Post – 2016-03-25

हिन्दी का भविष्य (16)

‘’जब तुम हिन्दी‍ के भविष्य की बात करते हो तो लगता है तुम भारतीय भाषाओं पर हिन्दी को लादने की बात कर रहे हो। अन्तर नाक पकड़ने के तरीके में है, सीधे नहीं तो घुमा कर पकड़ लिया। इसलिए मेरे कई मित्र तो शीर्षक से ही इतना उततेजित हो जाते हैं कि तुम्हें पढ़े बिना ही अपनी कल्पना से जान और मान लेते हैं कि तुमने लिखा क्याे होगा। इससे तो अच्छा होता तुम संस्कृुत के भविष्य की बात करते जिस पर आज कल सरकार की भी कुछ दिलचस्पीे पैदा हुई है।‘’

‘’सरकारों में पढ़ लिखे लोग नहीं होते, नारे लगाने वाले लोग होते हैं। संस्कृत बीते हुए कल की भाषा है, और उस कल में भी वह किताबों की भाषा थी, सामाजिक व्;वहार की भाषा न थी। दैनिक व्यवहार में संस्कृत के विद्वान भी क्षेत्रीय बोलियों का ही व्यवहार करते थे, यह पहले भी निवेदन कर चुका हूँ। जो पूरे समाज के व्यवहार की भाषा न बन सके उसके अतीत में भी कभी उसका वर्तमान न था, आज के लिए तो वह केवल ग्रन्थ भाषा है और उसका बहुमूल्यं हजार साल पहले ही रचा जा चुका था। दूसरे शब्दों में कहें तो वह एक ऐसी भाषा है जिसका चलन एक छोटे से समुदाय में, जिस युग में, था, उसे हम भूल चुके हैं और चाहें तो भी उसकी कल्पना नहीं कर सकते। उसके बहुल रूप वैदिक की बारीकी से छानबीन करें तो उसका कामचलाउू चित्र गढ़ सकते हैं। जिस युग में इसका बाजार और कारोबार के लिए विविध भाषाऍं बोलने वालों द्वारा उपयोग होने लगा था, उस दौर में उस छोटी जमात को छोड़ कर दूसरे सभी अपनों के बीच अपनी बोली का व्यावहार करते थे जिसके कारण आज तक हमारी बोलियॉं जीवित हैं।

संपर्क साधने के लिए वे पूरे क्षेत्र में वैदिक काल की ही तरह किसी बोली को निर्विरोध स्वीकार कर लेते थे। कहें ज्ञात इतिहास में संस्कृत का वर्तमान न था और भविष्य इस बात पर निर्भर करता है कि क्या उसे इतना सरल बनाया जा सकता है कि उसमें वचन, लिंग और सन्धिरूपों की गतानुगतिकता न हो। ऐसा संभव नहीं है इसलिए संस्कृत में ग्रीक की तरह पुरानी ग्रीक जिसमें पुराना साहित्य है और नयी ग्रीक जो आज के व्यवहार की भाषा है, जैसा अन्तर संभव नहीं है। कोई इतना बड़ा रचनाकार संस्कृत का हुआ नहीं जो जयदेव से आगे बढ़ कर इस भाषा में क्रान्तिकारी परिवर्तन ला सके और संस्कृत को लोकग्राह्य और व्यहवहार्य बना सके। और यदि कोई ऐसा कर भी पाता तो भी वह संस्कृत उतनी सशक्त भाषा नहीं होती जितनी हिन्दी है।‘’

‘’यही तो मैं तुमसे उगलवाना चाहता था। तुमने जो मायाजाल फैला रखा था भारतीय भाषाओं के अभ्युदय का उसके पीछे हिन्दी को लादने की लालसा है, इसका शक मुझे बराबर बना रहा है और तुमने हिन्दी को संस्कृत से भी अधिक सशक्त मान कर मेरी आशंका की पुष्टि कर दी।‘’

‘’तुम्हारा दिमाग कभी ठीक हो ही नहीं सकता, क्योंकि ठीक होने के लिए पहले से उसका होना जरूरी है। मैंने एक बार कहा था न कि पार्टी कार्ड थमाते ही काडर का दिमाग उसकी सहमति से रखवा कर फ्रीज कर दिया जाता है और उसकी जगह एक प्रतिनादी यंत्र फिट कर दिया जाता है। जोर जितना भी डालो तुम्हारे दिमाग से वही बाहर आएगा जिसे पहले से भर दिया गया है।

