Post – 2016-03-16

हिन्दी का भविष्य (१२)

“तुम केवल उतनी बात समझते और याद रखते हो जिससे तुम अपनी मान्यता पर अड़े रह सको। मैंने जब ट्वाएन्बी की बात की थी तो यह भी कहा था कि वह ईसाइयत से आसक्त थे और इसके कारण उनका सभ्यता-विमर्श गड़बड़ हो गया, यह आलोचना उनके महाग्रन्थ के प्रकाशन के बाद ही आने लगी थी। उनकी पहली नासमझी तो यह थी कि वह धर्म को सभ्यता मान बैठे और उन धर्मों की जीवन्तता की बात करने लगे जो अपने विस्तार के लिए हिंसा का सहारा लेते रहे हैं और जिनका कोई दार्शनिक आधार नहीं ह़ै इसलिए जो विश्वास या फेथ पर आधारित हैं। हिंसा और अतर्क्यता दोनों सभ्यता द्रोही हैं और इसलिए हिन्दू धर्म में आत्मनिरीक्षण, समायोजन, परिवर्तन और पुनराविष्कार की इतनी क्षमता है कि आए दिन नई व्‍याख्‍यायें और आन्‍दोलन जगह पाते रहते हैं। बिना किसी के साथ छेड़छाड़ किए भी यह इतना शक्तिशाली लगता है कि इसके संपर्क में आने वाले सामी विश्वास के लोगों को घबराहट होती है कि यह हमारी मूल्य व्यवस्था को बदल कर पूरा का पूरा हजम कर जाएगा। यह दहशत ही इस बात का प्रमाण है कि मूल्यव्यवस्था के मामले में ये सभी हिन्दुत्व के सामने अपने को लचर पाते रहे हैं और इसलिए उन्होंने आत्मरक्षा के लिए प्रतिलोम मूल्यों का सहारा लिया है। हिन्दू गाता है ईश्वर अल्ला‍ तेरे नाम सबको सम्मति दे भगवान। वह अपने सर्वोपरि को दूसरे मत के सर्वोपरि देव के समकक्ष मान कर उसका भी सम्मान करता है, और यह दूसरे के मन मे बेचैनी पैदा करता है, क्योंकि यह उसके कट्टर विश्‍वास ‘ला इलाह इल अल्लाह’ या अल्लाह के अतिरिक्त कोई सर्वोच्च सत्ता है ही नहीं। फिर अल्लाह से इतर ईश्वर कैसे हो सकता है। अल्लाह, या गॉड या याह़ू अपने कबीलों के सरदार के रूप में कल्पित किए गए, क्योंकि वे उस विश्वास से जुड़े कबीलों के परमेश्वर हैं जिनके अमल में दूसरे मानव समुदाय नहीं आते, जिनकी अंतिम कसौटी अन्धविश्वास है, न कि नैतिक आधार, जिस दशा में किसी भी धर्म या विश्वास का असाधारण प्रतिभाशाली या सदाचारी या लोकोपकारी व्‍यक्ति सम्मान का अधिकारी हो पाता। इसी तर्क से ‘ला इलाह इल अल्लाह’ में अंधविश्वास रखने वाले मुहम्मद अली ने अल्ला ईश्वर तेरे नाम का पाठ पढ़ाने वाले गॉंधी को गिरे से गिरे हुए मुस्लिम से हेय बताया था और इस पर आपत्ति करने वालों को गांधी जी ने रोक दिया था। वह जानते थे कि एक सच्चा मुसलमान होने के नाते वह इसके अतिरिक्त कुछ कह ही नहीं सकते थे। मुसलमान मुसलमान होने के कारण अपनी सारी बुराइयों के बाद भी अल्लाह का बन्दा है, जो उस अल्लाह में यकीन नहीं करते और इसलिए इस कबीलाई सल्तनत से बाहर हैं और इसलिए शैतान के असर में हैं, और अपनी समस्त अच्छाइयों के बाद भी गांधी शैतान के असर में होने के कारण अल्लाह के गुनहगार बन्दे की बराबरी पर कैसे आ सकते थे।

” यहाँ यह याद दिला दें कि मुहम्मद अली और शौकत अली अनपढ़ धर्मान्ध नहीं थे। नेहरू, गॉंधी आदि की तरह उन्होंने भी विलायत में शिक्षा प्राप्त की थी और प्रभावशाली इतने थे कि कहते हैं उनके कहने पर ही मुहम्मंद हबीब ने इतिहास की ओर रुख किया था क्योंकि इसी के माध्यम से कौमों के दिमाग को काबू में रखा जा सकता और इच्छित दिशा में चलाया जा सकता है और केवल परिस्थिति जन्य प्रमाण के आधार पर हम इस नतीजे पर पहुँच सके कि उन्‍होंने ही बनारस हिन्दू यूनिवर्सिटी से निष्कासित और तुनुक मिजाज कोसंबी को गणित के क्षेत्र से इतिहास की ओर मोड़ने और ब्राह्मणवाद के विरोध की आड़ में ब्राह्मणों पर, प्राचीन भारत के इतिहास पर, जड़ें खोदने वाली लगन से, काम करने को प्रेरित किया था।

