Post – 2016-03-11

हिन्दी का भविष्य (9)

‘’आज राजनीतिक दलों के सामने कोई ऐसा बड़ा मुद्दा नहीं है जिससे व्यापक जनसमाज को जोड़ा जा सके और एक बड़ा जन-आन्दोलन खड़ा किया जा सके और राष्ट्रीय ऊर्जा को एकिदश करके उस आत्मबोध और आत्समविश्वास को जगाया जा सके जिसके अभाव में व्यक्ति, संगठन, संस्थाएँ और राजनीतिक दल सभी गिरावट और गलाजत के शिकार हो चुके हैं और अपने को चर्चा में बनाए रखने के लिए नितान्त घटिया, आत्मघाती और देशघाती बयान देने और काम करने के लिए तैयार ही नहीं हो जाते अपितु इस पर गर्व भी करते हैं। बदहवासी का आलम यह कि जिन्हें हम समझदार समझते चले आए थे वे भी ऐसी गतिविधियों का समर्थन करते हुए ताली बजाने उऔर झूमने लगते हैं जिनके लिए सान्निपातिक प्रलाप से अलग कोई शब्द मुझे उपयुक्त नहीं लगता। सर्वव्यापी गिरावट के इस दौर में बुद्धिनाश की पराकाष्ठा यह कि सुनना और देखना तक बाहरी संकेत से नहीं संबन्धित पक्षों की आकांक्षा के अनुसार सुनाई पड़ता और दिखाई देता है। वस्तुसत्य का ऐसा लोप मनोविच्छिन्नता में ही संभव है और सामाजिक मनोविच्छिन्नता यदि उस चरम पर पहुँच जाए जहॉं लोगों को पता हो कि उन्हें किस रंग का, किस काट का, कितना सस्ता या मँहगा, कितना टिकाउू और जड़ाउू सत्य चाहिए तो पक्ष समझ में आ सकते हैं, सत्य समझ में नहीं आ सकता।‘’

‘’तुम रोज रोज कोई न कोई रोना लेकर क्यों बैठ जाते हो यार, थकते नहीं हो? उूबते भी नहीं ? जो है सो है, रोने से कम हो जाएगा या बदल जाएगा ?’’

‘’तुम चिन्ता को रोना मान लोगे तो इस अधोगति से उबरने का उपाय तलाशने की जगह जो-होगा-देखा-जाएगा-वाद के अनुयायी हो जाओगे। मार्क्सवाद अपनी हताशा में यहीं पहुँच गया है। इसने इस देश और समाज को समझे बिना ही अपने पवित्र आवेश में जितने भी प्रयोग किए सभी हल्की सी सुगबुगाहट पैदा करने के बाद ठंडे पड़ गए और आज वह जुआड़ियों की तरह ब्लाइंड खेल रहा है। यह उस भाग्यवाद की पराकाष्ठा है जिसका उपहास करना तुम्हारे मनोविनोद का हिस्सा रहा है। अपनी नासमझी के कारण आजकल दूसरों के मनोविनोद का सामान बन चुके हो।‘’

‘’तो आओ हम उधर जो लोग बैठे हैं और जो घूम टहल रहे हैं सबको इकट्ठा कर लें और एक सुर से भारत-दुर्दशा नाटक का वह कोरस गाऍं, ‘आओ और सब मिलि रोओ भारत भाई । हाहा भारत दुर्दशा न देखी जाई!’ कुछ ऐसा ही है न ?

‘’तुम यह भी नहीं कर सकते । अपने को बदलने का संकल्प अपनी अधोगित के बोध से ही आरंभ होता है । दुनिया बदलने वाले आसमान से टपकते नहीं हैं हमारे बीच से ही पैदा होते हैं । उन्हें तलाशना नहीं है वे हैं और सही नेतृत्व और दिशाबोध के अभाव यथास्थिति से अपने क्षोभ और कुछ न कर पाने की आकुलता के कारण परिणाम की चिन्ता किए बिना कुछ भी कर गुजरने को तैयार हो जाते हैं ।‘’

’’ तुम्हें उनके ऐसे कार्यों और उद्गारों पर क्रोध आता है, तिलमिला उठते हो और हम कहते हैं मौत के सन्नाटे से तूफान भरी जिन्दगी ही सही। कुछ हो तो रहा है।”

