Post – 2016-03-31

हिन्‍दी का भविष्‍य (19)

“दूसरी रुकावट भारतीय भाषाओं के लेखक हैं। इन्हें अपनी भाषाओं पर गर्व है, पर विश्वा स नहीं। थोड़ा-बहुत विश्वास संस्कृत पर है जो अज्ञान पर आधारित है क्यों कि वे स्वयं संस्कृत जानते नहीं। इसलिए संस्कृ त के प्रसंग में प्रशंसा सहमते हुए और निन्दा गरजते हुए करते हैं। अंग्रेजी पर विश्वास है पर अपने अंग्रेजी ज्ञान पर विश्वास नहीं है क्योंकि भाषा ज्ञान नहीं अभ्याेस की चीज है जो अपने भाषा-परिवेश में ही संभव होता है। अंग्रेजी में प्रार्थनापत्र से आगे की कोई चीज पूरे विश्वास से नहीं लिख सकते, फिर भी अंग्रेजी को कुछ प्रयत्न से समझ लेते है, और ज्ञान का एक मात्र श्रोत अंग्रेजी में उपलब्धं सामग्री को मानते हैं इसलिए अंग्रेजी अधिक आयास से और अपनी भाषा में उपलब्ध सामग्री को सदभावनावश पढ़ते हैं। ‘’

’’तुम अपना परिचय दे रहे हो या भारतीय लेखकों, पत्रकारों और अध्यापकों की बात कर रहे हो।‘’

मैंने उसके फिकरे पर ध्या न ही नहीं दिया, ‘’अपनी भाषा में लिखे ज्ञान साहित्य को वे बिना पढ़े ही यह जान लेते हैं कि इसका स्तर उसी विषय पर अंग्रेजी में लिखी किसी पुस्तक या लेख की तुलना में घट कर होगा और अधिक संभावना यह है कि अंग्रेजी से ही यहॉं-वहॉं से कुछ झटक कर सजा दिया गया हो, इसलिए उसे यदि पढ़ना भी पड़ा तो कृपा भाव से पढ़ते हैं।

उनका विश्वा स है कि यदि सचमुच कोई आधिकारिक काम होता तो अंग्रेजी में लिखा गया होता और इसलिए यदि स्वयं कोई शोध या ‘आधिकारिक’ लेखन करना होता है तो अंग्रेजी का उस स्तयर का ज्ञान प्राप्त‍ करने के लिए संघर्ष करते हैं जिसके बाद अपनी बात उस भाषा में कह सकें। उसके किसी पत्र या प‍त्रिका में नामोल्लेेख तक को भारतीय भाषा में अपने लेखन से अधिक महत्व देते हैं। दूसरे शब्दों में ये अपनी भाषा से अधिक सम्मान अंग्रेजी का करते हैं और यदि अंग्रेजी का महत्व कम करने या उसे ऐच्छिक विषय बनाने की बात आए तो उसका सीधे विरोध न भी करें तो विरोध करने वालों के पीछे भीड़ बन कर खड़े हो जाऍंगे।‘’

‘’जिसे तुम अपराध की तरह पेश कर रहे हो वह एक सचाई है। ऐसे लोगों को खड़ा कर दो जा अपनी भाषा या उसके साथ किसी अन्य भारतीय भाषा को भी जानते हैं, परन्तु अंग्रेजी का मात्र कामचलाउू ज्ञान रखते हों, और तुम्हें फर्क समझ में आ जाएगा।‘’

’’अंग्रेजी में जो सचमुच सहजता से लिख बोल लेते हैं वे ऐसे लोग हैं जिनकी घरेलू बोल चाल की भाषा अंग्रेजी रही है। हम उसके गुण-दोष पर नहीं जाऍंगे, परन्तु अंग्रेजी के प्रति गहन आसक्ति के कारण वे अपने परिवेश की भाषा को बोल तो लेते हैं, परन्तु लिखने में या व्याख्यान देने में उन्‍हें उसी तरह की कठिनाई होती है जो भारतीय भाषाओं के अभ्यस्त लोगों को अंग्रेजी लिखने बोलने में होती है। दोनों इसमें असहज अनुभव करते हैं, इसीलिए मैंने कहा था, भाषा ज्ञान की चीज से अधिक व्यवहार की चीज है।