‘’भाषा की सशक्तता यह कि हिन्‍दी संस्‍कृत का सब कुछ अपना सकती है, बोलियों की संपदा भी। हिन्‍दी का व्‍यवहार करने वाले जो छोटी मोटी गलतियॉं करते हैं, हिन्‍दी उनको सहन कर सकती और अपनी शैली का हिस्‍सा बना सकती है और यह किसी भाषा के ऐसे शब्‍दों को पचा सकती है जो व्‍यवहार का हिस्‍सा बन चुके हैं। संस्‍कृत में यह लोच नहीं थी, वह अकड़ी हुई भाषा है, पर हमारे सबसे समृद्ध स्रोतों में से एक है। परन्‍तु यदि भाषा की सशक्‍तता व्यावहारिकता का आधार होती तो अंग्रेजी हिन्दी से बीस तो पड़ेगी ही, उसे विस्थापित करने का प्रश्न ही न उठता। अखिल भारतीय स्तर पर अंग्रेजी जानने वाले हिन्दी जानने वालों की तुलना में कम न मिलेंगे।‘’

‘’यही तो हम कहते हैं, जब एक बार पूरे देश में शिक्षित समुदाय में अंग्रेजी व्यवहार की भाषा बन चुकी है तो उसे उखाड़ने पछाड़ने की जरूरत क्या, है ? यह तो रही मेरी पहली आपत्ति और दूसरी यह कि अखिल भारतीय संपर्क की जरूरत पूरी करने के लिए हिन्दी की जरूरत पड़ेगी यह तुम मान कर चल रहे हो, मतलब कहीं न कहीं हिन्दी साम्राज्य‍वाद की लालसा तुम्हारे भीतर काम कर रही है और इसे कोई स्वी कार नहीं करेगा। तुम्हारी सारी योजना यहीं धरी की धरी रह जाएगी।‘’

‘’तुम ठीक कहते हो, यदि कोई भी भाषा साम्राज्यवादी लालसा पाले तो उसका विरोध एक नैतिक दायित्व बन जाता है और इसीलिए मैंने कहा था, जिस चरण पर इसे सरकारी कामकाज की भाषा बनाने के विरोध में तमिल प्रतिरोध इतना उग्र हो गया था कि आवेश में कुछ ने आत्मदाह तक कर लिया, उस चरण पर इसके आसार भी थे। परन्तु हम हिन्दी को राजभाषा बनाने की बात नहीं कर रहे हैं। राजकीय हस्तक्षेप से भाषाओं का अहित अधिक होता है, हित कम। हम कहते हैं शिक्षा और उच्चतम अवसर तक पहुँचने का माध्यंम मातृभाषाऍं बनें और मातृभाषाओं की बात करते हुए मैं मातृबोलियों और भाषाओं में अन्तर करना जरूरी समझता हूँ। राजभाषाओं को उन राज्यों की मातृभाषा मानने में कोई हरज नहीं है। मुख्य भाषाऍं वे हों, संपर्क के लिए जो भी भाषा उचित समझी जाए वह गौड़ भाषा हो। उसका आधिकारिक नहीं कामचलाउू ज्ञान जरूरी हो। और वह भी सबके लिए नहीं।‘’

‘’मैं इस आधिकारिक, कामचलाउू और कामचलाउू रहित शिक्षाप्रणाली का रहस्या नहीं समझ पाया।‘’

‘’मैं तुम्हें समझाता हूँ, तुम समझना चाहो तो। माजरा 1977 के आसपास का है। जनता दल के हाथ में सत्ताा आई थी। सत्ता प्राप्ति तक का तरीका उन्हें मालूम था, सत्ता सँभाली कैसे जाती है, यह मालूम नहीं था। नादानी के साथ उत्साह और बड़बोलापन बढ़ जाता है और काम का स्थान बयानबाजी ले लेती है। हिन्दी को ले कर भी ऐसी ही बयानबाजी चल रही थी। जमीनी स्त र पर कुछ करने के लिए जो तैयारी चाहिए वह तो इच्छा मात्र से हो नहीं जाती, फिर भी आवेशपूर्ण बयानों से सुनने वाले विचलित तो होते ही हैं। उन्हीं दिनों भाषा के सवाल पर नंबूतिरिपाद ने एक परामर्श गोष्ठी बुलाई और प्रश्न पार्टी से जुड़ा न हो कर एक समस्या‍ से था, मैं जलेस से जुड़ा था, इसलिए मुझे भी उसमें उपस्थित होने का सौभाग्य प्राप्त हुआ। उन्होंने अपनी चिन्ता जताते हुए समझाया कि लोग यह समझते हैं कि दक्षिण भारत के लोग अंग्रेजी अधिक आसानी से सीख जाते हैं, इसलिए वे अंग्रेजी के पक्ष में और हिन्दी के विरोध में हो जाते हैं, यह धारणा सही नहीं है। हिन्दीे को लादना ठीक नहीं है।‘’

‘’तुम्हारी याददाश्त की दाद देनी होगी कि लगभग चार दशक पहले की घटनाऍं और बयान तुम्हें हूबहू याद हैं।‘’ पता नहीं चला कि वह तारीफ कर रहा था या व्यंग्य।

