. हिन्दी का भविष्य (१४)
“देखो, तुम स्वप्नजीवी हो। जागते हुए भी सपने देखते रहते हो। यह नहीं समझ पाते कि गणित के िनयम समाजशास्त्र में फेल कर जाते हैं।”
“सूत्र साहित्य का अध्ययन कर रहे हो शायद । अपने कथन का भाष्य करो तो कुछ पल्ले भी पड़े।”
“तुम यह नहीं देख पाते कि दुनिया को ईश्वर नहीं चलाता, उँगलियों पर गिने जाने वाले कुछ लोग चलाते हैं, जिन्होंने किसी न किसी फितरत से संपत्ति के साधनों पर कब्जा कर रखा है और वे तुम जैसे बुद्धिजीवियों को खरीदने के तरीके जानते हैं।”
“जो बिकना ही न चाहे उसे कौन खरीद सकता है, यार! जिसे धन, पद, प्रतिष्ठा किसी का लोभ न हो उसे खरीदने वाला तो अभी न पैदा हुआ, न आगे होगा।”
उसने जोर का ठहाका लगाया, “जो बिकने को तैयार रहते हैं, यहाँ तक कि जो गले में ‘फार सेल’ की तख्ती लटकाए घूमते हैं, उनको गाहक भी आसानी से नहीं मिलते यह तो बेकारों की कतार की लंबाई से ही समझ सकते हो। जो बिकना नहीं चाहता उस पर खरीदने वालों की खास नजर रहती है। वह जो दुर्लभ है वह उनके पास होना चाहिए। वह तो अमोलक हीरा है। जो दाम से नहीं खरीदा जा सकता उसे दान से खरीद लेंगे, संदान से खरीद लेंगे।‘’
‘’कम्युमनिस्टा हो, श्रमदान को संदान बोल रहे हो शायद।‘’
‘’श्रमदान नही संदान ही बोल रहा हूँ। संदान का मतलब कहीं मुक्तहस्त
दान न समझ लेना, इसका मतलब जानवर को कब्जे में करने की वह रसरी है जिससे वह छूटना चाहे तो तड़प उठे। इसे हिन्दी में नकेल कहते हैं और जानते हो गले की रस्सी से. पॉंव छानने के फन्दे और मुँह बॉंधने की जाबी और पूँछ के नीचे की रस्सी इन सभी का इन्तजाम उनके लिए है जो दाम से काबू में नहीं आते। समझ में आया, जिन्हें दाम की तलाश होती है वे इंसान होते हैं, और जो दाम की ताकत को नहीं जानते वे इन्सानों से उूपर उठने की कोशिश में इंसान नहीं रह जाते, कुछ और हो जाते है और उन्हें दान के संदान से काबू किया जाता है।
“जानते हो, अपने को अनमोल और सभी तरह की बोलियों से उूपर समझने वालों को पैसे वाले सचमुच बिना मोल खरीद लेते हैं। उसके अहं की तुष्टि करके, उसके आगे माथा रगड़ कर। आप महान हो जी, कहते हुए वे सोचते हैं पर बोलते नहीं, उल्लू अलग से क्योंकि सब को कुछ न कुछ चाहिए, आप सेतमेत बिकने को तैयार, पर बाजार से दूर अकड़े बैठे हो।‘’
मैं चाकचिक्य भाव से उसे निहार रहा था। इसकी जिह्वा पर क्याे सचमुच सरस्व ती विराजमान हो गई हैं। वह अपनी रौ में था। मेरी ओर उसका ध्याान ही नहीं था। वह इस समय पूरे जमाने से बातें कर रहा था।
‘’वे कुछ नहीं करेंगे। तुम्हारे सामने सिर रगड़ कर चले जाएंगे। तुम समझोगे तुम्हारा कुछ बना बिगड़ा ही नहीं और पूरी दुनिया को पता हो जाएगा कि तुम्हारा उपयोग कर लिया गया। और सुनो, जिस समय वह तुम्हारे सामने माथा रगड़ रहा था उस समय यदि तुमने उसे इससे विरत करने के लिए उसके सिर पर पॉंवों से ठोकर भी मार देते तो भी अपने को बिकने से बचा नहीं सकते थे। वह तुम्हारी इस चोट पर मुस्कदराता हुआ, भगवन आपके पॉवों को चोट तो न आई, कहता हुआ तुम्हारा दासानुदासवत उपयोग करने में सक्षम हो जाता। बुद्धिजीवियों के साथ सदा से यही हुआ है। खरीदने वालों के सामने दुनिया का बड़ा से बड़ा बुद्धिजीवी दिमाग से कोरा साबित होता है। ”
मुझे हैरानी हो रही थी कि नारे लगाने वाला यह आदमी सोचने कब से लगा। भीतर से खुश था कि मेरी संगत का इतना असर तो हुआ। पूछा, “तुमने एक झटके में इतनी लम्बी छलांग लगाई है कि मैं तो सोच कर हैरान हूँ कि तुम्हारा दिमाग सही हुआ कैसे? पार्टी से नाता तोड़ लिया क्या?”
