समय होत बलवान
”रुकावटों का कोई अन्त नहीं, सारे पढ़े लिखे अंग्रेजी के साथ, भारतीय भाषाओं को प्रमुखता देने की किसी दल या सरकार में इच्छाशक्ति नहीं, फिर भी तुम कहते हों अंग्रेजी यह गई, वह गई, और ताली बजाने लगते हो। अच्छा तमाशा है!
‘’मैं अंग्रेजी को भगाना नहीं चाहता। वह अपने देश-परिवेश में एक महान भाषा है। हमारे देश में उसने अपने जैसी दर्जनों भाषाओं का रास्ता रोक रखा है। हम उनको भी आमंत्रित करने को व्यग्र है, पर इन सभी को उनकी सही औकात में रखने का सपना देखते हैं। अंग्रेजी संस्कृत दोनों का सम्मान करता हूँ। दोनों को उनके दायरे में रखना चाहता हूँ। भाषा कोई भी हो, यहॉं तक कि बोलियॉं, ये सभी अनन्य हैं।‘’
’’तुम किसी चीज की तारीफ करते हो तो आसमान पर चढ़ा देते हो। कहॉं विकसित विश्व- भाषाऍं और कहाँ हमारी अपनी भाषाऍं जिनमें तकनीकी शब्द उनसे उधार ले कर अनुवाद करना या गढ़ कर समझना पड़ता है और कहॉं बोलियॉं जिनका विश्वबोध भी सिमटा हुआ है और शब्दभंडार भी। सबको बराबर कर दिया।‘’
’’मैंने सभी को अनन्य अर्थात् दूसरे सभी से अलग, अनूठा, कहा, समान नहीं। तुम यह मान कर चलते हो कि मैं जो कुछ कहूँगा वह गलत होगा, इसलिए ध्यान से सुनते नहीं और अधसुने वाक्य को अपने ढंग से गढ़ कर हमला कर देते हो। दोष तुम्हारा नहीं उस पूरी जमात का है जिसका तुम हिस्सा बने हो। देखो तो कैसी कैसी सत्यानाशी व्याख्यायें सामने आ रही हैं।
“मैं जिस अनन्यता की बात कर रहा था उसे समझ लो। मुझे यह लगता रहा कि संस्कृत में इतस्तत: की जगह इत: अत:या इतो अत: होना चाहिए। इसके विस्तार में जाउूँगा तो तुम बोर हो कर बेहोश हो जाओगे पर कुछ समझ न पाओगे। इसकी पुष्टि जिन्हें तुम भारतीय आर्य भाषाऍं और बोलियॉं कहते हो उनसे नहीं, अपितु द्रविड़ समुदाय में गिनी जाने वाली एक नामालूम सी बोली जिसे अपने अज्ञान के कारण मैं कुछ समय तक मुंडा परिवार की भाषा समझता रहा, उससे हुई। उसमें यहॉं और वहॉं के लिए इतरं अतरं का प्रयोग होता है। और तमिल में, तुम्हें पता होगा, मध्य तकार का दकार के रूप में उच्चारण होता है। तो कुछ बोलियों में इसका उच्चारण इदरं अदरं के रूप में होता रहा होगा। इसका अर्थ हुआ, संस्कृत का विकास जिस रेल-मेल से हुआ उसमें विविध परिवारों में गिनी जाने वाली बोलियों की भूमिका थी और संस्कृत ने बहुत कुछ उनसे लिया है, और गौर करो तो हमारी बोलियों का इधर उधर संस्कृत के इत: तत: से नहीं सीधे उस प्राचीन स्तर से जुड़ा है। यह है उनकी अनन्यता और उपयोगिता।‘’
‘’मैं तुम्हारी बक-धुन से बेहोश तो नहीं हो सकता पर सिरदर्द का क्या करें। कल से गोली ले कर आया करूँगा। मैंने सवाल क्या किया था और तुमने उसे कहॉं पहुँचा दिया। किस चक्की का आटा खाते हो यार। बकवास का इतना जबरदस्त स्टैमिना!’’
