Post – 2016-03-15

हिन्दी का भविषय ११

“तुम हर चीज को ऐसा मजाक बना देते हो कि न हँसते बनता है न रोते बनता है।”

“क्यों, क्या हो गया कि हँसने और रोने के अलावा कोई तीसरी गति दिखाई नहीं दे रही?”

“तुम जब हिन्दी के रथ पर सवार होकर दिग्विजय पर निकले थे तो मैं सोच रहा अब बेचारी अंग्रेजी का क्या होगा? पर घर लौटा तो पाया मेरी महरी पत्नी से दो सौ ऐडवांस माँग रही है, उसे अपनी लड़की की अंग्रेजी स्कूल की फीस भरनी थी। समझ में आया अंग्रेजी का विजयरथ कहाँ तक पहुँच चुका है?”

“अंग्रेजी का तो जो होगा, होगा, पर तुम जैसों का क्या होगा उसके बिना, यह सोचता हूँ तो तकलीफ होती है। तुम्हें याद है हमारे एक बहुत प्यारे साहित्यकार थे, पिछले चुनाव से ठीक पहले उन्होंने घोषणा कर दी, ‘यदि अमुक प्रधानमंत्री बन गया तो वह इस देश में नहीं रहेंगे। सभी लोग जो उनसे प्यार करते थे घबरा गए कि अब उन जैसे ऊँचे दरजे के साहित्यकार को बचा कर रखा कैसे जाय, क्योंकि जीत तो वही व्यक्ति रहा था । दोनों में से किसी को टाला नहीं जा सकता था, न उनकी प्रतिज्ञा को, न इसकी जीत को। उन्हें किसी दूसरे देश से आमन्त्रहण नहीं मिला तो या शायद यह सोच कर कि जिस धरती पर ऐसा नालायक शासक बना बैठा हो उस धरती को ही छोड़ देना अपने चरित्र के अनुरूप है, उन्होंने धरती ही छोड़ दी। तुम भी इरादे के कम पक्के तो हो नहीं । कहीं यह घोषणा न कर देना कि अंग्रेजी न रही तो जान दे दोगे पर भारतीय भाषाओं की उन्नति नहीं झेल पाओगे । आखिर तुम्हारे हित भी तो अंग्रेजी और आन्तरिक उपिनवेशवाद से ही जुड़े हैं।”

“लगता है बहुत गहरी चोट लगी तुम्हें, मेरी सूचना से । इससे तुम इतने निष्ठुर हो गए कि एक मृत व्याक्ति का उपहास करने तक पर उतारू हो गए। पहले पता होता तो छिपा गया होता ।”

‘’देखो, जन्म और मृत्यु अटल है। मृत्यु पर मृत व्यक्ति के अभाव की पीड़ा और उसके साथ समवेदना हमारी मानवीयता को प्रकट करता है, परन्तु मर जाने के कारण समझदार या लगभग समझदार लोगों के वचन आप्त हो जाते हैं, या उनकी मूर्खताओं का भी महिमामंडन किया जाना चाहिए, यह मेरी समझ में नहीं आता। और यह तो बिल्कु ल समझ में नहीं आता कि कोई जीवित व्यक्ति अपने आचरण से उसी तरह की मूर्खता करता दिखाई दे और उसे बचाने का प्रयत्न न किया जाय, जो मैं तुम्हारे सन्दर्भ में कर रहा था।

“तुम्हें अपनी महरी की लड़की की फीस के पैसे दिखाई दिये पर वह कफन दिखाई नहीं दिया जिसकी बुनावट पूरी होने को आ गई है और उसका एक तार उसके फीस के पैसे का था?”

“मरने के दिन तो भारतीय भाषाओं के आ रहे हैं, भाई। तुम्हें पता है हमारी बोल-चाल की भाषा तक में अंग्रेजी के शब्द किस तरह भरते चले जा रहे हैं? लोग नाते रिश्ते के शब्दों तक में जिन्हें आधारभूत शब्दावली मे गिना जाता है अंग्रेजी शब्दों का प्रयोग करने लगे है – आंटी, अंकल, डैड, पापा, हस्बैंड, ब्रदर, सिस्टर, कजिन, नेफ्यू, सन, ग्रैंडसन- अपने आत्मीय शब्दों का स्थान लेते जा रहे हैं। यह हाल कमोबेस सभी भारतीय भाषाओं का है। लोग संवत, महीनों और दिनों के नाम और पहचान भूलते जा रहे है। सावन का महीना, भादों की रात, चैत की चाँदनी, जेठ की धूप, पूस का जाड़ा, माघ की ठिठुरन मुहावरों में बचे रह गए हैं, और एक दिन ये मुहावरे भी व्यर्थ मान लिए जाऍंगे। लोग महीनों का नाम जानते है पर यह नहीं जानते कि कौन सा महीना कब शुरू हुआ और आज कल कौन सा महीना चल रहा है। तुम्हारे पढ़े लिखे समाज का आधा से अधिक हिस्सा मानसिक रूप ईसाई मूल्यों से अनुकूलित हो चुका है और हिन्दू शब्द तक से घबराहट अनुभव करता है जैसे यह दिमागी पिछड़ेपन का ही नहीं बर्बरता का सूचक हो और इसी मे यदि किसी ने हौसला बढ़ाने के लिए नारा लगा दिया कि ‘गर्व से कहो मैं हिन्दू हूँ’ तो उस आधे शिक्षित समाज को जो आधा हिन्दू रह गया है, परन्तु पूरे हिन्दुत्व की रक्षा का दम भरते हुए दूसरों को लताड़ता है, सुनाई देता है ‘गर्व से कहो मैं बर्बर हूँ’।

