Post – 2016-03-19

हिन्दी का भविष्य (१३)

“तुम भाषा पर बात करते हुए सभ्यता पर पहुँच जाते हो, सभ्यता से उछल कर धर्म चर्चा करने लगते हो, तुमसे किसी बात पर चर्चा की जा सकती है?”

“बातचीत भी अगर क्लास लेक्चर की तरह होने लगे तब तो परीक्षा प्रणाली पर भी विचार करना होगा । तुम्हें तो यह भी भूल गया कि इस भटकाव की जिम्मेदारी भी तुम्हीं पर आती है। तुमने अंग्रेजी के विस्तारवाद की हिमायत करते हुए स्वयं मेरे किसी अन्य सन्दर्भ में ट्वायन्बी के जुमले जड़ दिए और वह भी यह भूलते हुए कि वहीं पणिक्कर के हवाले से मैंने इस सर्वग्रासी विस्तार की निस्सारता को भी रेखांकित किया था।
मुझे बीच बीच में तुम्हें यह याद दिलाना भी जरूरी लगता है कि विदेशी भाषा तो हमारे काम की है ही नहीं, उसमें उपलब्ध ज्ञान-भंडार भी हमारे काम का नहीं होता। यह भी याद दिलाना चाहता था कि जो समाज अपनी भाषा में काम नहीं करता, वह अपने ज्ञान का उत्पादन भी नहीं कर सकता। वह याचक बना रहेगा और इसी पर गर्व करेगा। साथ ही यह भी कि परायी भाषा में तुम्हारे द्वारा उत्पादित ज्ञान भी घटिया स्तर का होता है, क्योंकि परायी भाषा को साधने में ही तुम्हारी अपार बौद्धिक ऊर्जा बर्वाद हो जाती है और तुम यह आतंक पैदा करने में भले सफल हो जाओ कि ज्ञान का अकूत भंडार जिस भाषा में भरा पड़ा है उस तक सीधी पहुँच के कारण तुम्हारी जानकारी भी उनसे अच्छी होगी जो उस भाषा को धड़ल्ले से बोल और लिख नहीं पाते, परन्तु तुम्हारी दुर्गति का हाल होगा कि तुम यह तक नहीं जान पाओगे कि तुम्हारी मातृभाषा में क्या लिखा जा रहा है या दूसरी भारतीय भाषाओं में क्या लिखा जा रहा है। उसे जानने के लिए तुम उसके अंग्रेजी में अनूदित होने की घड़ी तक प्रतीक्षा करोगे। तुम्हारी यह जानने में कोई रुचि शायद ही रह जाय कि तुम्हारे देशज ज्ञानमंडार में पहले से क्या सुलभ है, या तुम्हारे आसपास के लोग कैसे रहते हैं, क्या सोचते हैं, किन समस्याओं का सामना कर रहे हैं । और अंग्रेजी में जो कुछ तुमने पढ़ा है और जिसके गरूर में तुम्हारी गर्दन की अकड़ से सर्वाइकल स्पांडेलाइसिस का भरम होने लगता है वह उस साहित्य और ज्ञानसंपदा का अहोअहोवादी पाठ होगा जो दिमाग को काठगोदाग बना देता है पर मन्थन का कठाला नहीं।
यह उन कारणों में से एक है कि पाश्चात्य मान्यताओं को बदलने या समृद्ध करने में हमारा कोई योगदान नहीं है। अंग्रेजी में लिखने वाले भारतीय लेखक या बिलायती काट की रचना अपनी भाषा में करने वाले लेखक भारत में अंग्रेजी के बाजार भाव के कारण कीमती ही नहीं, कभी कभी दुर्लभ होने तक का भरम भले पैदा कर लें, पर जिस भाषा में वे लिखते हैं उन देशों में उनको अपने काम का समझ कर रियायत दी जाती है, महत्व नहीं।
पुरस्कारों पर मत जाना, ये उपयोगी मान कर दिए गए चारे हैं, जो पालतू बनाए रखने के लिए बहुत सूझ-बूझ से दिए जाते हैं और इनके पीछे कई तरह के सन्देश होते हैं और उन संदेशों की कई तरह की अन्तसर्ध्वंनियॉं होती हैं जिनका विविध स्तरों पर कूटनीतिक से लेकर हाय बेचारे ऐसे हैं, इतने जाहिल, इतने पिछड़े इतने भ्रष्ट और इनका एक उपयोग मिशनरी फंडिंग के लिए भी होता है। इन बेचारों के उद्धार के लिए कुछ करना जरूरी है और जो उद्धार में जुटे हुए हैं उनकी मॉंगे पूरी करना ईसाइयत के लिए न सही मानवीयता के लिए जरूरी है।
वे केवल सामाजिक नृतत्व के उन पहलुओं को उभारते हुए लिखी गई साहित्‍य सर्जना या पत्रकारिता होती है जिसे पिछड़ेपन और गिरावट से अलग कुछ दिखाई नहीं देता। यदि अधिक उत्तेजक वर्तमान में नहीं मिलता तो अतीत से निकाल कर बताओ कि कभी ये इतने गर्हित थे और इसे समय काटने के लिए शिथिल क्षणों में पढ़ने वाले मान लेंगे कि ये आज भी ऐसे हैं। इससे यूरोपीय श्रेष्‍ठताबोध को खूराक मिलती है और आप को अकूत सराहना जो एक कृति के रूप में उसे नहीं मिल सकती।
सती प्रथा कब की खत्म हो गई और उसके प्रति श्रद्धा निवेदन तक को अपराध बना दिया गया, पर फायर बननी चाहिए, इसलिए भारतीय भाषा में नहीं अंग्रेजी में बननी चाहिए। देवदासी प्रथा उसी का पाठान्तर था और ये दोनों उस बंगाल से जुड़ी थीं जो कई मामलों में आत्मनिरीक्षण करने से कतराता रहा है, पर वाटर बननी चाहिए, क्योंकि पश्चिम में इसका बाजार है, सत्कांर है और भारत में भी अंग्रेजी दिमाग वालों को इस पर आपत्ति करने वाले जाहिल लगने लगते हैं।