“पार्टी से नाता क्यों तोड़ूँगा। तुम्हारी तरह ढुलमुल हूँ ? कल एक शास्त्री जी मिल गए थे। बड़े गुस्से में थे। तुम लोगों को बहुत गालियाँ दे रहे थे।”
“तुम लोगों का मतलब ?”
“क्षत्रियों को । और तुमको तो खास तौर से। तुम्हीं ने ‘अपने अपने राम ‘ लिखा है न। उसे पढ़ कर इतने उत्तेजित थे कि कभी चेहरा लाल होता, कभी सॉंवला पड़ जाता और सच मानो, कभी इतना काला कि लगता वह जल कर कोयले में बदल गए हैं। कह रहे थे हमारी कमाई हुई जमीन पर बाहुबल से कब्जा करके इन्होंने हजारों साल से हमें लगातार बेवकूफ बनाया, दर दर का भिखारी बना कर छोड़ दिया और ताली बजाते रहे, क्या त्याग, क्या तपस्या।, ‘चरणों की धूल मिल जाय वही माथे लगा लें’, और हमारे पुरखे अपने ही मुख से ‘बाभन को धन केवल भिक्षा’ और ‘ न वै ब्राह्मणाय श्री रमते’ गाते हुए झूमते दर दर की ठोकरें खाते रहे। हम अपने को ज्ञानी मान कर खुश थे जब कि हमारा उपयोग वे कर रहे थे जिन्होंने लाठी के बल पर जमीन पर कब्जा् कर लिया था। सोचते हम थे, काम उनके आता था।
‘’उन्हीं का कहना था कि सोचने वाला सबसे बड़ा बेवकूफ होता है। वह चाहे आइंस्टााइन ही क्यों न हो। बम का फार्मूला उसका सोचा हुआ, इस्तेमाल करने वाले उसका और उसके फार्मूले का इस्तेमाल कर ले गए और वह चीखता ही रह गया, मैंने इसके लिए तो नहीं दिया था यह मन्त्र । अब तुम बताओ, जो इस्तेमाल कर लिया जाता है वह ज्यादे समझदार हुआ या वह जो उसका इस्तेमाल कर लेता है। इसलिए वह कह रहे थे विचार से काम मत लो, हथियार उठाओ।‘’
‘’और फिर भी तुम इतने मूर्ख निकले कि हथियार लिए बिना ही चले आए। हथियार उठाने वालों को हमारे यहॉं क्या कहा जाता रहा है जानते हो। उद्दंड। शास्त्री जी का विचार तुम्हें इसलिए पसन्द आ गया कि तुम लोग भी उद्दंड हो। पर पूरी दुनिया में फेल इसलिए भी हो गए कि डंडा हवा और पानी को तोड़ नहीं सकता और वे इसे भी तोड़ने चल पड़े थे।
”जिसे तुम क्रान्ति कहते हो उसे हमारे यहॉं उपद्रव कहा जाता रहा है और कारण मैंने बहुत पहले बता दिया था कि यदि एक साथ किसी भी प्रकार की अपार उूर्जा का उृत्सर्जन हो जिसे नियन्त्रित करने की युक्ति का विकास नहीं किया गया है तो वह विनाशकारी होगी, वह उपद्रव का ही एक रूप होगी। जिसे तुम एक झटके में उूपर उठना या भाग्य परिवर्तन कहते हो, उसे हमारे यहॉं उद्वेग कहा जाता रहा है। इसके लिए जो क्रिया की जाती थी उसे उत्पापत कहा जाता था। तुम मुझे किसी सपने से जगाना चाहते थे या जागना, सोचना विचारना व्यर्थ है, यह समझा कर सो जाने और बिना कुछ किए सपनों में खोने की लोरी सुना रहे थे ?’’
आज वह जोश से भरा था। हार मानने की तो उसकी आदत ही न थी। बोला, ‘’देखो, तुम जो यह सोचते हो कि किसी दिन तुम्हारी योजना किसी व्यक्ति या दल की समझ में आ जाएगी और वह इसको एक बड़ा मुद्दा मान कर आन्दोलन छेड़ देगी और तुम्हारा सपना सचाई में बदल जाएगा, तो यह समझो कि सताए हुए लोगों के संख्याबल से इतिहास बदल सकता तो कम से कम सभी लोकतांत्रिक देशों में समाजवाद तो आ ही गया होता। आया कहीं ?’’