‘’क्योंकि तुम हुड़दंग और काम का अन्तर नहीं जानते। हुड़दंग न हो तो सोचते हो मौत का सन्नानटा छा गया है। यह मेरी समस्या नहीं है, तुम्हारी और तुम्हारे चिकित्सक की समस्या है। तुमने पहला पाठ ही गलत पढ़ा और जो भी तुम्हारे संपर्क में आया उसे वही पाठ पढ़ा कर अर्धविक्षिप्त बना कर छोड़ दिया।‘’

वह हँसने लगा, ‘’क्या था मेरा पहला पाठ ?’’

‘’यह कि शोषण, उत्पीाड़न, विषमता भी युगों से चली आ रही हिंसा के रूप हैं और इनको समाप्त करने के लिए हिंसा जरूरी भी है और न्याँयोचित भी।‘’

‘’तुम शोषण, उत्पीड़न, विषमता को हिंसा नहीं मानते ? इनसे घृणा नहीं करते?’’

‘’घ़ृणा नहीं करता, इनको निर्मूल करना चाहता हूँ। तुम इन्हेंं निर्मूल नहीं करना चाहते, बनाए रखना चाहते हो और इसकी कमाई खाना चाहते हो।‘’

वह इस तरह उछला मानो बिच्छू ने डंक मार दिया हो, ‘’मैं बनाए रखना चाहता हूँ और तुम उन्हें मिटाना चाहते हो। तुम, तुम…’’ उसके चेहरे के तनाव और खिंचाव से ही प्रकट था कि वह अपनी उत्तेाजना में कोई ऐसी गाली तलाश करना चाहता था जो मर्मान्तक भी हो पर इतनी अपमानजनक न हो कि संबन्ध ही टूट जायँ।
हिन्दी में उस पाये की गाली नहीं मिली और वह कुछ निराश होने लगा कि तभी चेहरे पर चमक आ गई और बोला, ‘’यू रैस्क‍ल।‘’

वह कुछ आगे कहने जा रहा था, कि मैं हॅस पड़ा तो वह नर्वस हो गया। भौचक सा मेरी ओर देखने लगा कि मैं हॅस किस बात पर रहा हूँ।

मैंने कहा, ‘’यार, मैं तो यह कहना चाहता था कि यदि सामाजिक न्या य को दूसरी स्वतन्त्रता का मुद्दा बनाया जाये, गरीबी रेखा से नीचे के लोगों के गरीबी रेखा से उूपर की श्रेणी की समकक्षता में लाने के संघर्ष में बदला जाय जिसका विरोध एपीएल या एबव पावर्टी लाइन नहीं कर सकेंगे और यह इस नारे के साथ आरंभ हो कि हमें मुफ्त एलपीजी सिलेंडर देने की जगह मेरी जबान दो, मेरी जबान को उसका सम्मान दो, इसे ही शि‍क्षा और उच्चतम पदों की एकमात्र जबान बनाओ जिससे अक्षर ज्ञान के बाद हमारे ज्ञान के दरवाजे और अवसर की समानता के रास्ते खुल जायँ तो हमें एक बड़ा मुद्दा मिल जाएगा और जो भी इस दिशा में पहल करेगा वह वर्ण, धर्म, संप्रदाय, जाति और क्षेत्र की संकीर्णताओं को तोड़ कर कम से कम न्यांय, सम्मान और उन्‍नयन का एक मार्ग तो खोलेगा। पहले सोचा था तुम्हें मेरा प्रस्ताव सही लगेगा पर तुम्हारी गाली सुनने के बाद लगा, जब अंग्रेजी को हटा कर भारतीय भाषाओं को उनका स्थान दिलाने का निर्णायक क्षण आएगा तो तुम कहोगे, ‘’हमने तो कभी नहीं कहा कि अंग्रेजी ज्ञान की भाषा है। ज्ञान तो चुगद भी जानते हैं कि अपनी ही जबान में प्राप्त हेा सकता है, पर अगर अंग्रेजी चली गई तो हम गालियॉं किसमें देंगे। ज्ञान के लिए न सही, गालियॉं देने के लिए तो हमें अंग्रेजी को यथावत बनाए रखना ही होगा।”