आज जब सभी मतों, संप्रदायों, वर्णों और जातियों के विपन्न और तिरस्कृत लोगों को यह चेतने का समय है कि जहॉं प्राणरक्षा तक समस्या है वहॉं अंग्रेजी सीखना उनके लिए असंभव है और इसलिए उनको उस भाषा की अस्मिता के लिए लड़ना है, उसके सशक्तीवकरण के लिए एकजुट होना है जिसके बिना उनके आगे के रास्ते टुकड़े बीनने और गिनने से आगे नहीं जा सकते। चालाक लोग जघन्य तरीकों से इतिहास में से कहानियों के एकलब्य और शंबूक और संविधान के आने के साथ ही अभिलेखागार की वस्तु बना दिए गए ग्रन्थों को उन तबकों के मेधावी तरुणों को ऑंखों के सामने आग के अक्षरों में पेश करते हुए उनकी उूर्जा को नष्टं करने और पूरे समाज को पीछे ले जाने वाले उपद्रवों का हिस्साे बनाने में सफल होते हैं और हमारे बुद्धिजीवियों के बौद्धिक बधियाकरण का यह हाल कि वे इन्हें क्रान्तिकारी कदम बताने के तरीके और तर्कजाल तैयार करने लगते है – मंच से ले कर मचिया तक इस्तेिमाल किए जा रहे जज्बातती छोकरों को अपराधी सिद्ध करने या बचाने के पक्ष विपक्ष में बहस करते दिखाई देते हैं। बौद्धिक बधियाकरण के ऐसे आश्चर्यजनक नमूने हमारे समाज में इसलिए उजागर हो रहे हैं क्योंकि इसका सोचने का नाटक करने वाला और विचारों का प्रचार करने वाला तन्त्र अंग्ररेजी जानता है पर अपने देश को नहीं जानता, अपने आप को नहीं जानता, उन खतरों को नहीं जानता जिनसे खेलने के लिए भी उनकी पहचान जरूरी है। यह इस बात का भी मानदंड हो सकता है कि अंगरेजी हमें समझदार बनाती है या हितबद्ध
और दुर्भाग्य से शिक्षा और ज्ञान की भाषा अंग्रेजी बना दी जाने के कारण, इन स्रोतों पर पलने और इनसे ही अभिज्ञ होने वाले अपनी शिथिलता में मान लेते हैं कि जब इतने समझदार लोग ऐसा कहते हैं तो ठीक ही कहते होंगे। इस दबाव में अनपढ़ नहीं आता और इसलिए परीक्षा की घडि़यों में वह इन बधिया विचारकों को चकित करते हुए अपने निर्णय देता है और तब इनकी समझ में आता है कि वे गलत थे, अनपढ़ भारत सही था।