‘’नहीं आया, न जैसा मैंने कहा, अपने चरण से पहले आ सकता है। आएगा, जब पूँजीवाद अपनी सर्जनात्मकता खो देगा, भीतर से खोखला हो जाएगा, वह केवल उत्पीड़न का साधन बन जाएगा। उसके बाद भी जिनके हाथ में हथियार हैं जो हथियार के ही कारोबार को सबसे अच्छा व्यापार समझते हैं, वे हथियार के बल पर दूसरों का विनाश करते हुए पूँजीवाद को बचाना चाहेंगे, पर सब कुछ बेकार जाएगा। जब संस्था या व्यवस्था भीतर से निसत्व हो जाती है तो हथियार बनाने वाले हाथ बेजान हो जाते हैं, हथियार उठाने वाला हाथ और दिमाग सुन्न हो जाता है।
‘’जहॉं तक भाषा का प्रश्न है, अंग्रेजी की सर्जनात्मकता चुक गई है, इसने ऐसा एक भी दिमाग नहीं पैदा किया जो अपनी मात़ृषाओं के माध्यम से शिक्षित होते हुए पुरानी शिक्षा प्रणाली के हमारे चिन्तकों की समकक्षता में आ सकें। हमें ज्ञान, विज्ञान, समाजदर्शन, साहित्य सभी क्षेत्रों में दृष्टान्त के लिए उस जमाने के लोगों को याद करना होता है। क्यों ? क्योंकि अंग्रेजी के वर्चस्व् वाली इस शिक्षाप्रणाली ने हमें भीतर से नि:सत्व कर दिया है। अब यदि तुम्हेंं नोबेल मिलता है तो यह प्रमाणित करने के लिए कि भारत एक पिछड़ा देश है जिसमें बाल मजदूरों से काम लिया जाता है इसलिए वहॉं का माल आयात करना बालकों के प्रति क्रूरता को बढ़ावा देना है। पाकिस्तान को इसलिए कि यह दिखाया जा सके कि वहॉं लड़कियों को शिक्षा से वंचित करने के लिए किस सीमा तक क्रूरता बरती जाती है, किसी महान आविष्कार या चिन्तन या अनुपम उपलब्धि के लिए नहीं।”
‘’बड़े गावदी हो यार। क्या तुम इस सचाई से भी इन्का्र करते हो कि भारत में आज तक बाल श्रम जारी है और पाकिस्ता्न में स्त्रियों की शिक्षा को हतोत्साहित किया जाता है?‘’
‘’इन्कार नहीं करता, बल्कि यह बताता हूँ कि यह भी अंग्रेजी में शिक्षा का ही परिणाम है। यह शिक्षा उन कोनों, दरबों, स्तरों तक पहुँच नहीं सकती जिनमें सड़ने वाले लोग अपने बच्चों को पढ़ाऍं तो भी पढ़ा नहीं सकते इसलिए मैदान में उतरते ही जंग हार जाते हैं। वे जानते हैं कि इस देश में जहॉं अंग्रेजी का वर्चस्व है, वे लाख जतन करे, शिक्षा में आगे नहीं बढ़ सकते। अन्त में जिन्दा रहने के लिए वही काम करना पड़ेगा जो अब तक करते आए हैं। पाकिस्तान की बात अलग है और पूरे पाकिस्तान में यह स्थिति नहीं है। मैं उसके बारे में इतना कम जानता हूँ कि कुछ कहना नासमझी होगी, फिर भी इस सन्देश को पढ़ना कठिन नहीं है कि इन दोनों का साहस और त्यााग से, दृढ़ संकल्पन से जितना भी संबंध हो, असाधारण बौद्धिक उत्कर्ष से कदापि नहीं। उल्टे यह बौद्धिक खालीपन का दस्तावेज है और इसके पीछे है अंग्रेजी की वरीयता जिसने हमें बड़े सपने देखने तक से वंचित कर रखा है।
‘’तुम अपनी जिस महरी की बात कर रहे थे, उसकी तड़प को देखो। वह बिना कुछ बोले चीख रही थी कि हमें अपनी संतानों को अपनी दशा में नहीं रखना है। इसके लिए हम कुछ भी कर सकते हैं। और फिर इस माध्य म के कारण उसकी थकान और पराजय की कल्पना करो। अंग्रेजी के साथ वह ऐतिहासिक चरण आ गया है जहॉं इसने उपनिवेशों या कहो उन देशों के लिए अपनी नि:सारता प्रमाणित कर दी है कि इससे देश का वर्तमान बदहाली की दिशा में बढता आया है और भविष्य में यह इस शिक्षा और ज्ञान व्यवस्थाा के बल पर चल नहीं सकता । वह निर्वात उसने अपने आप तैयार किया है और आवश्यकता इसे भरने वाली एक पहल की है। 22.3.2016