Post – 2016-03-23

हिन्दीे का भविष्य (15)

‘’दिल पर हाथ रख कर बोलो, क्या तुम सचमुच मानते हो कि अंग्रेजी का स्थान भारतीय भाषाऍं लेने वाली हैं।‘’

“मैं ऐसा नहीं मानता कि मौसम अनुकूल हो तो खेत अपने आप लहलहा उठते है। उसके लिए पहले से कई स्तरों पर तैयारी करनी होती है, प्रयत्न करना होता। जमीन तैयार करने से ले कर सही समय पर बोआई और देख भाल करनी होती है। कुछ न करो तो मौसम की कृपा से जो उर्वरता बढ़ी है उससे झाड़-झंखाड़ उग आते है, जंगल की वापसी हो जाती है। जंगल के कानून काम करने लगते हैं। उत्पादक लुंचक में बदल जाता है और अपनी अपनी मनमानी करने की पशुता को प्रभुता समझने लगता है और आदमी व्यक्ति के रूप में और देश और समाज के रूप में कमजोर और विपन्न होता चला जाता है?”

‘’हमारे साथ यही हुआ है, यही हो रहा है।‘’

मैं हैरान उसका मुँह देखने लगा। यह इतनी आसानी से मेरी बात समझ कैसे गया और समझ भी गया तो मान कैसे गया। ‘’इस तरह घूर क्यों रहे हो, मैंने कुछ गलत कहा।‘’ उसने मुझे ललकारते हुए से स्वर में कहा।

‘’तुमने शत प्रतिशत सही कहा, मैं तो इस बात पर हैरान था कि तुम भी कभी कभी सोचते हो और पार्टी से पूछे बिना अपनी बात कह भी लेते हो। पर जानते हो यह क्यों हुआ है ?’’

वह मेरा मुँ‍ह तकने लगा, कारण उसे नहीं मालूम था। मैंने जबाव देने की जगह प्रश्‍न कर दिया, आदमी और जानवर में फर्क क्‍या है, जानते हो ? शहर, बस्तीे और जंगल में फर्क क्या है जानते हो?’’

नहीं जानता था, क्योंकि अब भी जिज्ञासा से मुझे ही ताक रहा था। मैंने कहा, ”आदमी के पास भाषा होती है, जानवर के पास आवाज जो मिमियाहट, टर्राहट और सरसराहट से ले कर दहाड़ तक पहुँचती है। शहर के लोगो के पास कहने को भाषा होती है परंतु वे जो कहते हैं उसका मतलब वही नहीं होता जो उनके शब्‍दों से प्रकट होता है, इसलिए उनके पास शोर होता है भाषा नहीं होती। बस्ती के लोग जब व्यंजना में बात करते हैं तब भी उनके मन का भाव आईने की तरह साफ समझ में आता है। जंगल में दहाड़ सुनाई देती है, और भय पैदा होता है, पर इससे अधिक कुछ समझ में नहीं आता कि हम जंगल में हैं और किसी भी समय जान पर बन आ सकती है।‘’

तुम हर चीज को इतना फैला देते हो कि शक होता है तुम्हारा दिमाग सही है या नहीं, सीधे नहीं कह सकते ?’’

‘’तुम्हारा उल्लू खींचने में मजा आता है यार, उसे कैसे छोड़ दू और दूसरों को यह समझाने का भी एक मजा है कि देखो, यह मेरा दोस्त तो है पर यह न समझ लेना कि मेरा दोस्त होने के कारण इसके पास धेले की अक्ल भी है।