“भाषाएँ, सभ्यताएँ, समाज किस तरह दबाव मे आते हैं और किस तरह अपने बचाव के लिए छटपटाते हैं और किस तरह अशक्त होते हैं और फिर मरणासन्न होते हैं उसका यह जीता जागता नमूना है । तुम्हें याद है, तुम्हीं ने एक दिन सभ्यताओं के टकराव पर ट्वायनबी के ऐन आइडिया आफ हिस्ट्री के दो सूत्र समझाए थे जिनमें पहला था कि हिन्दू सभ्यता परिपक्व सभ्यता है जिसका अर्थ था इसकी जिजीविषा चुक गई है। इसके विस्तार और विकास की संभावना समाप्तप्राय हैं और उसका संकेत था कि यह मरणासन्न है या उसकी कगार पर है। दूसरा यह था कि जब किसी दबंग सभ्य ता का सामना किसी दब्बू सभ्यता से होता है तो वह अपनी रक्षा के लिए रूढिवादिता का सहारा लेती है; फिर भी अपने को सँभाल नहीं पाती तो दबंग सभ्यता के सबसे निरापद प्रतीत होने वाले किसी तत्व को अपनाती है। परन्तु किसी सभ्य ता की एक आवयविकता होती है, उसका कोई तत्व जब दूसरी में प्रवेश करता है तो उसमें अपने मूल्यों और जीवनशैली के लिए स्थाान बनाता है और इस तरह उसे भीतर से तब तक तोड़ता चला जाता है जब तक वह पूरी तरह समाप्त न हो जाए । इन दोनों तर्कों से जो परिणाम सामने आता है उसको समझो और इस आशावाद से बचो, नहीं तो ‘हिन्दीे आ रही है, भारतीय भाषाऍं अपनी अस्मिता पहचान रही है और वर्चस्व के लिए जंग लड़ रही हैं’ कहते हुए तुम पागल हो जाओगे और मैं तुम्हारी मदद नहीं कर पाउूँगा और इसका अफसोस मुझे जिन्दगी भर बना रहेगा।‘’

‘’यार मुझे तो सूरदास की इस पंक्ति का अर्थ ही समझ में नहीं आता था, ‘दादुर बसत निकट कमलन के तनक न रस पहचानें’। आज पता चला कि इतने लंबे समय तक मेरे साथ रहते हुए भी तुम मूर्ख के मूर्ख कैसे रह गए। पहले अपने पर अफसोस होता था कि मैं अपनी बात ठीक से समझा नहीं पाता, अब उस विचारधारा पर होता है जिसने तुम्हें आदमी से दादुर बना दिया। टर्राने की आदत डाल दी पर समझने का कोना खाली कर दिया।‘’

‘’चकमा मत दो, तर्क और प्रमाण देते हुए बात किया करो। यह शर्त तुमने ही रखी थी, याद है।‘’

‘’तुम इतने विलम्बसे मेरी यह बात समझ सके कि पराभव के बोध के बाद ही अभ्युदय का संकल्प पैदा होता है। तुम तो गुप्त जी की उन पंक्तियों तक को भूल चुके हो, ‘हम कौन थे/ क्या हो गये हैं/ और क्या होंगे अभी। आओ विचारें/ आज मिल कर/ ये समस्यायें सभी।‘ तुम इतने गोबर-धन निकले कि अपनी उस पैरोडी तक को भूल गए जिससे आत्मबलिदािनयों की पीढियाँ पैदा हुई थीं।

सुनो, आस पास के लोग शिकायत करते हैं कि ये दोनों बूढ़े थकते भी नहीं है, बकवास इस अन्दाज से जारी रखते हैं मानो दर्शन बघार रहे हैं इसलिए आज की बात बन्द पर कल फैज की कुत्ते शीर्षक कविता कहीं मिले तो पढ़ना, खास कर उनकी ये पंक्तियॉं ‘कोई इनको अहसासे जिल्लत दिला दे/ कोई इनकी सोई हुई दुम हिला दे। बाकी की पंक्तियॉं वाहियात है और भावोच्छ्वास हैं इसलिए उनमें सकारात्मक कुछ न मिलेगा। परन्तु आशा की किरण इस अहसासे जिल्लत से ही फूटती है। अन्यायी व्युवस्था के कफन के धागे यहीं तैयार होते हैं जिसे मैं देख रहा हूँ तुम नहीं देख पाते।‘’