यहॉं मैं जिस बात को रेखांकित करना चाहता हूँ, वह यह कि इन उदाहरणों से हम समझ सकते हैं कि असाधारण पांडित्य भी धार्मिक या मतवादी पूर्वाग्रहों से हमारे विश्‍लेषण को मुक्त नहीं कर पाता और जिस दहशत में उन्नीेसवीं शताब्दी के प्रथम दशक में मिशनरियों ने हंगामा मचाया था कि कंपनी के अधिकारी हिन्दू होते जो रहे हैं और जिसके कारण कुछ, मिसाल के लिए ऋग्वेद के अनुवादक एच.एच. विल्सन, के प्रति संदेह इतना गहरा था कि यह प्रचारित किया जाता था कि वह कहने को ईसाई है परन्तु हिन्दू हो चुका है और छिपा कर जनेउू पहनता है।

ऐसे अंग्रेज उस समय थे जो हिन्दू मूल्यों और शास्त्रों से परिचित होने के बाद ईसाई प्रचारकों को गाली देते हुए कहते थे कि यह समाज हम से अधिक सुसंस्कृत रहा है और यह अपने मूल्यों के मामले में आज भी हमसे आगे है और इसे ईसाइयत की जरूरत नहीं। मैक्नााटेन ने इन प्रचारकों के लिए these ignorant and bigoted missionaries के विशेषण का प्रयोग किया था। आत्मरक्षा की चिन्ता और अपनी श्रेष्ठता को कायम रखने की जिद से इन मिशनरियों की रपटों को ही आधार बना कर और देश देशान्तर से नमूने जुटा कर उस अग्रता को नकारने के दृढ़ संकल्प के साथ जेम्स मिल ने अपना इतिहास लिखा था और ट्वाएन्बी भले उनसे ढाई सौ साल बाद के इतिहासकार हों, दोनों का मिजाज एक है और ट्वाएन्बी अपने बृहदाकार ग्रन्थ के बाद भी भारतीय इतिहास के मामले में जेम्स, मिल के सामने छोटे दिखाई देते हैं और इसलिए मिल से कुछ कम विक्षिप्त, परन्तु अपने निष्कर्षो में निहायत सतही।‘’

‘’तुम्हें सुनते हुए मैं सोच रहा था कि जैसे मुहम्मद अली पर इस्लाम, मिल और ट्वाएन्बी पर ईसाई पूर्वाग्रह उनके निर्णयों को प्रभावित कर रहे थे, उसी तरह हिन्दुत्व के प्रति तुम्हारी आसक्ति क्या तुम्हारे तर्कों, प्रमाणों और निष्कर्षों को प्रभावित न कर रही होगी।‘’

‘’तुमने तो अपने बारे में मेरी समझ ही बदल दी। पहले तुम्हें कमाल की चीज़ समझता था, तुम तो कमाल के आदमी निकले। फिर भी आधे अधूरे ही, क्योंकि तुमने मेरी इस आशंका को इतने बाद मुखर किया पर अहसमति का कारण और प्रमाण नहीं दिया। मैं इतने लंबे समय से यह संकेत देता आ रहा हूँ कि मेरी बात सुनने वाले अनुमोदन में सिर हिलाऍं तो मेरा विश्वास बढ़ता है, वे मेरी तारीफ करें तो अच्छा तो वह भी लगता है, पर उससे अधिक तारीफ तो मैं अपने लिखने के साथ या उस क्षण में ही कर लेता हूँ, इसलिए उससे केवल प्रसन्नता बढ़ती है मिलता कुछ नहीं है। केवल आलोचना, वह निन्दा के स्तर तक पहुँच जाए तो भी, हमें सजग बनाती है। मैं कितनी बार कह आया कि हमारे इस संवाद का आशय अपने को सही साबित करना नहीं अपितु तर्क और प्रमाण के साथ अपना पक्ष रखने की आदत डालने और अपने पाशविक आवेग को नियन्त्रित करने का है जिससे हम अपने को नियन्त्रित करते हुए स्वयं को और समाज को अधिक मानवीय बनाने की दिशा में आगे बढ़ सकें। परन्तु जो मैं कहना चाहता था कि ‘हम दबोच में आ गए हैं और अगला हमें खा जाएगा’ वह गलत है, और उस पर तो बात हो ही नहीं पाई।‘’

‘’तुम जैसा आधे दिमाग का आदमी न कभी अपनी बात पूरी कर सकता है न ही दूसरे की बात पूरी तरह समझ सकता है। चलूँ?”

उसने मेरे उत्तर की प्रतीक्षा भी नहीं की और उठ खड़ा हुआ।