‘’देखो, मैं ठीक उन्हीं शबदों या वाक्यों का प्रयोग नहीं कर रहा हूँ जो उस समय बोले गए थे, मैं उनके मर्म के आधार पर उनकी पुनर्रचना कर रहा हूँ। खैर, मैंने उनसे उस समय की समझ के अनुसार कुछ ऑंकड़ों के साथ अपनी बात रखी। मेरा तर्क निम्न प्रकार था:
(1) किसी भाषा को लादना या किसी लदी हुई भाषा को ढोना दोनो समान रूप में गलत है। मुख्‍य प्रश्न औचित्य का है।

(2) प्रश्न केन्द्रीय कामकाज की भाषा का है। उसको अंग्रेजी रखने से ही काम चलता है तो उन लोगों को जिनको केन्द्रीय नौकरियों में नहीं जाना है या जाने का अवसर नहीं मिलता उन्हें उस भाषा को जानने को बाध्य क्यों किया जाय?

(3) इस देश में इतने बच्चे प्राथमिक कक्षाओं में दाखिला लेते हैं, इतने माध्यमिक तक पहुँचते हैं, और केवल इतने उच्च शिक्षा प्राप्त करते हैं। उच्‍चतम स्तर तक पहुँचने की जिनकी आकांक्षा, अर्हता, या पात्रता तक नहीं होती और जिन्हें जिन्दगी भर अपनी भाषा के सहारे ही काम करना होता है उनके ज्ञानार्जन के बहुमूल्य वर्षों को एक ऐसी भाषा सीखने पर क्यों बर्वाद किया जाय जिसका वे कभी उपयोग नहीं करेंगे और जिस बाध्य‍ता के कारण वे उतना कुछ सीखने से वंचित रह जाते है जिसे उन्हें एक ऐसी भाषा को सीखने पर बर्वाद करना पड़ा जिसका उनके लिए कोई उपयोग नहीं है।

(4) यह देश की जरूरत नहीं है कि अमुक भाषा में काम हो, यह केन्द्रीय सरकार की जरूरत है कि जिस भाषा में वह केन्द्र का काम कराना चाहती है, उसमें काम हो। इसका सीधा समाधान यह है कि योग्यता का आधार ज्ञान और प्रतिभा हो। इसकी परख उनकी भाषाओं के माध्यम से हो। इसका भी कोटा हो तो कोई हरज नहीं, परन्तु चयन का आधार कोई ऐसी भाषा न हो जो उनकी अपनी न हो। चयन के बाद जैसे दूसरी शाखाओं में लोगों को प्रशिक्षण पर रखा जाता है, केन्द्री य सेवाओं में चुने गए सभी लोगों को दो साल की शिक्षा उस भाषा की दी जाय जिसमें सरकार अपना कामकाज कराना चाहती है। इसके बाद मैंने यह सुझाया था कि इससे पूरे राष्ट्र की उूर्जा, धन, साधन की कितनी बचत होगी। और उस बचे हुए धन से शिक्षा के विस्ता र में कितना संसाधन उपलब्ध हो सकता है।

‘’अंग्रेजी के बचाव में एक दूसरा तर्क जो दिया जाता है, वह है, अनुसंधान का। हमारी सन्दर्भ भाषा अंग्रेजी है, पहले संस्कृत हुआ करती थी। जब संस्कृत होती थी तब किसी भी विद्रोही परंपरा के दार्शनिक उत्था‍न के साथ संस्कृंत उस भाषा पर हावी हो जाती थी जिससे यह विद्रोह पनपा था। परन्तु यह एक भ्रम है कि अंग्रेजी विश्व भाषा है। अनुसंधान के लिए हमें दूसरी अनगिनत भाषाओं की जरूरत है। उनकी शिक्षा देने वाली संस्थाओं को प्रोत्सानहित करना और विश्व ज्ञान संपदा के सम्मुख अवरोध बनी अंग्रेजी से मुक्ति पाना, अल्प व्ययसाध्य होगा और अपार लाभ दायी होगा, इसलिए जो लोग अनुसंधान आदि का मंसूबा रखते हैं उन्हेंं इंटरमीडिएट के बाद अपनी चुनी हुई भाषा और उसकी ज्ञानसंपदा हासिल करने में किसी तरह का अवरोध न होना चाहिए। उन्हें सिखाने वाले शिक्षण और अनुसंधान के केन्द्र होने चाहिए।‘’

‘’तुम इस तरह की हॉंकते हुए बोर नहीं होते ? कमाल का स्टै्मिना है। मैं तो फेंट होते होते बचा।‘’ उसको आगे कुछ सुनना ही न था। मैं मिन्नत करता रह गया कि अभी तो भाषा के आधिकारिक ज्ञान, काम चलाउू ज्ञान और उससे मुक्त शिक्षा के मसले आए ही नहीं, पर उसने मेरी मिन्नत पर ध्यान ही न दिया।