’’अब जो तुलना तुम ले कर बैठ गए अग्रेजी से अपरिचित या अल्पपरिचित परन्तु भारतीय भाषाओं तक का ज्ञान रखने वालों के बीच तुलना का, वह आभासिक है। यह अंग्रेजी के दबदबे के कारण है, विषय की समझ के कारण नहीं है। नफीस अंग्रेजी में धाराप्रवाह बोलने और लिखने वाले अधिक समझदार होते हैं यह बात तुम तभी कह सकते हो यदि इतिहास या भाषा पर किसी अंग्रेजी में दक्ष इतिहासकार को मेरी स्थापनाओं को खंडन करते दिखा सको। पूरी मंडली रही है उनकी, सभी संस्थांओं पर अधिकार रहा है उनका, इसके लिए कवायद भी करते रहे परन्तु ऐसा हो नहीं पाया और इसके बाद भी उनका नाम फारसी सलाम करते हुए ही लेने की आदत बनी हुई है लोगों म वे अंग्रेजी जानते हैं, अपना विषय नहीं जानते।”

‘’पहली बार तुम्हेंब इस तरह अहंकार पूर्वक और वह भी अपने बारे में बात करते हुए सुन रहा हूँ। सुन कर भी विश्वास नहीं होता कि तुम होश हवास में हो या कुछ खा-पी लिया है और उसके असर में ऐसी बातें कर रहे हो।‘’

‘’तुम अपनी ओर से समझदारी की बात करते हो तो भी तुम्हारी असलियत का पता चल जाता है। अरे भई, मैं अपनी बात नहीं कर रहा था, मैं यह बता रहा था कि अंग्रेजी ज्ञान पर भरोसा करने के कारण आधा समय तो ये लोग पराई भाषा पर स्वभच्छ अधिकार पाने पर खर्च कर देते हैं और फिर इतने श्रम से सीखी गई भाषा में जो कुछ भी लिखा गया है उसको गटक जाते हैं, उसका आलोचनात्मक पाठ तक नहीं करते और इसलिए अंग्रेजी का ज्ञान विषय के अटपटे और जपाट ज्ञान का रूप ले लेता है। जिसे पराई भाषा के प्रति ऐसी आसक्ति नहीं है वह अपने विषय की समझ और ज्ञान के कारण ही अपनी जगह बना सकता है। अंग्रेजी के आधिकारिक ज्ञान का अभाव जॉंचने-परखने और अधिक गहराई में उतरने को प्रेरित करता है। अपना उदाहरण इसलिए कि जब प्रमाण की बात आएगी तो अपने अनुभव और टकराव और सभी अयोग्यताओं और सुविधाओं से वंचित मुझ अकिंचन के एक प्रहार से सर्वसाधन संपन्नों के दाँतों में धूल झाड़ कर खड़े होने के बाद भी मानो कुछ हुआ ही नहीं, किरकिरी की याद तो दिलानी ही पड़ेगी। यह तो पूछना ही पड़ेगा कि अंग्रेजों से ले कर अंग्रेजी दॉं विद्वानों का इतिहास चार पॉंच हजार साल से पीछे नहीं जा पा रहा था और अपनी बोलियों की समझ रखने वाले एक अदना ने उसे दस हजार साल और स्यांत् उससे भी पीछे अकेले पहुँचा दिया और जब यह दुस्साेहस किया था तो पुरातत्व तक से कोई रोशनी नहीं मिल रही थी, पुरातत्व बाद में आया, गुणसूत्रों के विश्लेपषण बाद में आए। 1985 में लिखित और 87 में प्रकाशित अपनी पुस्तक में एकमात्र ज्ञात स्थल मेह्रगढ़ के बारे में लिखा था कि यह भारतीय इतिहास के पन्ने पर हाशिए की लिखावट है, इसका प्रसार क्षेत्र भारत में है और आहार संग्रह के चरण से बाद के नागर चरण तक के विकास का एक खाका प्रस्तुृत किया था और वह इसलिए कि अंग्रेजी ज्ञान की भाषा है, इस भ्रम का शिकार नहीं हुआ था।‘’

‘’वह सब तो ठीक है यार, लेकिन फिर भी अगर तुम अपने बारे में चुप रहते तो क् अच्छा नहीं होता।‘’

