हिन्दी का भविष्य (17)
‘’तुम्हें उन रुकावटों का पता है जो तुम्हारे सपनों को धूल में मिला सकती है ?’’
‘’जिनका एक जमदूत सटे पास बैठा को उन्हें जानूँगा कैसे नहीं। मुझे रूकावटों का तो पता है ही, उस पस्तहिम्मती का भी पता है जिसमें सपने तक देखने का हौसला बुझ जाता है, उन दार्शनिकों का भी पता है जिन्हें किसी इमारत के ईंट गारे नहीं दिखाई देते पर उसकी तबाही से उड़ती धूल गर्द उनकी ऑंखों में भर जाती है और परेशान कर देती है। नि:सत्व समाज का महामन्त्र होता है, ‘हमारे करने से क्या होगा’ जिसे दुहराते हुए उसे चादर तान कर सोने की आदत पड़ जाती है।‘’
‘’तुमने तो समाज का बहुत निराशाजनक चित्र खींच दिया यार। कुछ तो सोचा होता कि इसी समाज के अंग तुम भी हो।‘’
‘’तुमने ठीक कहा, समाज शब्द सही नहीं है, समाज का नि:सत्व तबका कहना चाहिए था। किसी भी समाज के सभी तबके कभी नि:सत्व नहीं होते, परन्तु यदि सत्ता और साधन नि:सत्व तबके के पास सिमट आऍं तो जिनमें सत्व होता है वे घुट कर रह जाते हैं। उनकी उूर्जा लौ और प्रकाश देने की जगह धुँआ देने लगती है। उसकी बर्वादी निराशा को और बढ़ा देती है। जिनको यथास्थिति से संतोष है वे बदलाव का विरोध करते हैं, और जिन्हें बदलाव चाहिए वे अपनी बौखलाहट में उनके हाथ का खिलौना बन जाते हैं जो उस दबे कुचले तबके को अनन्त काल कें लिए गुलाम बनाए रखना चाहते हैं और इसके लिए उन्हीं की व्यर्थ जा रही आग का इस्तेमाल लुकाठे के रूप में करते हुए उनका घर जलाने का नाटक रचते हुए, जिन्होंने उन्हें वशवर्ती बना कर कभी रखा था और आज भी समानता का अधिकार नहीं देना चाहते उनका अपना ही घर जला देते हैं। इस आगजनी का उन पर कोई असर नहीं होता जिन्हें वे जला कर सुधारना चाहते है, उनके अपने भीतर यह समझ तक नहीं पैदा होती कि स्थिति में इच्छित बदलाव क्यों नही आता और कैसे लाया जा सकता है। उल्टें वे उनके चंगुल में फँस जाते हैं और उन प्रवृत्तियों को बढ़ावा देते हैं जो उनके भविष्य को अधिक अन्धकारमय बनाती हैं। मैं इसका उत्तहरदायी उनको नहीं मानता। शिकारियों को न दोष दिया जा सकता है, न उपदेश। उन्हें अपने लक्ष्य पूरे करने हैं।‘’
‘’तुम बहकते बहुत हो, किनको शिकारी कह रहे हो, मैं भी तो जानूँ।‘’
‘’मैं बहकता नहीं हूँ, तुम अपने अनाप-शनाप सवालों से मुझे बहका देते हो। यदि शिकारियों की ओर चर्चा मुड़ी तो उन बाधाओं की बात अधूरी रह जाएगी जिनकी आशंका तुम मुझे दिखा रहे थे और जिनकी शक्ति और सीमा का पता मुझे है। इसलिए इस सवाल को अगली शृंखला तक स्थगित रहने दो जब मैं उस तबके को केन्द्र में रख कर अपनी समझ से, तुम्हें, और तुम जैसे दूसरे मित्रों को, अवगत कराने का प्रयत्न। करूँगा। इस समय तो इतनी ही बात तुम्हारी समझ में आ जाय तो मूढ़ कक्षा से अगली कक्षा में जाने का रास्ता खुल जाय जहॉं ज्ञान का ककहरा सीखा जाता है और विज्ञान तक की उड़ान भरी जाती है।‘’
