है और इस तरह के मुँहफटों के साथ सहानुभूति दिखा कर हमारे अपने नेताओं ने अपना ही बेड़ा कितना गर्क किया है, जिस पर दुर्भाग्य से मैं भी सवार हूं, यह मैं भी नहीं जानता। तुम्हें तो लड्डू बॉंटना चाहिए कि ऐसे चुगद पहले तुम्हारे बीच ही पैदा होते थे, अब हमारे बीच भी पैदा होने लगे और इसका राजनीतिक लाभ तुम लोगों को मिलेगा।‘
मैंने कहा, ‘हमें न बावलों की तरह बोलना चाहिए न बावलों की तरह काम करना चाहिए। यह जानना चाहिए कि हमारा क्षेत्र क्या है, उसकी मिट्टी कैसी है, उर्वरता कैसी है, और उसमें क्या और कब पैदा हो सकता है और उसके लिए क्या करना अपेक्षित है। हम यदि दलितों और उत्पीडि़तों के साथ सहानुभूति रखते हैं तो हमे क्याें , क्या और कैसे करना चाहिए और इसकी पूर्वपीठिका यह विचार है कि हमारे आयुध क्या हैं, उनसे हम किस दूरी तक मार कर सकते हैं। कबीर ने विचार की कार्यक्षमता को ध्यान में रखते हुए उस चोट की बात की थी जो चेतना के रूप को बदल देती है। भीतर से चकनाचूर कर देती है। जो पुरानी मान्यताएं और विश्वास हैं उनको ध्वस्त करके एक नई चेतना, नई सार्थकता और नयी आकांक्षा का सूत्रपात करती है। यह बहुत बड़ा काम है। इसे केवल हम कर सकते हैं। हम अपना काम नहीं कर रहे हैं और उसके ही ये अनिष्टकारी परिणाम हैं, अन्यथा इसके निवारण के लिए पुलिस बल की आवश्यकता नहीं होती। चेतना को बदलने वाला तलवार चलाने वाले से, आयुध का सहारा लेने वाले से, बाहरी निशान छोड़ जाने वाले से, बहुत अधिक बलवान होता है, पर हम इसे जानते ही नहीं और दूसरों का हथियार उधार मांग कर चलाने लगते हैं और इस मूढ़ता में स्वयं भी मारे जाते हैं और जानें कितनी हत्याओं के सहभागी होते हैं।‘
उस पर मेरे कथन का असर हुआ है, यह तो उसके चेहरे के तनाव में कमी आने से ही पता चल गया।
मैंने कहा, ‘हमारा हथियार बयानबाजी नहीं वस्तु-स्थिति का विश्लेषण है। यह विश्लेषण ही अन्तश्चेतना को बदलता है। इसी की चोट बाहर नहीं दीखती परन्तु भीतर से उसके पुराने मूल्य और विश्वास ध्वस्त होते हैं जिसे कबीर ने भीतर चकनाचूर कहा है।
अब वह मेरी बात ध्यान से सुन रहा था इसलिए मेरा अपना विश्वास भी बढ़ गया था। बोला, ‘क्या तुमने कभी यह सोचा कि कोई शब्द या कार्य, जो किसी सन्तुलित चित्त के व्यक्ति से कहा या किया नहीं जा सकता, उसे कहने या करने वाले कितनी आत्मग्लानि के शिकार होते हैं। हिजड़े जो बात बात पर अपने को नंगा करने को हथियार के रूप में काम में लाकर लोगों को अपनी शर्तें मानने को बाध्य कर देते हैं, वे जिसे उजागर करना चाहते हैं उसके साथ उनकी कितनी यातना जुड़ी हुई है। वे तुम्हारी सहानुभूति के पात्र हैं या घृणा के?’
उस पर मेरे कथन का असर न हुआ, उल्टे हिकारत से मुझे देखते हुए बोला, ‘क्या बकते हो यार!’
मैंने पूछा, तुम्हे ईडिपस (Oedipus) कांप्लेक्स के बारे में कुछ पता है?’ उसे पता नहीं था, क्योंकि वह फालतू चीजों को ले कर मगजमारी नहीं करता। उसने मार्क्स को पढ़ा था या नहीं, यह पता नहीं, पर जितना पढ़ा उसमें इस नतीजे पर पहुंच गया कि फ्रायड को पढ़ना मार्क्सवादविरोधी है?