‘’मैं केवल यह समझाना चाहता था कि जिनको तुच्छ समझ कर हम उनकी उपेक्षा करते हैं, वे भाषाऍं हों या मानव समुदाय, यहॉं तक कि व्यक्ति, उनमें से प्रत्येक से जो कुछ मिल सकता है वह किसी अन्य से नहीं मिल सकता। वे सभी अनन्य हैं। उन भाषाओं का भी जिनका कोई साहित्य नहीं, किसी क्षेत्र की स्वीकृत भाषाऍं नहीं, उनको सीखने समझने के लिए व्यग्र रहा हूँ। अंग्रेजी और संस्कृत सीखने की कोशिश में तो मैं स्वयं लगा रहा हूँ। सत्तर साल की कोशिश के बाद भी सीख किसी को नहीं पाया सिवाय हिन्दी के। मगर उसमें भी गलतियॉं अनगिनत करता हूँ। हर तरह की। अपनी भाषा में आप गलती करते हुए भी छोटे नहीं होते, सबको विश्वास होता है कि भाषा तो आप जानते ही हैं, पर विदेशी या सीखी हुई भाषा में आपको निखोट होना चाहिए, अन्यथा आपके अपने ही आप को अपने उपहास से रसातल में पहुँचा देंगे। मातृभाषा मॉं जैसी है, उससे आप जिद कर सकते हो, शरारत कर सकते हो, लापरवाही कर सकते हो और फिर भी उसके अपने हो, सीखी हुई भाषा मैट्रन की तरह होती है। सिखाये का पालन होना चाहिए। कोई विचलन क्षम्य नही।‘’
’’हरज क्या है इसमें। मैट्रन तो लोग अपने बच्चों के भले के लिए ही लगाते हैं। वह तुम्हारा विकास करती है, उससे ही द्रोह!’’
’’ मैट्रन उन बच्चों की होती हैं जिनके पितरों के पास संपन्नता होती है परन्तु अपने बच्चों के लिए समय नहीं होता। उनकी मैट्रन भी यदि मॉं की जगह लेने लगे तो वह समृद्धि-जनित मूर्छना भी टूटेगी। मैट्रन बाहर हो जाएगी और बच्चे को उसकी मॉं मिल जाएगी यह मामूली समीकरण तुम्हामरी समझ में आया?‘’
‘’मेरे पास अक्ल होती तो तुम्हारा दोस्त होता, कम से कम यह तो सोचा होता।‘
‘मैं पिछले सत्तर साल से संस्कृत और अंग्रेजी सीखने का प्रयत्न करता रह्ा । किसी को काबू न कर सका।‘’
‘’तुम्हारी तो एक किताब भी है अंग्रेजी में। तुम ऐसा कैसे कह सकते हो।‘’
‘’किताब से क्या होता है, भाषा को अक्षर नहीं, इसे जबान, लैंग्वेज, टंग, वाक् कहते हैं। जो तुम्हारी जबान पर नहीं है वह तुम्हारी भाषा नहीं है। जानते हो, हिन्दी से एम. ए. कर चुका था पर बोलता भोजपुरी था। भाषा लिखी या छपी हुई इबारत नहीं है, जिसे ऑंखों से पढ़ा और हाथों से टॉका जाता है। इसे सुना और बोला जाता है। जो सुन नहीं सकता वह बोल नहीं सकता। इसलिए जो भाषा परिवेश में बोली जाती है उससे अलग सभी भाषाऍं श्रमसाध्य भाषाऍं हैं और उनका आधिकारिक ज्ञान हो ही नहीं सकता। हम उनके उूपरी छिल्के से नीचे पहुँच ही नहीं पाते जहॉं भाषा की आत्मा होती है। हिन्दी के परिवेश में आने के बाद अब भोजपुरी बोलना कठिन होता है, परन्तु यह कठिनाई भोजपुरी क्षेत्र में जाते ही अचेत रूप में ही समाप्त हो जाती है। अंग्रेजी इसीलिए कष्टसाध्य भाषा है। उसे भगाने की जगह उस जैसी दूसरी बहुत सी भाषाओं का स्वागत करने को तैयार हूँ परन्तु उनको उनकी जगह पर ही रखना होगा। मैं मातृभाषाओं की गरिमा की वापसी चाहता हूँ और यह तभी संभव है जब उनके माध्य म से उच्चतम अवसर प्राप्त हों।‘’
‘’समझ गया। तुमने इसे मूछ का सवाल बना लिया है, भले आदमी, यदि ऐसा है तो खुद भी मूछ तो रखते।‘’
’’मूछ का सवाल नहीं है, गरीब से गरीब और देश के किसी कोने में पड़े हुए बच्चों के लिए शिक्षा के माध्यम में समानता के अधिकार की समस्या है। अपनी भाषा मोलभाव से नहीं खरीदी जाती, वह सरे राह लुटाई जाती है और बिना इस विषय में सचेत हुए हम उस पर अधिकार कर लेते हैं।‘’