वह हँसता रहा और मैं टी हाउस और काफी हाउस के उन दिनों को याद करके मुस्कराता रहा जब हमारी समझ से टॉंग को अल्लााताला ने चलने के लिए नहीं, खींचने के लिए बनाया था और हम उसके इरादे पर पानी नहीं फेरना चाहते थे इसलिए बकवास को बुद्धिमानी और सही सोच-विचार को बोरंबोर मानते थे। समय कट जाता था, तबीयत भी हल्की हो जाती थी, पर दिमाग पहले से अधिक खाली हो कर लौटता था, इसलिए सिर पर किसी तरह का बोझ होता ही नहीं था। इसी में एक पूरी पीढ़ी की बौद्धिक उूर्जा लोनी में बदल गई और सतह से उूपर दिखने की ललक में एक पीढ़ी इतिहास पर कब्जा करने की कोशिश में इतिहास से बाहर हाे गई।
वह कुछ कहने को तैयार दिखा, मैंने रोक दिया, ”यार बात बढ़ जाएगी। तुम्हें अपने पहले आलोचक सीताराम बारी की टिप्परणी सुनाउूँ । वह अनपढ़ थे। मेरे घर के छोटे मोटे काम कर दिया करते थे। कलकत्ते में नौकरी करने वाले अपने भाई को चिट्ठी लिखवाने आते थे। यह मेरे मिडिल स्कूल तक का समय था। वह बताते अमुक का सलाम, अमुक का सलाम और यह दर्जन के करीब पहुँच जाता। मैं उनकी बात सुन कर लिखता अमुक अमुक का सलाम। वह लंबा पँवारा लिखवाने के बाद लिखने को कहते थे, थोड़ा लिखना बहुत समझना, चिट्ठी को तार समझना और लौटती डाक से इतना रुपया भेज देना। वह उस पत्र को इत्मीनान के लिए कई लोगों से पढवा कर जानना चाहते थे कि उनकी बात सही सही लिखी गई है या नहीं और उनकी आलोचना जिससे मैं पूरी तरह सहमत हूँ यह थी कि भगवान बाबू, आप की लोग इतनी तारीफ करते हैं, लेकिन आप को तो चिट्ठी भी लिखनी नहीं आती है।‘’
”तब उनका यह कथन मूर्खतापूर्ण लगता था, यह समझने में लंबा समय लगा कि सीताराम मेरी जानकारी में मेरे सबसे बड़े आलोचक थे और जिन नामों के साथ यादों और स्नेंहस्मरणों का पुनरावर्तन था, उनका संवेदनात्मक संचार कितना गहन होता है इसका ध्यान जगन्नाथ दास रत्नामकर के ‘हमको लिखो है कहा, हमको लिखो है कहा, हमको लिखो है कहा, कहन सबै लगीं, पढ़ने के समय भी नहीं आया। लंबा समय लगा। व्यर्थ प्रतीत होने वाली उक्तियों के मर्म को समझने में युग लग जाते हैं।
‘परन्तु इस समय मुझे अपने एकमात्र विश्ववसनीय आलोचक सीताराम बारी की याद इसलिए आई कि अनुभव से पता चला कि फेस बुक पर थोड़ा कहने पर लोग बहुत अधिक समझते हैं और अधिक कहने पर समझने की जरूरत ही नहीं समझते। अब शामत तुम्हा री है, एक ही विषय या पक्ष को टुकड़ों टुकड़ों में गिलहरी की तरह कुतरना और दुम लहराते भागना होगा।”
उसने ठहाका भरा, ‘’तुमने अपने लिए बहुत सही उपमा चुनी है।‘’