Post – 2016-04-03

”बात अपनी कह सकें, यारब जबॉं अपनी तो हो।”

‘’तुम्हें क्या। लगता है। यह जो आप सरकार है, शिक्षा प्रणाली में सुधार तो इसकी प्राथमिकताओं में है। यह तुम्हारे सपने पूरा करने की दिशा में कुछ करेगी।‘’

‘’मैं सरकारों और राजनीतिक दलों पर बात नहीं करना चाहता। यह एक सोच और समझ से जुड़ी समस्या है, किसी दल से नहीं। इसके पनपने में आधी सदी लगी है, इसे समझने में भी समय लग सकता है और इसके बाद निराकरण का चरण आता है, जिस अवधि तक के लिए यदि हम मान भी लें कि कोई दल इसका सही निदान कर पाया है और उसका उपचार कर लेगा, तब तक जरूरी नहीं कि वह सत्ता में रहे। इसलिए हमें उस मानसिकता को समझना होगा जिससे वह सोच पैदा हुई‍ जिसने उद्धारकों को लुटेरों की एक नई कौम में बदल दिया, कम्युनिस्टों को साम्राज्यवादियों और आन्तरिक उपनिवेशवादियों का दलाल बना दिया, जिसके कारण एक दौर का अंग्रेजी विरोधी अपने बच्चों का भविष्य अंग्रेजी माध्यम में तलाश करने लगता है। यह मत भूलो कि अपने क्रान्तिकारी तेवर के बाद भी आप सरकार भी दो तरह की शिक्षाप्रणाली के पक्ष में है, उन निजी कारोबारी स्कूलों में गरीबों की कुछ प्रतिशत भर्ती के पक्ष में है, यह अवसरवाद है। परन्तु मैं इसके लिए उस सरकार के इरादों का निर्णायक नहीं बन सकता। राजनीतिक अपरिहार्यताऍं कमीनेपन की भी परिभाषा बदल कर बलिदानियों की एक नई कोटि खड़ी कर लेती हैं, इसलिए राजनीतिक दलों का मूल्यांकन करने में समय लिया जाना चाहिए।

”हमारा सोच विचार भी राजनीतिक श्रेणियों में बँट चुका है इसलिए हमें विचारक माने जाने वालों की पोजिशन का तो पता चलता है और जिसे हम उनका विचार मानते हैं, वह विचार होता ही नहीं, वह पूर्व ग्रहीत मान्यता के समर्थन में नए ऑकड़ों के साथ ऐसे खेल में बदल जाता है जिसमें अदा समझ में आती है, अदायगी का पता नहीं चलता।

”भाषा की समस्‍या राजनीतिक समस्या नहीं है, वैचारिक समस्या है।‘’

‘’तुम मानते हो राजनीतिज्ञों के पास दिमाग नहीं होता, सोच और समझ नहीं होती? कभी इस पहलू पर भी ध्यान दिया कि तुम हवा में बातें करते हो? हवाई बातें करते हो और, माफ करना, हवा का रुख देख कर दिशा बदल लेते हो। अपने को एकमात्र मार्क्सवादी कहते हो और काम उनका करते हो जो हिटलर को अपना आदर्श मानते हैं। जमीन पर पॉंव रखो तो सचाई का भी पता चलेगा।’’

‘’मैं इस तरह सोचता ही नहीं जैसे तुम सोचते हो जिसमें सोचने की पहली शर्त होती है, तू मुझ सा बन जा और फिर सोच, और तू सोच भी रहा है या नहीं, यह तब पता चलेगा जब यह सिद्ध हो जाएगा कि गहन सोच विचार के बाद तू उसी नतीजे पर पहुँचा जिस पर हम बहुत पहले पहुँच चुके थे और उस पर दृढ़ता से जमे हुए थे, न पीछे हटे न आगे बढ़े, न उूपर उठे न नीचे गिरे। त्रिशंकु की कल्पना करने वालों को कम्यूनिज्म का पूर्वाभास कैसे हो गया था इस पर तुम उन विश्वविद्यालयों में अनुसंधान की व्यवस्था करो जिनमें कक्षाऍं कम लगती हैं, हंगामे अधिक होते हैं, तो तुम अपने को भी समझ पाओगे और आगे बढ़ने, उूपर उठने के रास्ते और प्रेरणाऍं भी मिल जाऍगी।

”तुम हिटलर की जीवनी पढ़ने से घबरा जाते हो, दूसरे उन शब्‍दों का अर्थ जानना चाहते हैं जिनका तुम तकिया कलाम की तरह इस्‍तेमाल करते हो। ना‍जिज्‍म उनमें एक है और हिटलर उसे समझने के लिए जरूरी है। भारत में यही उपलब्‍ध है। तुम ज्ञान को व्‍यवहार मान लेते हो इसलिए सशंकित रहते हो।

‘’पहले उन शब्दों का अर्थ समझो जिनको तुम बार बार दुहराते हो पर किसी के पल्ले यह नहीं पड़ता कि तुम कहना क्या चाहते हो। तुम जिसे वायवीयता और धरती का यथार्थ कहते हो, उसकी एक व्याख्या तुलसी दास ने की है जिसे मैं अपने लिए प्रयोग में लाना चाहूँगा, वह वायवीयता को शुद्धता की कसौटी मानते हैं और यह मानते हैं कि जब तक पार्थिव मलिनताओं से संपर्क नहीं होता तब तक जल की शुद्धता बनी रहती है और भूमि का स्पर्श करते ही वह जल ढाबर या मटियाला हो जाता है।

”मेरे‍ लिए इसका अर्थ है, सैद्धान्तिक विवेचन की प्राथमिक अपेक्षा वायवीयता, अर्थात् इतर सरोकारों, आग्रहों और बन्धनों से निरपेक्षता है और तुम्हारी सोच के अनुसार भूमि पड़े ढाबर पानी को पानी की शुद्धता की कसौटी बनाया जा सकता है। पहले इस बुनियादी अन्तर को समझने का प्रयत्न करो। ध्यान रखो, हम हिन्दी पर, भाषा पर, या शिक्षा नीति पर बात नहीं कर रहे हैं। हम भारतीय मानसिकता पर, गुलामी के नये रूप पर, उससे मुक्ति की संभावनाओं पर बात कर रहे हैं और भाषा इसमें इसलिए सबसे पहले आ जाती है कि भाषा के अभाव में हम बेजबान हो जाते हैं। बात अपनी कह सकें, यारब जबॉं अपनी तो हो।