’’छोड़ो ये बार बार दुहराई गई बातें। यह बताओ जब सभी ग्रह इसके विरोध में है, कम से कम कोई साथ देने को तैयार नहीं तो तुम भारतीय भाषाओं को उनका स्थान दिलाओगे कैसे।‘’
‘’यह काम मेरे वश का नहीं है, यह काम अंग्रेजी स्वयं करने जा रही है। मैंने कहा था न, पहले यह ज्ञान की भाषा थी, अब यह भ्रष्टाचार की भाषा बन चुकी है। इसका स्तरीय ज्ञान दिलाने वाले स्कूलों की फीस ही इतनी उूँची है कि मध्यवर्ग के कदाचार को इससे औचित्य मिलता है। इतनी तो आय है, फीस इतनी, बच्चों को पढ़ाना तो होगा ही। और इसका जो दूर दूर तक विस्तार हुआ है उसमें साधनहीन जन पिस जाते हैं। अंग्रेजी अपनी सर्जनात्मकता खो कर एक जघन्य बोझ में बदल चुकी है जिसके कारण भाषा सीखने पर जान लड़ाने के कारण बच्चे दूसरे विषयों की ओर पूरा ध्यान नहीं दे पाते और जिस पर ध्यान देते हैं उसे सीख नहीं पाते। इसका परिणाम है महामारी के स्तर पर नकल का कारोबार। हमारे समय में यह लगभग असंभव था, और फिर लड़कों की संख्या बढ़ती गई और उनका दुस्साहस भी बढ़ता गया। मान बहादुर प्रिंसिपल थे, नकल पर रोग लगाई थी और उनकी हत्या उनके ही कालेज के छात्र ने कर दी। अब यह आश्चर्य का विषय नहीं रह गया है। नकल कराने में छात्र ही नहीं, उनके अभिभावक और शिक्षक तक शामिल होने लगे है। उनको अच्छे नंबर चाहिए, स्कूल को अपना नाम। पर्चे लीक कराने का कारोबार व्यापमं या क्या नाम है जो मध्य प्रदेश में सुनने में आया था। खैर जो भी हो, उसकी चर्चा से तो अवगत हो। ये एक दूसरे से असंबद्ध परिघटनाऍं और प्रवृत्तियॉं नहीं हैं। और इनके पीछे प्रधान कारण अंग्रेजी का चलन और उसका दबदबा है।
‘’मैंने एक बार कहा था न कि इतिहास का फैसला वर्चस्वी की अपनी ही व्यर्थता और अव्यवहार्यता के रूप में आता है और तब असंभव प्रतीत होने वाले परिवर्तन स्व्ल्प आयास से भी हो जाते हैं, परन्तु प्रयास तो करना ही पड़ता है।‘’
उसने लगभग समर्थन का खतरा उठाते हुए एक नीतिवाक्य जड़ दिया, ‘’नहि सुप्तस्य सिंहस्य प्रविशन्ति मुखे मृगा:।
‘’इतनी देर बाद आया समझ में इतिहास का वह संकेत। सांस्कृतिक विजय के लिए पश्चिम ने कितना लंबा और जी जान से संघर्ष किया इसे तुम जानते हो। सांस्कृतिक मुक्ति के लिए हमें अपनी भाषाओं की ज्ञान संपदा का विस्तार करना होगा और यह अंग्रेजी में जो लिखा है उसका भारतीय भाषाओं में अनुवाद करने से नहीं होगा। हमें विविध क्षेत्रों में मौलिक अध्ययन और अनुसंधान से ज्ञान का उत्पादन करना होगा। अंग्रेजी, संस्कृत या अन्य भाषाऍं जिनका ज्ञान है वे भी स्रोत भाषाऍं बनी रहेंगी। यदि हिन्दी के लोग विश्व हिन्दी सम्मेलन, हिन्दी दिवस आदि के आयोजनों से दूरी बना कर रहें तो भाषागत सौहार्द स्थापित करने में इससे भी बढ़ावा मिलेगा। मैंने पहले ही कहा था हिन्दी क्षेत्र में राष्ट्र भाषा प्रचार समितियाँ दक्षिण भारत की किसी भाषा की शिक्षा का केन्द्र बन जाऍं या उनमें राष्ट्र की दूसरी भाषाओं की कक्षाऍं लगाना आरंभ करें और हिन्दी भाषी इसमें रुचि लेने लगें तो इसका जादू जैसा असर होगा। परन्तु इसे आन्दोलन का रूप देने में नेतृत्व दलित समाज ही समर्थ हो सकता है।