जहाँ तक भारतीय बोलियों में अंग्रेजी के शब्दों के प्रवेश की बात है, वह एक स्वाभाविक प्रक्रिया है। यदि अंग्रेजी शिक्षा को भारतीय भाषाओं से अधिक महत्व दिया जाएगा, लोग शैशव से ही अपनी संतान को शिक्षित करने के नाम पर उसके शब्द, अंक आदि सिखाने और एक खास अर्थ में उन्हें उत्पीड़ित करने लगेंगे और उनकी प्रतिभा का विकास करने की जगह उनको रट्टू तोता बनाना आरम्भ करेंगे। शिशु को सबसे पहले नाते रिश्ते के लोगों से पाला पड़ता है अतः ऐसे परिवारों में और उनके माध्यम से दूसरों के बीच भी इनकी स्वीकार्यता बढ़ेगी। यही क्रम संख्या और दिनों, महीनों के नाम के मामले में बना रहेगा। ज्ञान या शिक्षा की भाषा बदलते ही स्थिति उलट जाएगी। कहो, यह अंग्रेजी के बढ़ते प्रभाव के कारण नहीं है, अपितु हमारे द्वारा स्वयं अपनी भाषाओं की उपेक्षा के कारण है।

पहली बात यह समझो कि अंग्रेजी से मुझे कोई दुराव नहीं है, प्रश्न है कि क्या हम उसे पूरे देश की बोलचाल की, सामान्य व्‍यवहार की भाषा बना सकते हैं। नहीं। भाषा का निर्णय समाज का विपन्न वर्ग करता है। बाजार की भाषा न कि पंडितों की भाषा को किसी क्षेत्र की भाषा माना जाता है। यदि किसी चमत्कार वश समस्त भारतीयों का आर्थिक स्तर ऐसा होता कि वे सभी उन कारोबारी शिक्षा संस्थानों में समान स्तर पर भरती हो कर अंग्रेजी सीख पाते और आर्थिक स्तरों के अनुसार अंग्रेजियॉं न होतीं, बिकाउू माल की सड़ी गली से लेकर ताजी और बासी और खरी और खोटी के अनगिनत स्टाल न लगे होते, तो अंग्रेजी से अभिभूत यह देश कभी का समग्रत: अंग्रेजी भाषी बन चुका होता । भारतीय भाषाओं को विपन्नों ने बचा रखा है, संपन्न लोग तो उसे कभी के छोड़ चुके हैं।
रहीम का वह दोहा याद है
सर सूखे पंछी उड़ें औरे सरहिं समाहिं।
दीन मीन बिनु पंख के कहु रहीम कित जाहिं।
पंख वाले उड़ कर अंग्रेजी के सरोवर में बहुत पहले से बिहार करने पहुँचने लगे थे। याद है बिग बी अर्थात् तेल बेचने वाले बच्चन के पिता छोटे बी अर्थात् हरिवंशराय ने जो हर हिन्‍दी भाषी की जबान पर चढ़ना चाहते थे, अपनी संतानों को अंगेजी के हवाले कर दिया और इतने बड़े कवि के इस चुनाव ने पैदा किया तेलमालिश करने वाला पैसे का भूखा कलाबिक्रयी, जो काम हिन्दीे के कवि छोटे बी अर्थात् हरिवंशराय बच्चेन कभी नहीं कर सकते थे। हिन्दी ने हमें एक स्वा्भिमानी कवि दिया था और अंग्रेजी ने उसकी संतान को कलाकार तो बनाया पर तेलमालिश करने की गिरावट तक पहुँचा दिया।

हमें अपना सम्मान तो चाहिए ही, यह समझ भी होनी चाहिए कि भाषा को एक अर्थशास्त्रीय मिट्टी, खाद और पानी ही नहीं पर्यावरण भी अपेक्षित होता है। नागरिकों की सभी विशिष्टाताओं से निरपेक्ष समानता का गीत गाने और अवसर की समानता का दम भरने के लिए सभी को एक भाषा सुलभ कराओ, वह अंग्रेजी ही क्यों न हो, मुझे आपत्ति नहीं। इसके लिए आर्थिक समीकरण या अभावग्रस्त,, स्वा्वलम्बी और सुविधासम्पनन्न के आर्थिक भेद को मिटाना होगा। वह तुम कर नहीं सकते इसलिए अल्पतम समाधान यह है कि हमारी भाषाओं की खोई हुई गरिमा को बहाल करो, इनके ज्ञान और अवसर की पराकाष्ठाओ तक पहुँचने का रास्ता खोलो, जो अंग्रेजी के वर्चस्ब के रहते संभव नहीं और यह अंग्रेजीप्रेस और उससे हितबद्ध लोग है जो हमारे ओजस्वी तरुणों को वर्तमान से उठा कर इतिहास में फेक दे रहे हैं और वे इस साजिश को समझ तक नहीं पा रहे है। लम्बी है भ्रम की रात मगर रात ही तो है।