”अब रही सीधी बात तो यह समझों कि हमारे पास भाषा थी, अब भाषा नहीं रह गई है। एक भाषा लादी हुई जिसे हम सभी समरसता से सीख और समझ नहीं सकते इसलिए वह भाषा से अधिक दहाड़ है, कुछ कहने के लिए नहीं, आतंकित करने के लिए कि मैं अमुक भाव की अंग्रेजी जानता हूँ, वह अमुक मोल की और … आगे तुम कल्प ना से काम ले सकते हो, अक्ल नहीं है तो भी कल्पना तो होगी। अंग्रेजी इंग्लैं ड, कनाडा, अमेरिका, आस्‍ट्रेलिया आदि में कुछ बदले नामों और गुणों के साथ एक भाषा है, भूतपूर्व उपनिवेशों में एक दहाड्। इस दहाड़ की प्रतिध्वनि यह कि वह चला गया, पर उसकी जबान तो हमारे पास है, तुम तब उसके गुलाम थे, अब मेरे। न पहले उसका तुमसे और हमसे सीधा संचार था न हमारा तुमसे आज सीधा संचार है। हम विचार के लिए नहीं दहाड़ के लिए हैं और रहना चाहते हैं। इसलिए अंग्रेजी जानने वाले भारतीय संदर्भ में एक तरह के पशु हैं और जो अंग्रेजी ज्ञान से वंचित हैं, केवल अपनी भाषा के ज्ञान तक सीमित होने को बाध्य है या अभिमान बस अपनी भाषा पर करते हैं, अपनी बोली पर करता है और दोनों का फर्क समझता है, फिर भी हमने स्वतन्त्रता दिवस के बाद से…’’

मैं अपना वाक्य पूरा करता उससे पहले ही वह बोल उठा, ‘‘स्वतन्त्र ता दिवस की जगह स्वतन्त्रता प्राप्ति भी तो कह सकते थे।‘’

‘’कहता, अगर स्वतंत्रता को सभी ने स्वतन्त्रता माना होता । उसी दिन से लोगों ने कहना शुरू कर दिया कि यह आजादी झूठी है और वह रट आज तक जारी है। मैं इस रट के साथ हूँ पर रट लगाने वालों के साथ नहीं, क्योंकि वे अपने को बेच कर आजादी का नारा बुलन्द कर रहे है। बिके हुओं की आजादी मोलभाव करने की आजादी होती है, समाज को उसकी बेडि़यों से मुक्ति देने वाली नहीं। इसे जहाँ पहचाना जाना चाहिए था वहॉं पहचाना नहीं गया। प्रश्ऩ यह नहीं है कि हम आजाद नहीं है, प्रश्न यह है कि हम जंगल को आदर्श मानते हैं और जंगल की आजादी चाहते हैं क्योंकि स्वतंत्रता शब्‍दों में आई, कमीनेपन, धोखाधड़ी और माले गनीमत के रूप में प्रकट हुई और उसी रूप में बनी रही और इसे बनाये रखा उस भाषा ने जो विचार की भाषा नहीं, श्रेष्ठता की दहाड़ की भाषा है। अंग्रेजी से वंचित जनों की भाषा को संचार से बाहर कर दिया गया या ऐसा हीन दर्जा दे दिया गया जिसमें भाषा भाषा न रह कर मिमियाहट बन जाती है। भाषा व्यर्थ हो गई है इसलिए बात बात पर लोग ऐक्शान में आ जाते है। शब्द संचार अवरुद्ध हो गया है इसलिए बल प्रयोग ने भाषा को स्थानान्तरित कर दिया है। अपनी भाषा के तिरस्कार के बाद समाज गूँगा हो जाता है। उसके पास आवाज होती है शब्द नहीं होते। शब्द कोशों में होते हैं और सजीव लगते हैं, हम अपने शब्दों के अनुसार आचरण नहीं करते इसलिए वे मर जाते हैं। शब्‍द अपनी क्रिया के द्वारा जीवित रहते हैं। संज्ञा का क्रिया से संबंध कटते ही भाषा मर जाती है। उसका स्थान पाशविक शक्ति प्रदर्शन ले लेता है।‘’

पहली बार उस पर मेरा प्रभाव पड़ा, ‘’यार इस तरह तो पहले सोचा ही न था।‘’

इस उम्र में भी विद्या बालन हावी हो गई, कहा, ‘’नहीं सोचा था तो अब सोचो।‘’
होली में यह भी संभव है, क्या कीजे।