‘’होता, यदि उस सच को दबाने या उससे ध्यान हटाने की कोशिश लगातार किसी न किसी रूप में जारी न रहती और उसे कहने वाला कोई दूसरा होता तो। तुम सच को व्याक्त करते हो उसकी रक्षा के लिए, यदि उसे किसी शरारत के तहत अनसुनी करने का प्रयत्न हो रहा हो तो थप्पड़ मार कर भी उसकी ओर ध्या न दिलाना होता हैा तुम अपने तर्क का विस्तार करते हुए कह सकते हो हिन्दी तुम्हारी अपनी भाषा है, इसकी शक्ति और उपादेयता की बात करना भी आत्मासक्ति है। तुमने मेरा ध्यान विषय से हटा दिया। मैं केवल यह याद दिला रहा था कि हमारे मन में कहीं गहरे यह भाव जमा हुआ है कि अंग्रेजी के अभाव में हम ज्ञानशून्य हो जायेंगे, जब कि हमने यह पाया कि अंग्रेजी पर भरोसा करने के कारण हम ज्ञानशून्य नहीं तो ज्ञानजड़ बने हुए हैं।”

“तुमने जो उदाहरण दिया वह अपवाद भी तो हो सकता है। क्या यह नहीं मानोगे कि हमारी भाषाओं में उपलब्ध ज्ञान संपदा नगण्य है।‘’

’’किसी का दिया हुआ ज्ञान उसके काम का होता है, हमारे काम का नहीं। यदि ज्ञानसंपदा नगण्यं है तो उसका उत्पादन करना होगा और उसमें अंग्रेजी बाधक बनी रहेगी। भारतीय भाषाओं के साहित्यकार हों या पत्रकार या अध्यापक ये सभी पढ़ते अंग्रेजी में, सोचते घालमेल भाषा में हैं, बोलते हिंग्लिश जिसमें बीच बीच में इंडिश का पुट होता है जो शब्दों तक सीमित नहीं होता, वाक्यो और उद्धरणों को विरामचिऩ्हों की तरह प्रयोग में लाते है, और लिखते अपनी भाषा में हैं, और लिखते समय भाषा की पवित्रता का इतना ध्यान रखते हैं कि अपने ही सोच के हिन्दीतर शब्दों का हिन्दी् में अनुवाद करना जरूरी समझते हैं। इसलिए अंग्रेजी से वंचित होने की कल्पना से उन्हे डर लगेगा ही । वे जुआकड़यों की तरह दिवा-स्वप्न देखते हैं और लुटेरों की जमात का हिस्सा बनते चले जाते हैं जैसे अधिक पानी से तर धरती की लोनी फूल कर ऊपर चली आती है और उर्वर भूमि को ऊसर क्षेत्र में बदल देती है वैसे ही समाज के अघाए हुए, दूर से चमकने वाले, फूले हुए ये लोग किसी भी तरह की पहल की क्षमता खो चुके होते हैं। पता भी है, तुम भी इसी तबके में आते हो।”

“और तुम?”

मैं उनमें आता हूँ जो अल्प से अपार पाने और भोग के पीछे भागने के खतरों को जानते हैंऔर ऊसर क्षेत्र को उर्वरा भूमि में बदलने के लिए जीतोड़ कोशिश करते हुए तुमसे लगातार टकराते रहते हैं । पर वह आग जिसकी ऊर्जा से युगान्तर होता है, मेरे पास भी नहीं है वह उस दबे कुचले और उपेिक्षत तबकेां में है जो इन्सान बनने की छटपटाहट से गुजर रहे हैं, और ऊपर वाले तिरस्कार के साथ बार बार उन्हें नीचे धकेल देते है़, और जो लाचारी में अपने को समझा लेते हैं कि शायद यही हमारी नियति है, और इसलिए सपने उनके पास भी नहीं हैं। उन्हें तो यह विश्वास दिलाना तक कठिन है कि वे भी इन्सान हैं। जो आदमी ही नहीं बन पाए वे सपने नहीं देख सकते। सपने देखने के लिए जिस सुकून की जरूरत होती है वह सुकून छटपटाने वालों के पास नहीं हो सकता। उनके भविष्य के सपने पालने का काम वह कर सकता है जो यातनाओं से गुजरा हो और राहत के क्षणों मे भी उस आग को बचाए हुआ हो जिसकी धीमी आग में सपने पलते और आकार लेते हैं।”f