उसे एक ही बचाव मिला, ‘किस आदमी की बात करते हो। वह तो कुछ दिन फैशन में रहने के बाद अपने शिष्यों के द्वारा ही नकार दिया गया और फिर समाज ने उन शिष्यों को भी नकार दिया, मनोविश्लेषण का बाजार भाव तो जमीन पर आ चुका है।
मैंने कहा, ‘यही हाल मार्क्सवाद का भी है, परन्तु ये उन्नीवीं शताब्दी की ऐसी उपलब्धियां है जिनको झुठलाया जा सकता है, मिटाया नहीं जा सकता है, क्योंकि इन्होंने हमारी समाज-व्यवस्था और चेतना को इत तरह झकझोरा कि हम तब तक एक आदर्श समाज की कल्पना तक नहीं कर सकते जब तक दोनों के सिद्धान्तों का समायोजन न हो?’
उसने खीझ कर कहा, ‘तुम तो निहायत सिड़ी निकले (पता कीजिए तो सिड़ी का मतलब सड़ा हुआ निकलेगा), ‘बोलो क्या कहना है।
’पहले इडिपस ग्रंथि के बारे में समझ लो। प्रकृति ने विपरीत लिंग के प्रति नैसर्गिक आकर्षण पैदा किया है जिसे सभ्यता के विकास में सामाजिक मर्यादाओं ने वर्ज्य बना दिया जब कि पशुजगत में वे वर्ज्य नहीं होते। इस वर्जना के कारण प्राकृत आवेगों के अवरुद्ध हो जाने के कारण ग्रन्थियाँ और आचार गत विकृतियॉं पैदा होती हैं। परन्तु कुछ मामलों में सभ्यंता के प्रतिबन्ध हार जाते हैं, प्रकृति विजयिनी होती है, मां का अपनी सन्तान से रति संबंध वर्ज्य होते हुए भी किन्हीं बाध्यताओं में व्यवहार्य हो जाता है।
‘इसके समाचार बीच बीच में आते रहते हैं, जो मानव विधान के अनुसार अपराध और प्राकृत विधान के अनुसार स्वाभाविक होते हैं। आज कल की खोजों से पाया गया कि सबसे अधिक सेक्स उत्पीउ़न आत्मीयों के द्वारा होते हैं जिन्हे मर्यादा के कारण छिपा लिया जाता है, वह भी इसी को प्रमाणित करता है। माता के पुत्र के साथ यौन संबंध के बिना मुहावरे में भी इस तरह की उक्ति किसी सभ्य व्यक्ति की जबान पर नहीं आएगी, कि वह अपनी होने वाली पत्नी और उससे होने वाली संतान से वही संबध रखेगा जो वह अपनी मां से रखता आया है और जिसके साथ सामाजिक मर्यादाओं का बंधन भी समाप्त हो जाता है।‘
वह खीझ गया, ‘तुम आदमी हो या…’ मैंने उसका वाक्य, पूरा किया, ‘चुकन्दर। सुनो जिस भाषा को मैं अपनी भाषा मानता हूं उसमें चुकन्दर और सिड़ी जैसे शब्दों से भी बचा जाना चाहिए, पर सत्य की खोज में अप्रिय से अप्रिय पहलू की पड़ताल अवश्य की जानी चाहिए।‘
’कहना क्या चाहते हो तुम?’
‘गाली देने की जगह तुम्हें इस मीमांसा में जाना चाहिए था कि किन परिस्थितियों और अनुभवों के बाद किसी व्यक्ति की जबान पर वर्जनाएं सहजता से आ सकती हैं जैसा मैंने हिजड़ों की विवशता के उदाहरण से समझाया।‘
’तुम कहना क्या चाहते हो यार?’ उसने वही वाक्य फिर दुहराया।
‘कह यह रहा हूं कि सुना उसका पिता अक्षम है, उसकी मां में प्राकृतिक दबाव उन सुरक्षित कृत्योंन्तु जो न होना है वह किसी न किसी चरण पर हो भी जाता है और उसकी आदत भी पड़ जाती है और फिर परिभाषाएं बदल जाती हैं और वह न केवल अपनी पत्नी को अपनी मा का स्थानापन्न मानने लगता है अपितु अपनी पुत्री के साथ भी उसी आचरण की कल्पना करने लगता है जो उसकी मां ने उसके साथ किया। देखो, मैं यह नहीं कहता कि जो मैं कह रहा हूं वह सच है, कह यह रहा हूं कि गाली देने से अच्छाा है अप्रिय घटना या कथन का विश्लेपषण जिससे हम संतप्त व्यक्ति को उसके संताप से बाहर लाने में मदद कर सकते हैं और उसका सुधार हमारे समाज को अधिक संयत और व्यवस्थित बनाने में मदद कर सकता है।